अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 18
नि येन॑ मुष्टिह॒त्यया॒ नि वृ॒त्रा रु॒णधा॑महै। त्वोता॑सो॒ न्यर्व॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठनि । येन॑ । मु॒ष्टि॒ऽह॒त्यया॑ । नि । वृ॒त्रा । रु॒णधा॑महै ॥ त्वाऽऊ॑तास: । नि । अर्व॑ता ॥७०.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यर्वता ॥
स्वर रहित पद पाठनि । येन । मुष्टिऽहत्यया । नि । वृत्रा । रुणधामहै ॥ त्वाऽऊतास: । नि । अर्वता ॥७०.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 18
विषय - राजा परमेश्वर।
भावार्थ -
हे परमेश्वर ! (येन) जिस (त्वोतासः) तेरे द्वारा सुरक्षित होकर (मुष्टिहत्यया) चित्त वृति को विषयों में हर ले जाने वाली या आत्मा के स्वरूप को संप्रमोप या विस्मरण करा देने वाली तामस तृष्णा को मार कर (वृत्रा) अन्तःकरण को आ घेरने वाले, योग-सुख के बाधक विघ्नों का (नि रुणधामहै) सर्वथा निरोध करें और (अर्वता) ज्ञानबल से सभी उसको (नि रुणधामहै) निरुद्ध करें।
राजा के पक्ष में—हम प्रजागण (त्वा उतासः) तेरे से सुरक्षित रह कर (मुष्टिहत्यया) मुक्कों से या शस्त्रों से प्रहार कर कर के (अता) अश्व बल से शत्रुओं को (निरुणधामहै) रोकें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥
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