अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
दे॑व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒व॒ऽयन्त॑: । यथा॑ । म॒तिम् । अच्छ॑ । वि॒दत्ऽव॑सुम् । गिर॑: । म॒हाम् । अ॒नू॒ष॒त॒ । श्रु॒तम् ॥७०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः। महामनूषत श्रुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽयन्त: । यथा । मतिम् । अच्छ । विदत्ऽवसुम् । गिर: । महाम् । अनूषत । श्रुतम् ॥७०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
विषय - राजा परमेश्वर।
भावार्थ -
(देवयन्तः) उपास्य देव परमेश्वर की उपासना करनेहारे (गिरः) विद्वान् पुरुष (यथा) जिस प्रकार से (मतिम्) मनन करने योग्य, (वसुम्) सबके बसाने वाले और सबमें बसने वाले (श्रुतम्) सबसे श्रवण करने योग्य, जगत्-प्रसिद्ध, (महाम्) महान् परमेश्वर को (अच्छ) साक्षात् (विदद्) जानते हैं उसी प्रकार (ते) वे उसकी (अनूषत) स्तुति किया करते हैं।
राजा के पक्ष में—(दवयन्तेः) अपने प्रमुख राजा को चाहने वाले (गिरः) विद्वान् पुरुष या शत्रुओं को निगलने वाले वीर पुरुष (यथा) जिस प्रकार (मतिम्) मननशील विद्वान् या शत्रु के स्तम्भन करने वाले (वसु) प्रजा के बसाने वाले, (श्रुतम्) जगत्-प्रसिद्ध (महाम्) महान् पुरुष को (अच्छा विदत्) साक्षात् प्राप्त करते या पाते हैं वैसे ही वे उसकी (अनूषत) स्तुति भी करते हैं, उसका आदर करते हैं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥
इस भाष्य को एडिट करें