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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 70

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 8
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०

    इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमिश्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । इत् । हर्यो॑: । सचा॑ । सम्ऽमि॑श्ल: । आ । व॒च॒: । युजा॑ ॥ इन्द्र॑: । व॒ज्री । हि॒र॒ण्यय॑: ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इद्धर्योः सचा संमिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । इत् । हर्यो: । सचा । सम्ऽमिश्ल: । आ । वच: । युजा ॥ इन्द्र: । वज्री । हिरण्यय: ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    (इन्द्रः इत्) इन्द्र ही (हर्योः) अपने में नित्य विद्यमान (हर्योः) हरण और आहरण अर्थात् उत्पत्ति और विनाश नामक उन दो महान् शक्तियों के साथ आ (संमिश्लः) सब प्रकार से रचा मिचा है वे दोनों शक्तियां (वचोयुजा) वचन के साथ योग करती हैं। अर्थात् वचन द्वारा संक्षेप से कही जा सकती हैं। अथवा (वचोयुजा) वेद के वचनों से युक्त है। स्वयं (इन्द्रः) वह परमेश्वर (हिरण्यमः) सुवर्ण के समान कान्तिमान् और मनोहर होकर भी (वज्री) कठोर वज्र रूप शासन को धारण करता है। ईश्वर के दो ही स्वरूप हैं, वह जगत् के पदार्थों को बनाता है या संहार करता है। इन दोनों कार्यों में जगत् के पदार्थ स्वतन्त्र न रह कर परतन्त्र हैं। संहारक होने से वज्रवान् खड्गधारी रुद्र के समान है। उत्पादक होने से वह तेजस्वी और वीर्यवान् है। राजा के पक्ष में—(वचो युजा हर्योः सचा संमिश्लः) आज्ञाकारी दो वेगवान् घोड़ों से युक्त है। वह खड्ग घर और सुवर्णवान् है अर्थात् शासनधर और कोपवान् है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥

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