अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 9
इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । दी॒र्घाय॑ । चक्ष॑से । आ । सूर्य॑म् । रो॒ह॒य॒त् । दि॒वि ॥ वि । गोभि॑: । अद्रि॑म् । ऐ॒र॒य॒त् ॥७०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद्दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । दीर्घाय । चक्षसे । आ । सूर्यम् । रोहयत् । दिवि ॥ वि । गोभि: । अद्रिम् । ऐरयत् ॥७०.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 9
विषय - राजा परमेश्वर।
भावार्थ -
(इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (दीर्घाय चक्षसे) दूर तक देखने के लिये (दिवि) आकाश में (सूर्यम् आरोहयत्) सूर्य को स्थापित करता है। और वह सूर्य (गोभिः) किरणों से या गमनशील वायुओं से (अद्रिम्) मेघ को भी (वि ऐरयत्) विविध दिशाओं में प्रेरित करता है।
राजा या सेनापति के पक्ष में—वह (दीर्घाय चक्षसे) दीर्घ दृष्टि से दूरतक के भविष्य को देखने के लिये (दिवि) विद्वानों की राजसभा के में सबसे ऊपर (सूर्यम्) आकाश में सूर्य के समान तेजस्वी ज्ञानप्रकाशक विद्वान् को प्रधान पदपर स्थापित करता है और वह (गोभिः) अपनी ज्ञान वाणियों से (अद्रिम्) अखण्ड शासन या अभेद्य बलको (विऐरयत्) विविध प्रकार से प्रेरित करता है। और उसका विविध रूप में उपयोग करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥
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