अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 7
आ यत्पत॑न्त्ये॒न्य: सु॒दुघा॒ अन॑पस्फुरः। अ॑प॒स्फुरं॑ गृभायत॒ सोम॒मिन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । पत॑न्ति । ए॒न्य॑: । सु॒ऽदुघा॑: । अन॑पऽस्फुर: ॥ अ॒प॒ऽस्फुर॑म् । गृ॒भा॒य॒त॒ । सोम॑म् । इन्द्रा॑य । पात॑वे ॥९२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यत्पतन्त्येन्य: सुदुघा अनपस्फुरः। अपस्फुरं गृभायत सोममिन्द्राय पातवे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यत् । पतन्ति । एन्य: । सुऽदुघा: । अनपऽस्फुर: ॥ अपऽस्फुरम् । गृभायत । सोमम् । इन्द्राय । पातवे ॥९२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 7
विषय - ईश्वर स्तुति।
भावार्थ -
(सुदुघाः) उत्तम रीति से दूध देने वाली और (अनपस्फुरः) न चौंकने वाली, अपीड़ित (एनाः) शुभ्र गौओं के समान या (सुदुघाः) उत्तम जल से पूर्ण (अनपस्फुरः एन्यः) निश्चल, प्रशान्त नदियों या जलधाराओं के समान (यत्) जब भीतर ब्रह्मरस की धाराएं (आ पतन्ति) प्राप्त होजाती हैं तब हे विद्वान् योगाभ्यासी पुरुषो ! तुम लोग (इन्द्राय) आत्मा के (अपस्फुरम्) स्थिर, चंचलतारहित, अविक्षुब्ध, अविच्छिन्न (सोमम्) आनन्दरस को (पातवे) पान करने के लिये (गृभायत) उस को ग्रहण करो, उसका साक्षात् करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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