अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 9
सु॑दे॒वो अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः। अ॑नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्यं सुषि॒रामि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽदे॒व: । अ॒सि॒ । व॒रु॒ण॒ । यस्य॑ । ते॒ । स॒प्त । सिन्ध॑व: ॥ अ॒नु॒ऽक्षर॑न्ति । का॒कुद॑म् । सू॒र्म्य॑म् । स॒सु॒विराम्ऽइ॑व ॥९२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः। अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्यं सुषिरामिव ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽदेव: । असि । वरुण । यस्य । ते । सप्त । सिन्धव: ॥ अनुऽक्षरन्ति । काकुदम् । सूर्म्यम् । ससुविराम्ऽइव ॥९२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 9
विषय - ईश्वर स्तुति।
भावार्थ -
हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ आत्मन् ! तू (सुदेवः असि) सर्वश्रेष्ठ, देव एवं उत्तम सुख और कल्याण का देनेहारा (असि) है। (यस्यते) जिस तेरे (सप्त सिन्धवः) सर्पणशील महानदों के समान सातों शिरोगत प्राण (सूर्म्यम्) उत्तम धारायुक्त (सुपिराम् इव) एक धारा के समान एक स्रोत को प्राप्त होकर (काकुदम्) तालु के प्रति (अनुक्षरन्ति) प्रवाहित होते हैं। योगाभ्यासी के सातों प्राणों का रस तालु से अमृतरूप से द्रवित होता है। मानो सात धाराएं एक धार होकर बहती हैं।
अथवा—(सुपिराम् सूर्म्यम् इव) छेदवाली ज्वलनशील बारूद की भरी नालिका के समान फूटते हैं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें