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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 15
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - सूक्त-९२

    अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सः प्रि॒यमे॑धास एषाम्। पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑तिं वृ॒क्तब॑र्हिषो हि॒तप्र॑यस आशत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑स: । प्रि॒यऽमे॑धास: । ए॒षा॒म् ॥ पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्रऽय॑तिम् । वृ॒क्तऽब॑र्हिष । हि॒तऽप्र॑यस: । आ॒श॒त॒ ॥९२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्। पूर्वामनु प्रयतिं वृक्तबर्हिषो हितप्रयस आशत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । प्रत्नस्य । ओकस: । प्रियऽमेधास: । एषाम् ॥ पूर्वाम् । अनु । प्रऽयतिम् । वृक्तऽबर्हिष । हितऽप्रयस: । आशत ॥९२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 15

    भावार्थ -
    (प्रियमेधास:) पवित्र ब्रह्मज्ञान के प्रिय, (हित-प्रयसः) ज्ञान को प्राप्त कर लेने वाले (पूर्वाम् प्रयतिम् अनु) अपने पूर्व जन्म के किये उत्कृष्ट यत्न के अनुकूल (वृक्तबर्हिषः) यज्ञ में जिस प्रकार कुशादि बिछाये जाते हैं उसी प्रकार अध्यात्म यज्ञ के लिये प्राणों का आयमन करने वाले विद्वान् साधक जन (एषाम्) इन में जीव के रहने योग्य समस्त लोकों में से सबसे (प्रत्नस्य ओकसः) पुरातन पुण्य स्थान या आश्रय परम ब्रह्म को ही (अनु आशत) निरन्तर उपभोग करते, उसमें रमते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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