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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 11
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९२

    अतीदु॑ श॒क्र ओ॑हत॒ इन्द्रो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विषः॑। भि॒नत्क॒नीन॑ ओद॒नं प॒च्यमा॑नं प॒रो गि॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ । इत् । ऊं॒ इति॑ । श॒क्र: । ओ॒हते॒ । इन्द्र॑: । विश्वा॑: । अति॑ । द्विष॑: ॥ भि॒नत् । क॒नीन॑: । ओ॒द॒नम् । प॒च्यमा॑नम् । प॒र: । गि॒रा ॥९२.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतीदु शक्र ओहत इन्द्रो विश्वा अति द्विषः। भिनत्कनीन ओदनं पच्यमानं परो गिरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अति । इत् । ऊं इति । शक्र: । ओहते । इन्द्र: । विश्वा: । अति । द्विष: ॥ भिनत् । कनीन: । ओदनम् । पच्यमानम् । पर: । गिरा ॥९२.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 11

    भावार्थ -
    (इन्द्रः) वह आत्मा या योगाभ्यासी पुरुष (शक्रः) शक्तिमान्, राजा के समान (विश्वाः द्विषः) समस्त शत्रुओं को (अति) अतिक्रमण करके (अति इत्) समस्त दुःखों के पार ही (ओहते) पहुंचा देता है। और वह (कनीनः) अति कमनीय, अति सुन्दर, सुरूप, कान्तिमान्, (परः) समस्त इन्द्रियगण और मन से भी परे विद्यमान रहकर (पच्यमानम् ओदनम्) परिपक्व होने वाले भात के समान, भोग्य ब्रह्मरूप बल को अथवा (परः पच्यमानं ओदनं) परम स्थान पर परिपक्व होते हुए तेज को (गिरा) स्तुति द्वारा या उपदेश द्वारा या ओंकार-रूप नाद द्वारा (भिनत्) भेद लेता है, उसे प्राप्त होजाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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