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  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    आपो॒ हि ष्ठा म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ऽ ऊ॒र्जे द॑धातन।म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑। हि। स्थ। म॒यो॒भुव॒ इति॑ मयः॒ऽभुवः॑। ताः। नः॒। ऊ॒र्जे। द॒धा॒त॒न॒ ॥ म॒हे। रणा॑य। चक्ष॑से ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता नऽऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आपः। हि। स्थ। मयोभुव इति मयःऽभुवः। ताः। नः। ऊर्जे। दधातन॥ महे। रणाय। चक्षसे॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 14
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (आपः) जलाप्रमाणे शांत स्वभावाच्या हे विदुषी श्रेष्ठ स्त्रियांनो, ज्याप्रमाणे (मयोभुवः) सुखकारक जल (हि) निश्‍चयाने (नः) आम्हाला (आम्हा वीर पतीनां) (महे) महान्) वा घोर (रणाय, चक्षसे) युद्धात (ऊर्जे) बळ व पराक्रम करण्यासाठी धारण करतात (आम्हास शक्ती व उत्साह देतात) त्याप्रमाणे तुम्ही गृहिणी स्त्रियादेखील या सुखकारक जलाचा उपयोग करा आणि सर्वांच्या प्रिय (स्य) व्हा. ॥14॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसे श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रिया सर्वांना सर्वप्रकारे (घरातील व्यवस्था उत्तम ठेऊन सुखी व आनंदित करतात, त्याप्रमाणे जल आदी पदार्थ सर्वांसाठी सुखकारी होतात, असे जाणा. ॥14॥

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