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  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 23
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒।योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒मि॒त्रि॒या इति॑ सुऽमित्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः। स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒ ॥ यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुमित्रिया नऽआप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुमित्रिया इति सुऽमित्रियाः। नः। आपः। ओषधयः। सन्तु। दुर्मित्रिया इति दुःऽमित्रियाः। तस्मै। सन्तु॥ यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 23
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, आपः) जल वा प्राण (ओषधयः) या वनस्पती आदी औषधी (नः) आम्हाकरिता (सुमित्रियाः) प्रिय मित्राप्रमाणे (सन्तु) असाव्यात, त्याच औषधी (यः) जो अधार्मिक दुष्टजन (अस्मान्) आम्हा धर्मात्मा लोकांचा (द्वेष्टि) द्वेष करतात (च) आणि (यम्) ज्याचा (वयम्) आम्ही धर्मात्मा (द्वेष्टि) द्वेष करतो (तस्मै) त्या दुष्यांकरिता त्या वनस्पती (दुर्मित्रियाः) शत्रूप्रमाणे विरोधी (सन्तु) असाव्यात. ॥23॥

    भावार्थ - भावार्थ - जशी वशीकृत इंद्रियें मनुष्यासाठी हितकर मित्राप्रमाणे होतात, तद्वत जल आदी पदार्थ देखील देशकालाप्रमाणे यथोचित रीतीने सेवन केल्यास मनुष्यासाठी हितकारी होतात. पण जर त्याच पदार्थांचा उपयोग अनुचित रीतीने केला, तर त्याच वस्तू हानिकारक मनतात. ॥23॥

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