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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 10
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒मी ये पञ्चो॒क्षणो॒ मध्ये॑ त॒स्थुर्म॒हो दि॒वः। दे॒व॒त्रा नु प्र॒वाच्यं॑ सध्रीची॒ना नि वा॑वृतुर्वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मी इति॑ । ये । पञ्च॑ । उ॒क्षणः॑ । मध्ये॑ । त॒स्थुः । म॒हः । दि॒वः । दे॒व॒ऽत्रा । नु । प्र॒ऽवाच्य॑म् । स॒ध्री॒ची॒नाः । नि । व॒वृ॒तुः॒ । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिवः। देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रीचीना नि वावृतुर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमी इति। ये। पञ्च। उक्षणः। मध्ये। तस्थुः। महः। दिवः। देवऽत्रा। नु। प्रऽवाच्यम्। सध्रीचीनाः। नि। ववृतुः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेते परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सभाध्यक्षादयो जना युष्माभिर्यथाऽमी उक्षणः पञ्च महो दिवो मध्ये तस्थुर्यथा च सध्रीचीना देवत्रा निवावृतुस्तथा ये नितरां वर्त्तन्ते तान् प्रजाराजप्रसङ्गिनः प्रति विद्यान्यायप्रकाशवचो नु प्रवाच्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (अमी) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (ये) (पञ्च) यथाग्निवायुमेघविद्युत्सूर्य्यमण्डलप्रकाशास्तथा (उक्षणः) जलस्य सुखस्य वा सेक्तारो महान्तः। उक्षा इति महन्नाम०। निघं० ३। ३। (मध्ये) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (महः) महतः (दिवः) दिव्यगुणपदार्थयुक्तस्याकाशस्य (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु वर्त्तमानाः (नु) शीघ्रम् (प्रवाच्यम्) अध्यापनोपदेशार्थं विद्याऽऽज्ञापकं वचः (सध्रीचीनाः) सहवर्त्तमानाः (नि) (वावृतुः) वर्त्तन्ते। अत्र वर्त्तमाने लिट्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्येति दीर्घत्वम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यादयो घटपटादिपदार्थेषु संयुज्य वृष्ट्यादिद्वारा महत्सुखं संपादयन्ति सर्वेषु पृथिव्यादिपदार्थेष्वाकर्षणादिना सहिता वर्त्तन्ते च। तथैव सभाद्यध्यक्षादयो महद्गुणविशिष्टान् मनुष्यान् संपाद्यैतैः सह न्यायप्रीतिभ्यां सह वर्त्तित्वा सुखिनः सततं कुर्युः ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ये परस्पर कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सभाध्यक्ष आदि सज्जनो ! तुमको जैसे (अमी) प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (उक्षणः) जल सींचने वा सुख सींचनेहारे बड़े (पञ्च) अग्नि, पवन, बिजुली, मेघ और सूर्य्यमण्डल का प्रकाश (महः) अपार (दिवः) दिव्यगुण और पदार्थयुक्त आकाश के (मध्ये) बीच (तस्थुः) स्थिर है और जैसे (सध्रीचीनाः) एक साथ रहनेवाले गुण (देवत्रा) विद्वानों में (नि, वावृतुः) निरन्तर वर्त्तमान हैं, वैसे (ये) जो निरन्तर वर्त्तमान हैं उन प्रजा तथा राजाओं के संगियों के प्रति विद्या और न्याय प्रकाश की बात (नु) शीघ्र (प्रवाच्यम्) कहनी चाहिये। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य आदि घटपटादि पदार्थों में संयुक्त होकर वृष्टि आदि के द्वारा अत्यन्त सुख को उत्पन्न करते हैं और समस्त पृथिवी आदि पदार्थों में आकर्षणशक्ति से वर्त्तमान हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि महात्मा जनों के गुणों वा बड़े-बड़े उत्तम गुणों से युक्त मनुष्यों को सिद्ध करके इनसे न्याय और प्रीति के साथ वर्त्तकर निरन्तर सुखी करें ॥ १० ॥

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    विषय

    पञ्च उक्षा

    पदार्थ

    १. (अमी) = वे (ये) = जो (पञ्च) = पाँच (उक्षणः) = शरीर में वीर्य का सेचन करनेवाले प्राण [प्राणों के संयम से शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है] (मध्ये तस्थुः) = शरीर के मध्य में स्थित हैं , वे प्राण (महः) = तेजस्विता को देनेवाले हैं [महस् - Lusture] , अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं अथवा अपना संयम करनेवाले पुरुष को चित्तवृत्ति के निरोध के द्वारा मह पूजायाम् प्रभु की पूजा की वृत्तिवाला बनाते हैं । (दिवः) = ये हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाले हैं । प्राणायाम से मनुष्य ऊर्ध्वरेतस् बनता है । यह रेतस् उसकी ज्ञानाग्नि का इंधन बनता है एवं ज्ञान से जीवन प्रकाशमय हो उठता है । इस प्रकार प्राणायाम का प्रथम लाभ ‘मनो - निरोध के द्वारा प्रभुपूजा की वृत्तिवाला बनना है’ और दूसरा लाभ ज्ञानाग्नि की दीप्ति के द्वारा प्रकाशमय जीवन का होना है । 

    २. इस प्रकार (देवत्रा) = देवों में (नु) = भी (प्रवाच्यम्) = इनका कार्य अत्यन्त प्रशंसनीय होता है । ये प्राण सब देवों [इन्द्रियों] को शक्ति प्राप्त कराते हैं । प्राण ही इन इन्द्रियों में श्रेष्ठ हैं । इन्हीं की शक्ति से इन्द्रियाँ शक्तिसम्पन्न होकर अपना - अपना कार्य करती हैं । 

    ३. ये प्राण जब (सध्रीचीनाः) = [सह अञ्चन्ति] मिलकर कार्य करनेवाले होते हैं तब (निवावृतुः) = जीवन - यात्रा के लिए सब आवश्यक कार्यों को सिद्ध करनेवाले होते हैं । प्रभु कहते हैं कि (मे) = मुझसे प्रतिपादित (अस्य) = इस प्राणों के महत्त्व की बात को (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक अर्थात् सब मनुष्य (वित्तम्) = समझ लें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणों के महत्व को समझकर मनुष्य प्राणसाधना करनेवाले बनें । प्रयत्न करें कि उनके प्राण शक्ति का सञ्चार करें । ये सध्रीचीन् होंगे तो हमारी जीवन - यात्रा ठीक से पूर्ण हो जाएगी । 
     

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    विषय

    देह गत पांच प्राणों के समान पांच प्रमुख, पञ्चायत तथा बृहद् बल वाले पंच तत्त्वों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( उक्षणः मध्ये दिवः ) आकाश के बीच में जिस प्रकार जल वर्षण करने वाले मेघ विराजते हैं उसी प्रकार (अमी ये) वे जो ( पञ्च ) पांच ( उक्षणः ) सुखों के देने वाले ( महः दिवः ) महान् ज्ञानप्रकाश वाले आकाश के समान विशाल हृदयाकाश के ( मध्ये ) बीच ( तस्थुः ) स्थित पांच प्राण हैं वे ( सध्रीचीनाः ) एक साथ मिल कर रहने वाले संगियों के समान होकर ( नि ववृतुः ) नित्य रहते हैं । यही बात ( देवत्रा ) विद्वान् पुरुषों के बीच में ( प्रवाच्यम् ) उत्तम रीति से उपदेश करने योग्य है । ( वित्तं मे० इत्यादि पूर्ववत् ) (२) राष्ट्रपक्ष में—( महः दिवः ) बड़ी भारी राजसभा के बीच ( पञ्च उक्षणः ) पांच नरश्रेष्ठ पाचों प्रकार की प्रजा के मुख्य प्रतिनिधि हों। वे एक साथ मिल कर रहें। विद्वानों के बीच कहने योग्य वचन को कहें । राज-प्रजावर्ग इस प्रबन्ध को भली प्रकार जानें । पञ्च उक्षणः—पृथिवी में अग्नि, अन्तरिक्ष में वायु, आकाश में सूर्य, दिशाओं में चन्द्रमा, ‘स्वः’ अर्थात् दूर आकाश में नक्षत्र (तैत्ति० ) पृथिवी में अग्नि, अन्तरिक्ष में वायु, दूर आकाश में सूर्य, नक्षत्रों में चन्द्र और जलों में विद्युत् ।

    टिप्पणी

    (शांखायन ब्रा०) अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, विद्युत् । (सा०) । अग्नि, वायु, मेघ, विद्युत्, सूर्य इनके प्रकाश, (दया०) अध्यात्म में – पञ्च प्राणादि, पञ्च वायुगण ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यमंडळ इत्यादी सर्व पदार्थात संयुक्त होऊन वृष्टीद्वारे अत्यंत सुख उत्पन्न करतात व संपूर्ण पृथ्वी इत्यादी पदार्थात आकर्षण शक्तीने विद्यमान आहेत तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनी महान अशा विशिष्ट गुणांनी युक्त माणसांना सिद्ध करून त्यांच्याबरोबर न्याय व प्रीतीने वागून सुखी करावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    There they are, five generous founts of energy, water and joy which abide in the great heavens, they being fire, wind, vapours of water, electricity and the sun. They are simultaneous, coexistent and worthy of being researched, analysed and explained by and to the noblest of generous scholars. May the heaven and earth know this mystery of nature and reveal it to me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they (King and his subjects) deal with one another is taught further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of Assembly and other prominent persons, you should utter words denoting knowledge and light of justice to all men who associate with truthful enlightened people and who are like the five great objects in the sky full of divine attributes, great as rainier of happiness and water namely fire, air, cloud, lightning and the light of the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पंच) यथा अग्निवायुमेघविद्युत् सूर्यमण्डलप्रकाशास्तथा । = Like fire; air, cloud, lightning and the light of the solar world. (उक्षण:) जलस्य सुखस्य वा सेवतारो महान्तः उक्षा इति महन्नाम (निघ० ३.३ ) = Great as rainier of water and showerer of happiness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and other objects, being combined with earther vessels, clothes etc. cause great happiness to all through rain etc. and are connected with the earth etc. with the power of gravitation, in the same manner, the President of the Assembly and other officers of the State, should make men great, endowed with good virtues, should treat with them lovingly and justly and should keep them always happy.

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