ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 8
ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सं मा॑ तपन्त्य॒भित॑: स॒पत्नी॑रिव॒ पर्श॑वः। मूषो॒ न शि॒श्ना व्य॑दन्ति मा॒ध्य॑: स्तो॒तारं॑ ते शतक्रतो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । मा॒ । त॒प॒न्ति॒ । अ॒भितः॑ स॒पत्नीः॑ऽइव । पर्श॑वः । मूषः॑ । न । शि॒श्ना । वि । अ॒द॒न्ति॒ । मा॒ । आ॒ऽध्यः॑ । स्तो॒तार॑म् । ते॒ । श॒त॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं मा तपन्त्यभित: सपत्नीरिव पर्शवः। मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठसम्। मा। तपन्ति। अभितः सपत्नीःऽइव। पर्शवः। मूषः। न। शिश्ना। वि। अदन्ति। मा। आऽध्यः। स्तोतारम्। ते। शतऽक्रतो इति शतऽक्रतो। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ न्यायाधीशस्य समीपेऽर्थिप्रत्यर्थिनौ किंचित् क्लेशादिकं निवेदयेतां तयोर्यथावन्न्यायं स कुर्य्यादित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे शतक्रतो न्यायाधीश ते तव प्रजास्थं स्तोतारं मा मां ये पर्शवः सपत्नीरिवाभितः संतपन्ति य आध्यो मूषः शिश्ना व्यदन्ति न मा मामभितः संतपन्ति तानन्यायकारिणो जनांस्त्वं यथावच्छाधि। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(सम्) (मा) मां प्रजास्थं वा पुरुषम् (तपन्ति) क्लेशयन्ति (अभितः) सर्वतः (सपत्नीरिव) यथाऽनेकाः पत्न्यः समानमेकपतिं दुःखयन्ति (पर्शवः) परानन्यान् शृणन्ति हिंसन्ति ते पर्शवः पार्श्वस्था मनुष्यादयः प्राणिनः। (मूषः) आखवः। अत्र जातिपक्षमाश्रित्यैकवचनम्। (न) इव (शिश्ना) अशुद्धानि सूत्राणि (वि) विविधार्थे (अदन्ति) विच्छिद्य भक्षयन्ति (मा) (आध्यः) परस्य मनसि शोकादिजनकाः (स्तोतारम्) धर्मस्य स्तावकम् (ते) तव (शतक्रतो) असंख्यातोत्तमप्रज्ञ बहूत्तमकर्मन्वा न्यायाध्यक्ष (वित्तं, मे, अस्य, रोदसी) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥।अत्राह निरुक्तकारः−मूषो मूषिका इत्यर्थो मूषिका पुनर्मुष्णातेर्मूषोऽप्येतस्मादेव। संतपन्ति मामभितः सपत्न्य इवेमाः पर्शवः कूपपर्शवो मूषिका इवास्नातानि सूत्राणि व्यदन्ति। स्वाङ्गाभिधानं वा स्याच्छिश्नानि व्यदन्तीति । संतपन्ति माध्यः कामा स्तोतारं ते शतक्रतो ! वित्तं मे अस्य रोदसी जानीतं मेऽस्य द्यावापृथिव्याविति। त्रितं कूपेऽवहितमेतत्सूक्तं प्रतिबभौ तत्र ब्रह्मेतिहासमिश्रमृङ्मिश्रं गाथामिश्रं भवति। त्रितस्तीर्णतमो मेधया बभूवापि वा। संख्यानामैवाभिप्रेतं स्यादेकतो द्वितस्त्रित इति त्रयो बभूवुः। निरु० ४। ५-६। ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे न्यायाध्यक्षादयो मनुष्या यूयं यथा सपत्न्यः स्वपतिमुद्वेजयन्ति, यथा वा स्वार्थसिद्ध्यसिद्धिका मूषिकाः परद्रव्याणि विनाशयन्ति, यथा च व्यभिचारिण्यो गणिकादयः स्त्रियः सौदामन्य इव प्रकाशवत्यः कामिनः शिश्नादिरोगद्वारा धर्मार्थकाममोक्षानुष्ठानप्रतिबन्धकत्वेन तं पीडयन्ति, तथा ये दस्य्वादयो मिथ्यानिश्चयकर्मवचनादस्मान् क्लेशयन्ति तान् संदण्ड्यैतानस्मांश्च सततं पालयत, नैवं विना सततं राज्यैश्वर्ययोगोऽधिको भवितुं शक्यः ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब न्यायाधीश के समीप वाद-विवाद करनेवाले वादी-प्रतिवादी जन अपने कुछ क्लेश का निवेदन करें और वह उनका न्याय यथावत् करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (शतक्रतो) असंख्य उत्तम विचारयुक्त वा अनेकों उत्तम-उत्तम कर्म करनेवाले न्यायाधीश ! (ते) आपकी प्रजा वा सेना में रहने और (स्तोतारम्) धर्म का गानेवाला मैं हूँ (मा) उसको जो (पर्शवः) औरों को मारने और तीर के रहनेवाले मनुष्य आदि प्राणी (सपत्नीरिव) (अभितः, सम्, तपन्ति) जैसे एक पति को बहुत स्त्रियाँ दुःखी करती हैं, ऐसे दुःख देते हैं। जो (आध्यः) दूसरे के मन में व्यथा उत्पन्न करनेहारे (मूषः) मूषे जैसे (शिश्ना) अशुद्ध सूतों को (वि, अदन्ति) विदार-विदार अर्थात् काट-काट खाते हैं (न) वैसे (मा) मुझको संताप देते हैं, उन अन्याय करनेवाले जनों को तुम यथावत् शिक्षा करो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानिये ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे न्याय करने के अध्यक्ष आदि मनुष्यो ! तुम जैसे सौतेली स्त्री अपने पति को कष्ट देती है वा जैसे अपने प्रयोजन मात्र वा बनाव-बिगाड़ देखनेवाले मूषे पराये पदार्थों का अच्छी प्रकार नाश करते हैं और जैसे व्यभिचारिणी वेश्या आदि कामिनीदामिनी स्त्री दमकती हुई कामीजन के लिङ्ग आदि रोगरूपी कुकर्म्म के द्वारा उसके धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के करने की रुकावट से उस कामीजन को पीड़ा देती हैं, वैसे ही जो डांकू, चोर, चवाई, अताई, लड़ाई, भिड़ाई, करनेवाले झूठ की प्रतीति और झूठे कामों की बातों में हम लोगों को क्लेश देते हैं उनको अच्छी (प्रकार) दण्ड देकर हम लोगों को तथा उनको भी निरन्तर पालो, ऐसे करने के विना राज्य का ऐश्वर्य्य नहीं बढ़ सकता ॥ ८ ॥
विषय
‘सपत्नीरिव पर्शवः’
पदार्थ
१. ‘काम - क्रोध - लोभ’ यहाँ ‘पर्शवः’ कहे गये हैं - “परान् श्रृणन्ति” - दूसरों की हिंसा करते हैं । ये (पर्शवः) = काम - क्रोध व लोभ (मा) = मुझे (अभितः) = इहलोक व परलोक दोनों के दृष्टिकोण से (सन्तपन्ति) = पीड़ित करते हैं । इनसे दोनों लोक बिगड़ते हैं । शरीर , मन व बुद्धि ये सब अस्वस्थ हो जाते हैं और इस प्रकार इस लोक का कल्याण नहीं रहता । इनके रहने पर प्रभु की प्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं उठता । ये काम - क्रोध आदि ‘पर्शु’ [Axes] मुझे ऐसे पीड़ित करते हैं (इव) = जैसे कि (सपत्नीः) = एक पति को सपत्नियाँ परेशान करती हैं । (मा) = मुझे (आध्यः) = काम , क्रोध , लोभरूप रोग इस प्रकार (व्यदन्ति) = खा जाते हैं (न) = जिस प्रकार (मूषः) = चूहा (शिश्ना) = ‘अस्नात सूत्रों’ - अन्न - रस से लिप्त सूत्रों को खा जाता है । हे (शतक्रतो) = अनन्तप्रज्ञ प्रभो ! (ते स्तोतारम्) = तेरा स्तवन करनेवाले मुझे भी - ‘तेरी स्तुति की ओर झुकनेवाले मुझे भी ये पीड़ित करें’ यह तो ठीक नहीं । मुझे इनकी पीड़ा से ऊपर उठाइए ।
३. (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (मे) = मेरे (अस्य) = इस संकल्प को (वित्तम्) = जानें कि अब मैं इन आधियों से ऊपर उठूँगा । इनके कारण में बहुत परेशान हो गया हूँ । इनसे बचने के लिए ही में प्रभु का स्तोता बना हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के स्तोता बनकर हम काम - क्रोधादि से ऊपर उठे ।
विषय
जीवात्मा को रुलाने वाली व्याधियों को दूर करने की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( शतक्रतो ) सैकड़ों कर्मों और ज्ञानों के स्वामिन् ! प्रभो ! परमेश्वर ! ( पर्शवः ) पास रहने वाली या आलिंगन करने हारी ( सपत्नीः ) बहुत सी स्त्रियां जिस प्रकार अपने दरिद्र या वृद्ध पति को बहुत कष्ट देती हैं उसी प्रकार (पर्शवः) ग्राह्य विषयों तक पहुंचने वाली इन्द्रियां ( अभितः ) सब तरफ (मा) मुझ जीव को ( सं तपन्ति ) संताप उत्पन्न करती हैं । ( मूषः शिश्ना न ) मूषक जिस प्रकार विना धुले माड़ी आदि से मढ़े सूतों को खा जाता है, या जैसे मूषा अपनी तैलादि से युक्त पुच्छआदि को स्वादु जान कर खाता है उसी प्रकार ( आध्यः ) मानस चिन्ता और शारीरिक रोग ( ते स्तोतारं ) तेरी स्तुति करने हारे ( मा व्यदन्ति ) मुझे खाये जाते हैं । ( वित्तं मे० ) इत्यादि पूर्ववत् । (२) मुझ प्रजाजन को सौतों के समान ( पर्शवः ) पास के जन या परशुओं को धारण करने वाले शस्त्र-धर शत्रुजन पीड़ित करते हैं। हे ( शतक्रतो ) राजन् ! तेरे स्तुति करने वाले को मानस चिन्ताऐ खाऐं जानी हैं । ( रोदसी ) दुष्टों को रुलाने वाले वीर राजा और न्यायाधीश दोनों मुझ प्रजाजन की इस स्थिति को जानो और उपाय करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे न्यायाधीशांनो! जशा अनेक स्त्रिया असतील तर त्या पतीला त्रास देणाऱ्या असतात किंवा जसे आपल्या प्रयोजनासाठी उंदीर दुसऱ्याच्या पदार्थांचा नाश करतात व जसे व्यभिचारिणी वेश्यांमुळे कामीजनांना रोग होऊन ते त्रस्त होतात. तसे दुष्ट, चोर, निंदक, आळशी, भांडखोर लोक खोट्या कामाने आम्हाला त्रास देतात. त्यांना चांगल्या प्रकारे दंड देऊन आमचे व त्यांचे सतत पालन करा. असे केल्याशिवाय राज्याचे ऐश्वर्य वाढू शकत नाही. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The knives and sickles of life all round cut into my vitals as rival mistresses consume the lover’s heart and soul. Just as mice eat up the warp and woof of cloth in the making, so do the cares of life eat away the original wealth of me who am, in reality, your admirer and worshipper, O Lord of a hundred yajnas of the universe. What is this mystery? Let heaven and earth reveal it to me.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
When respondent and defendant make a request or appeal to a Magistrate or Judge, regarding some grievance, he should deal with it justly is taught in the eighth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Judge of infinite knowledge and good actions, some neighbors who injure and trouble others, cause harm to me-your subject or soldier who am admirer of Dharma or righteousness. Like the rival wives of one husband, they annoy me as a rat gnaws a weaver's thread. The rest as before.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पर्शव:) परात् अन्यान् शृणन्ति हिंसन्ति ते पर्शवः पावस्था मनुष्यादयः प्राणिनः = Neighbours who cause trouble or harm to others. (शिश्ना) अशुद्धानि सूत्राणि = Unclean threads. (आध्यः) परस्य मनसि शोकादिजनकाः Those who cause grief in the mind or agony. (स्तोतारम् ) धर्मस्य स्तावकम् = Admirer of Dharma or righteousness. (शतक्रतो) असंख्यातोत्तमप्रज्ञ बहूलमकर्मन्वा न्यायाध्यक्ष = O Magistrate or judge of many noble deeds.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Upamalankara or simile used in the Mantra. O Magistrate or other dispensers of justice, you should punish those thieves and robbers who trouble us by their false resolves and actions, as co-wives disturb, the peace of mind of their husband, as rats destroy others articles or as prostitutes or women of loose character who are of un-steady mind like lightning cause harm to their licentious lovers by making them diseased and putting an obstacle in the performance of Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation). you should always protect and preserve us. Without the discharge of this duty on your part, prosperity of the State is impossible:
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