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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 13
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - महाबृहती स्वरः - मध्यमः

    अग्ने॒ तव॒ त्यदु॒क्थ्यं॑ दे॒वेष्व॒स्त्याप्य॑म्। स न॑: स॒त्तो म॑नु॒ष्वदा दे॒वान्य॑क्षि वि॒दुष्ट॑रो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । तव॑ । त्यत् । उ॒क्थ्य॑म् । दे॒वेषु॑ । अ॒स्ति॒ । आप्य॑म् । सः । नः॒ । स॒त्तः । म॒नु॒ष्वत् । आ । दे॒वान् । य॒क्षि॒ । वि॒दुःऽत॑रः । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने तव त्यदुक्थ्यं देवेष्वस्त्याप्यम्। स न: सत्तो मनुष्वदा देवान्यक्षि विदुष्टरो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। तव। त्यत्। उक्थ्यम्। देवेषु। अस्ति। आप्यम्। सः। नः। सत्तः। मनुष्वत्। आ। देवान्। यक्षि। विदुःऽतरः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वान् प्रजासु किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् यस्य तव त्यद्यदाप्यं मनुष्वदुक्थ्यं देवेष्वस्ति स सत्तो विदुष्टरस्त्वं नोऽस्मान् देवान् संपादयन्नायक्षि। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (अग्ने) सकलविद्याविज्ञातः (तव) (त्यत्) तत् (उक्थ्यम्) प्रकृष्टं विद्यावचः (देवेषु) विद्वत्सु (अस्ति) वर्त्तते (आप्यम्) आप्तुं योग्यम्। अत्राप्लृधातोर्बाहुलकादौणादिको यन् प्रत्ययः। (सः) (नः) अस्मान् (सत्तः) अविद्यादिदोषान् हिंसित्वा विज्ञानप्रदः। अत्र बाहुलकाद् सद्लृधातोरौणादिकः क्तः प्रत्ययः। (मनुष्वत्) मनुःषु मनुष्येष्विव (आ) (देवान्) विदुषः (यक्षि) सङ्गमयेत् (विदुष्टरः) अतिशयेन विद्वान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    यः सर्वा विद्या अध्याप्य विद्वत्संपादने कुशलोऽस्ति तस्मात् सकलविद्याधर्मोपदेशान् सर्वे मनुष्या गृह्णीयुः नेतरस्मात् ॥ १३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् प्रजाजनों में क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) समस्त विद्याओं को जाने हुए विद्वान् जन ! (तव) आपका (त्यत्) वह जो (आप्यम्) पाने योग्य (मनुष्वत्) मनुष्यों में जैसा हो वैसा (उक्थ्यम्) अतिउत्तम विद्यावचन (देवेषु) विद्वानों में (अस्ति) है। (सः) वह (सत्तः) अविद्या आदि दोषों को नाश करनेवाले (विदुष्टरः) अति विद्या पढ़े हुए आप (नः) हम लोगों को (देवान्) विद्वान् करते हुए उनकी (आयक्षि) सङ्गति को पहुँचाइये अर्थात् विद्वानों की पदवी को पहुँचाइये। और मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान है ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् समस्त विद्याओं को पढ़ाकर विद्वान् बनाने में कुशल है, उससे समस्त विद्या और धर्म के उपदेशों को सब मनुष्य ग्रहण करें, और से नहीं ॥ १३ ॥

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    विषय

    ज्ञान व दैवीसम्पत्ति

    पदार्थ

    १. (अग्ने) = हे अग्रणी परमात्मन्  ! तब - आपका (त्यत्) = वह प्रसिद्ध (उक्थ्यम्) = अत्यन्त प्रशंसनीय , स्तवन व कर्मों के प्रतिपादन में उत्तम वेदज्ञान (देवेषु) = देवों में ही (आप्यम्) = प्राप्त करने योग्य (अस्ति) = है । जो भी देववृत्ति का बनता है , वह इस ज्ञान को प्राप्त करता है , अथवा हे प्रभो ! देवों में आपकी स्तुत्य मित्रता है । देव प्रभु को अपना बन्धु जानते हैं । 

    २. (सः) = वे आप (सत्तः) = हृदयों में आसीन हुए - हुए (नः) = हमारे साथ (मनुष्वत्) = ज्ञान की भांति (देवान्) = दिव्य गुणों को (आयक्षि) = सर्वथा संगत कीजिए । (विदुः तरः) = आप हमारे हित को हमसे अधिक समझते हैं । हमें आपकी कृपा से ज्ञान और दिव्यगुण दोनों ही प्राप्त हों । (मे) = मेरे (अस्य) = इस निवेदन को (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (वित्तम्) = जानें , अर्थात् द्यावापृथिवी के अन्तर्गत सब देवों की अनुकूलता से मेरी यह प्रार्थना पूर्ण हो । मैं ज्ञानी बनूँ , उत्तम दिव्यगुणों से युक्त जीवनवाला बनूँ । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - मैं प्रभु के वेदज्ञान को प्राप्त करूँ , ज्ञानी व गुणी बनूँ । 
     

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    विषय

    वेद ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) सकल विद्याओं के जानने हारे विद्वन् ! ( तव ) तेरा ( त्यत् ) वह ज्ञान करने योग्य ( उक्थ्यम् ) उत्तम विद्यामय ज्ञान ( देवेषु ) ज्ञान की कामना करने हारे शिष्यों और विद्वानों में भी ( आप्यम् ) प्राप्त करने योग्य (अस्ति) है । अथवा—( आप्यम् ) तेरा शिष्यों के प्रति वह उत्तम बन्धु भाव है । ( सत्तः) तू उच्च आसन पर विराज कर और उनके अज्ञान आदि दोषों को नाश करने में समर्थ और ( विदुस्तरः ) अधिक विद्वान् होकर (मनुष्वत्) मननशील शिष्यों और विद्वानों से युक्त होकर ( नः ) हममें से ( देवान् ) धन देने में समर्थ तथा ज्ञान के जिज्ञासु शिष्य जनों को ( आ यक्षि ) सब प्रकार के ज्ञानों का लाभ करा । ( वित्तं मे० इत्यादि पूर्ववत् )

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्वान संपूर्ण विद्या शिकवून विद्वत्ता उत्पन्न करविण्यात कुशल असतो त्याच्याकडून संपूर्ण विद्या व धर्मोपदेश सर्व माणसांनी ग्रहण करावा. इतरांकडून नाही. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, scholar of heat and vitality, that laudable knowledge of yours is worthy of confirmation with reference to the presence of vitality in various forms of nature. Scholar of eminence, come as a participant in yajna, study those forms of nature, cooperate with other scholars, and may the heaven and earth know the mysteries of nature and reveal the same to you and me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a learned man do among the people is taught in the 13th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, you have that admirable knowledge among the truthful enlightened people which should be attained by all and which becomes all good persons. Destroy all our evils of ignorance etc. and being giver of true knowledge, make us truly learned, being yourself a great scholar.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) सकलविद्याविज्ञात: = Well-versed in all sciences. (सत्तः)अविद्यादिदोषान् हिंसित्वा विज्ञानप्रदः । अत्र बाहुलकात् सद्लृ धातोः औरणदिकः क्तः प्रत्ययः ॥ = Giver of true knowledge by destroying ignorance and other evils.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should acquire knowledge and should hear sermons from a great scholar who is able to make people truly learned by teaching them all sciences and not from others.

    Translator's Notes

    सत्त: is derived from षद्लृ-विशरणगत्यवसादनेषु here the meaning of अवसादन or destruction has been taken. अग्नि is derived from अगि-गतौ गतेस्त्रयोऽर्याः-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Here the first meaning of Jnana or knowledge has been taken.

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