Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 9
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒मी ये स॒प्त र॒श्मय॒स्तत्रा॑ मे॒ नाभि॒रात॑ता। त्रि॒तस्तद्वे॑दा॒प्त्यः स जा॑मि॒त्वाय॑ रेभति वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मी इति॑ । ये । स॒प्त । र॒श्मयः॑ । तत्र॑ । मे॒ । नाभिः॑ । आऽत॑ता । त्रि॒तः । तत् । वे॒द॒ । आ॒प्त्यः । सः । जा॒मि॒ऽत्वाय॑ । रे॒भ॒ति॒ । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभिरातता। त्रितस्तद्वेदाप्त्यः स जामित्वाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमी इति। ये। सप्त। रश्मयः। तत्र। मे। नाभिः। आऽतता। त्रितः। तत्। वेद। आप्त्यः। सः। जामिऽत्वाय। रेभति। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ न्यायाधीशादिभिः सह प्रजाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यत्रामी ये सप्त रश्मय इव सप्तधा नीतिप्रकाशाः सन्ति तत्र मे नाभिरातता यत्र नैरन्तर्येण स्थितिर्मम तद् य आप्त्यो विद्वान् त्रितो वेद स जामित्वाय राजभोगाय प्रजा रेभति। अन्यत्सर्वं पूर्ववत् ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (अमी) (ये) (सप्त) सप्ततत्वाङ्गमिश्रितस्य भावाः सप्तधा (रश्मयः) (तत्र) तस्मिन्। ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (मे) मम (नाभिः) शरीरमध्यस्था सर्वप्राणबन्धनाङ्गम् (आतता) समन्ताद्विस्तृता (त्रितः) त्रिभ्यो भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालेभ्यः (तत्) तान् (वेद) जानाति (आप्त्यः) य आप्तेषु भवः सः (सः) (जामित्वाय) कन्यावत् पालनाय प्रजाभावाय (रेभति) अर्चति। अन्यत् पूर्ववत् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यथा सूर्येण सह रश्मीनां शोभासङ्गौ स्तस्तथा राजपुरुषैः प्रजानां शोभासङ्गौ भवेताम्। यो मनुष्यः कर्मोपासनाज्ञानानि यथावत् विजानाति सः प्रजापालने पितृवद्भूत्वा सर्वाः प्रजा रञ्जयितुं शक्नोति नेतरः ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब न्यायाधीशों के साथ प्रजाजन कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जहाँ (अमी) (ये) ये (सप्त) सात (रश्मयः) किरणों के समान नीतिप्रकाश हैं (तत्र) वहाँ (मे) मेरी (नाभिः) सब नसों को बाँधनेवाली तोंद (आतता) फैली है, जिसमें निरन्तर मेरी स्थिति है (तत्) उसको जो (आप्त्यः) सज्जनों में उत्तम जन (त्रितः) तीनों अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल से (वेद) जाने अर्थात् रात-दिन विचारे (सः) वह पुरुष (जामित्वाय) राज्य भोजने के लिये कन्या के तुल्य (रेभति) प्रजाजनों की रक्षा तथा प्रशंसा और चाहना करता है। और अर्थ प्रथम मन्त्रार्थ के समान जानो ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य्य के साथ किरणों की शोभा और सङ्ग है, वैसे राजपुरुषों के साथ प्रजाजनों की शोभा और सङ्ग हो। तथा जो मनुष्य कर्म, उपासना और ज्ञान को यथावत् जानता है, वह प्रजा के पालने में पितृवत् होकर समस्त प्रजाजनों का मनोरञ्जन कर सकता है, और नहीं ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    त्रित आप्त्य

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार काम - क्रोध व लोभ से ऊपर उठने पर हमारे जीवन में ज्ञानरश्मियों का प्रादुर्भाव होता है । “कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्” दो कान , दो नासिका छिद्र , दो आँखें व मुखरूप सप्तर्षियों से निरन्तर ज्ञान का संग्रह किया जाता है । (अमी) = वे (ये) = जो (सप्त रश्मयः) = इन समर्षियों से ज्ञान की रश्मियों चलती हैं (तत्र) = वहाँ - उन ज्ञानरश्मियों के होने पर मे मेरा यह (नाभिः) = [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] यज्ञ (आतता) = विस्तृत हुआ है , अर्थात् मैं ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है और उस ज्ञान के अनुसार यज्ञों का विस्तार करता हूँ । 

    २. (सः) = वह ज्ञानपूर्वक यज्ञों को करनेवाला व्यक्ति (जामित्वाय) = प्रभु के साथ सम्बन्ध के लिए (रेभति) = स्तवन करता है । इस स्तवन के होने पर यह (त्रितः) = ज्ञान , कर्म व उपासना का विस्तार करनेवाला हुआ है [त्रीन् तनोति] और इन तीनों का विस्तार करने के कारण (तत् वेद) = इसने उस प्रभु को जाना है । प्रभु को प्राप्त करने के कारण यह (आप्त्यः) = प्राप्त करनेवाले व्यक्तियों में उत्तम बना है । ‘मैं भी ऐसा बन पाऊँ’ - (मे) = मेरे (अस्य) = इस संकल्प को (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (वित्तम्) = जानें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अपने जीवनों में “ज्ञान , कर्म व उपासना” तीनों का विस्तार करके ‘त्रित’ बनें । प्रभु को प्राप्त करनेवालों में उत्तम ‘आप्त्य’ हों । 
     

    विशेष / सूचना

    सूचना - इस मन्त्र में आये त्रित - आप्त्य शब्दों के कारण इस सूक्त का ऋषि ‘कुत्स आङ्गिरस’ के साथ ‘त्रित - आप्त्य’ भी है । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    युद्धार्थी, वीर पुरुष की केन्द्र में स्थापना। आप्तय त्रित का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( अमी ) ये ( सप्त ) सात या सर्पणशील, निरन्तर गति करने हारे ( रश्मयः ) दीपक या सूर्य की किरणों के समान फैलने वाले और अश्व की रासों के समान देह को वश करने वाले सप्त प्राण हैं (तत्र) उनके आश्रय ( मे नाभिः ) मेरी नाभि, देह का केन्द्र स्थान या सुप्रबन्ध ( आतना ) व्याप्त है । ( आप्यः ) आप्तजनों में श्रेष्ठ, अथवा प्राणों के तत्वों को जानने हारा योगी या आत्मा ही ( त्रितः ) सब अज्ञान बन्धनों को पार कर के (तत्) उस परम ज्ञान रहस्य को ( वेद ) जान लेता है । ( सः ) वही ( जामित्वाय ) परम बन्धुता को प्राप्त करने के लिये ( रेभति ) परमेश्वर की स्तुति करता है । हे ( रोदसी ) स्त्री पुरुषो ! वा, हे गुरु शिष्यो ! आप (मे) मुझ आत्मा के इस रहस्य को ( वित्तम् ) जानों ( २ ) राष्ट्रपक्ष में—ये जो ( सप्तरश्ययः ) सात राष्ट्र को वश करने वाले देह में सात धातु और सात प्राणों के समान राज्य के सात अंग हैं उन में ही ( मे ) मुझ राजा और प्रजाजन दोनों की ( नाभिः ) शासन सुप्रबन्ध स्थित है । ( आप्त्यः त्रितः ) आपः अर्थात् आप्त प्रजाजनों का हितकारी मित्र, शत्रु और उदासीन तीनों में से अधिक शक्तिमान् या तीनों के भीतर व्यापक ज्ञानवान् पुरुष उस तत्व को जाने । वह ( जामित्वाय ) परस्पर के बन्धु भाव की वृद्धि के लिये ( रेभति ) सब को उपदेश करे । राज प्रजा वर्ग दोनों मेरे इस तत्व वचन को जानें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी सूर्याच्या संगतीत किरणे शोभिवंत दिसतात. तसे राजपुरुषाच्या संगतीत प्रजाजन शोभून दिसावेत. जो माणूस कर्म, उपासना व ज्ञान यांना यथायोग्य जाणतो. तो प्रजेचे पालन पित्याप्रमाणे करून संपूर्ण प्रजाजनांचे रंजन करू शकतो, इतर नव्हे ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As far as the rainbow lights of the universe radiate, as far as the five elements, Ahankara, mind- matter complex and Mahan, first mutation of Prakrti expand, as far as the five pranas, mind and intellect energise life, that far exists the sphere of my life’s centre- hold. The self-realised soul who knows the time past, present and future upon the instant knows that and proclaims for the realisation of universal brotherhood of souls. May the heaven and earth know and reveal the secret of this universal brotherhood for me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the subjects deal with Magistrates or Judges is taught in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The seven Pranas are like seven reins on which is dependent the navel or Centre of my body. I continuously live in that position. An absolutely truthful person who knows the true nature of knowledge, action and communion, respects the general public, treats her as his own daughter and is thus able to administer the State properly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जामित्वाय) कन्यावत् पालनाय प्रजाभावाय = For the protection and nourishment of the subjects like a daughter. (रेभति) अर्चति = Worships, respects. रेभति-अर्चतिकर्मा (निघ० ३.१४) Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As there is the beauty and association of the rays with the sun, so there should be between the officers of the State and the subjects. Only a man who knows the real nature of the works, communion and knowledge, can please all his subjects by preserving and supporting them like a father and none else.

    Translator's Notes

    By seven Pranas are meant according to Rishi Dayananda's commentary on Yaj. 14. 28. Five main Pranas-Prana, Apana, Udana, Vyana, Samana, Mahattatva and Ahankara.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top