ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 19
ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒नाङ्गू॒षेण॑ व॒यमिन्द्र॑वन्तो॒ऽभि ष्या॑म वृ॒जने॒ सर्व॑वीराः। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ना । आ॒ङ्गू॒षेण॑ । व॒यम् । इन्द्र॑ऽवन्तः । अ॒भि । स्या॒म॒ । वृ॒जने॑ । सर्व॑ऽवीराः । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठएना। आङ्गूषेण। वयम्। इन्द्रऽवन्तः। अभि। स्याम। वृजने। सर्वऽवीराः। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.१०५.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तेन युक्ता वयं कीदृशा भवेमेत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
येनैनाङ्गूषेण विदुषा सर्ववीरा इन्द्रवन्तो वयं वृजनेऽभिष्याम नस्तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्ताम् ॥ १९ ॥
पदार्थः
(एना) एनेन (आङ्गूषेण) परमविदुषा (वयम्) (इन्द्रवन्तः) परमैश्वर्य्ययुक्त इन्द्रस्तद्वन्तः (अभि) आभिमुख्ये (स्याम) भवेम (वृजने) विद्याधर्मयुक्ते बले। वृजनमिति बलना०। निघं० २। ९। (सर्ववीराः) सर्वे च ते वीराश्च। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १९ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यस्याध्यापनेन विद्यासुशिक्षे वर्धेतां तस्य संगेन सर्वा विद्याः सर्वथा निश्चेतव्याः ॥ १९ ॥ अत्र विश्वेषां देवानां गुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥।इति पञ्चोत्तरशततमं सूक्तं पञ्चदशोऽनुवाकस्त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उससे युक्त हमलोग कैसे होवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिस (एना) इस (आङ्गूषेण) परम विद्वान् से (सर्ववीराः) समस्त वीरजन (इन्द्रवन्तः) जिनका परमैश्वर्य्ययुक्त सभापति है, वे (वयम्) हम लोग (वृजने) विद्याधर्मयुक्त बल में (अभि, स्याम) अभिमुख हों, अर्थात् सब प्रकार से उसमें प्रवृत्त हों (नः) हम लोगों के (तत्) उस विज्ञान को (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य प्रकाश वा विद्या का प्रकाश ये सब (मामहन्ताम्) बढ़ावें ॥ १९ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जिसके पढ़ाने से विद्या और अच्छी शिक्षा बढ़े, उसके सङ्ग से समस्त विद्याओं का सर्वथा निश्चय करें ॥ १९ ॥इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुण और काम के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह १०५ एकसौ पाँचवाँ सूक्त १५ पन्द्रहवाँ अनुवाक और २३ तेईसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
इन्द्रवन्तः = प्रभुवाले
पदार्थ
१. (एना) = इस (अङ्गूषेण) = आघोषणा के योग्य , ऊँचे - ऊँचे गाने के योग्य स्तोत्र से (वयम्) = हम (इन्द्रवन्तः) = उस प्रभुवाले होते हुए (सर्ववीराः) = सब प्रकार से वीर होते हुए (वृजने) = संग्राम में (अभिस्याम) = शत्रुओं का पराभव करनेवाले हों । प्रभु के स्तवन से हम प्रभु के समीप होते हैं । प्रभु के सान्निध्य से हमें प्रभु की शक्ति प्राप्त होती है । हम वीर बनकर अध्यात्म - संग्राम में काम क्रोध व लोभ आदि को जीतनेवाले बनते हैं । इन शत्रुओं को पराजित करना हमारी शक्ति से बाहर की बात है । प्रभु की शक्ति से सम्पन्न बनकर हम इन्हें पराजित कर पाते हैं ।
२. इस प्रकार स्तवन के द्वारा प्रभु की शक्ति से सम्पन्न बनकर हम इन्हें पराजित करने के (नः तत्) = हमारे उस संकल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = श्रेष्ठ , (अदितिः) = अदिति , (सिन्धुः) = बहनेवाले जल , (पृथिवी) = पृथिवी (उत) = और (द्यौः) = द्युलोक (मामहन्ताम्) = आदृत करें । मित्र अर्थात् स्नेह करनेवाले , वरुण अर्थात् निर्द्वेषतावाले , (अदितिः) = स्वास्थ्यवाले , (सिन्धुः) = रेतः कणों के रूप में रहनेवाले जलों का रक्षण करनेवाले , (पृथिवी) = दृढ़ शरीरवाले तथा (द्यौः) = दीप्त मस्तिष्कवाले बनकर हम ‘संग्राम में शत्रुओं के पराभव के संकल्प’ को पूर्ण कर सकें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुस्तवन हमें शक्ति देता है , जिससे हम कामादि का पराजय कर पाते हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से हुआ है कि कर्मशीलता में ही आनन्द है और ज्ञान ही पवित्रता का साधक है [१] । समाप्ति पर कहते हैं कि प्रभुस्तवन ही हमें शक्तिसम्पन्न बनाता है [१९] । ‘ऐसा होने पर ही हम पापों से पार होते हैं’ इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
आशीः प्रार्थना ।
भावार्थ
( एना ) इस ( आङ्गूषेण ) उपदेश देने हारे विद्वान् तथा दिये उपदेश से ( वयम् ) हम ( सर्व वीराः ) सब प्रकार के वीर पुरुषों और बलवान् प्राणों से युक्त होकर ( इन्द्रवन्तः ) ऐश्वर्यवान् स्वामी तथा !! आचार्य के अधीन रह कर, उसको प्रमुख रूप से अपनाते हुए हम (वृजने) विरोधी शत्रु और भीतरी काम क्रोध आदि दुर्व्यहारों और दुराचारों को दूर करनेवाले बल को प्राप्त करने में ( अभि स्याम ) सदा तैयार रहें। ( तन्नो मित्रो० इत्यादि) पूर्ववत् । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥ इति पञ्चदशोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याच्या शिकविण्याने विद्या व चांगले शिक्षण वाढते त्याच्या संगतीने विद्यांचा (शिकण्याचा) माणसांनी सर्वथा निश्चय करावा. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Inspired by this song of divinity sung by the sage of eternal vision, let us all, children of Indra, be all ways great and strong and move forward by leaps and bounds. And may Mitra, the sun, Varuna, the moon, Aditi, the sky, the river and the sea, the earth and heaven strengthen our resolve and advance us on way to freedom and bliss.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should we be associated with Indra is taught in the 19th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May we being all heroes with the association of a great scholar and having attained all prosperity or devoted to the Lord, overcome all our adversaries in the strength of knowledge and Dharma or righteousness. The rest as before.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आंगूषेण) परमविदुषा = With a great scholar. अगि-गतौ अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् (वृजने) विद्याधर्मयुक्तेबले = Strength endowed with wisdom and Dharma (righteousness)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should get certainty about their knowledge with the association of a great scholar who multiplies Wisdom and good education.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the विश्वेदेवाः as in that hymn. इति पंचोत्तरशततमं सूक्तं पंचदशोऽनुवाकस्त्रयोविशोवर्गश्च समाप्तः । Here ends the 105th Sookta, 15th Anuvaka and 23rd Verga of the first Mandala of the Rigveda... Strength endowed with wisdom and Dharma (righteousness).
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