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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 14
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    स॒त्तो होता॑ मनु॒ष्वदा दे॒वाँ अच्छा॑ वि॒दुष्ट॑रः। अ॒ग्निर्ह॒व्या सु॑षूदति दे॒वो दे॒वेषु॒ मेधि॑रो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्तः । होता॑ । म॒नु॒ष्वत् । आ । दे॒वान् । अच्छ॑ । वि॒दुःऽत॑रः । अ॒ग्निः । ह॒व्या । सु॒सू॒द॒ति॒ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । मेधि॑रः । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्तो होता मनुष्वदा देवाँ अच्छा विदुष्टरः। अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्तः। होता। मनुष्वत्। आ। देवान्। अच्छ। विदुःऽतरः। अग्निः। हव्या। सुसूदति। देवः। देवेषु। मेधिरः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स तत्र किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यः सत्तो देवान् होता विदुष्टरोऽग्निर्मेधिरो देवेषु देवो मनुष्वद्धव्याच्छ सुषूदति तस्मात्सर्वैर्विद्याशिक्षे ग्राह्ये। अन्यत्पूर्ववत् ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (सत्तः) विज्ञानवान् दुःखहन्ता (होता) ग्रहीता (मनुष्वत्) यथोत्तमा मनुष्या श्रेष्ठानि कर्माण्यनुष्ठाय पापानि त्यक्त्वा सुखिनो भवन्ति तथा (आ) (देवान्) विदुषो दिव्यक्रियायोगान् वा (अच्छ) सम्यग्रीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (विदुष्टरः) अतिशयेन वेत्ता (अग्निः) सद्विद्याया वेत्ता विज्ञापयिता वा (हव्या) दातुं ग्रहीतुं योग्यानि (सुषूदति) ददाति (देवः) प्रशस्तो विद्वान्मनुष्यः (देवेषु) विद्वत्सु (मेधिरः) मेधावी। अत्र मेधारथाभ्यामिरन्निरचौ। अ० ५। २। १०९। इति वार्त्तिकेन मत्वर्थीय इरन् प्रत्ययः। (वित्तं, मे०) इति पूर्ववत् ॥ १४ ॥  

    भावार्थः

    ईदृशो भाग्यहीनः को मनुष्यः स्याद्यो विदुषां सकाशाद् विद्याशिक्षे अगृहीत्वैषां विरोधी भवेत् ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह विद्वान् वहाँ क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (सत्तः) विज्ञानवान् दुःख हरनेवाला (देवान्) विद्वान् वा दिव्य-दिव्य क्रियायोगों का (होता) ग्रहरण करनेवाला (विदुष्टरः) अत्यन्त ज्ञानी (अग्निः) श्रेष्ठ विद्या का जानने वा समझानेवाला (मेधिरः) बुद्धिमान् (देवेषु) विद्वानों में (देवः) प्रशंसनीय विद्वान् मनुष्य (मनुष्वत्) जैसे उत्तम मनुष्य श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान कर पापों को छोड़ सुखी होते हैं, वैसे (हव्या) देने-लेने योग्य पदार्थों को (अच्छ, आ, सुषूदति) अच्छी रीति से अत्यन्त देता है, उस उत्तम विद्वान् से विद्या और शिक्षा को ग्रहण करना चाहिये ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    ऐसा भाग्यहीन कौन जन होवे, जो विद्वानों से विद्या और शिक्षा न लेके इनका विरोधी हो ॥ १४ ॥

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    विषय

    यज्ञशील मेधावी

    पदार्थ

    १. (सत्तः) = हमारे हृदयों में आसीन हुए - हुए हे प्रभो ! आप (होता) = हमें सब - कुछ देनेवाले हैं , (मनुः वत्) = ज्ञान प्राप्त कराने के समान आप हमें (देवान् अच्छ) = दिव्यगुणों की ओर ले - चलते हैं । आप जहाँ हमें ज्ञान प्राप्त कराते हैं , वहाँ हमें दैवीसम्पत्ति से भी सम्पन्न करते हैं । (विदुः तरः) = आप निरतिशय ज्ञानवाले हैं । हमारे हितों को पूर्णतया जानते हैं । 

    २. (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु ही (हव्या) = हव्य पदार्थों को (सुषूदति) = प्रेरित करते हैं , अर्थात् प्रभु की प्रेरणा से ही यज्ञशील पुरुषों के यज्ञ चलते हैं । प्रभु ही यज्ञों के रक्षक व स्वामी हैं । (देवः) = वह प्रकाशमय प्रभु (देवेषु) = देववृत्ति के पुरुषों में (मेधिरः) = मेधा को स्थापित करनेवाले हैं । प्रभु ही सम्पूर्ण ज्ञानों को देनेवाले हैं । 

    ३. (मे) = मेरी (अस्य) = इस बात को (रोदसी) = द्यावापृथिवी (वित्तम्) = जान लें । सभी लोग इस बात को समझकर प्रभु के आराधन से यज्ञशील हों , उन यज्ञों को प्रभु से होता हुआ समझें और देव बनकर ज्ञान प्राप्त करने के अधिकारी बनें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही ज्ञान देते हैं और दिव्यगुण प्राप्त कराते हैं , हमें यज्ञशील व मेधावी बनाते हैं । 
     

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    विषय

    आचार्य का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सत्तः ) उच्च आसन पर विराजमान, शिष्यों और सत्संगियों के अज्ञानादि दोषों और दुःखों का नाश करने हारा ( मनुष्वत् ) मननशील पुरुषों का स्वामी ( होता ) सब ऐश्वर्यों और ज्ञानों का दाता ( विदुस्तरः ) अधिक या अपेक्षा से अन्यों से अधिक विद्वान् होकर ( अग्निः ) ज्ञानवान्, अग्रणी नायक और आचार्य, ( देवान् ) विद्वानों, धन और ज्ञान के अभिलाषी पुरुषों को ( हव्या ) ग्रहण करने योग्य अन्न, धनादि और ज्ञानों को ( सूषदति ) प्रदान करे । वह ( देवः ) स्वयं विद्वान् सूर्य के समान ( देवेषु ) अन्य विद्या के अभिलाषी जनों के बीच ( मेधिरः ) मेधावी, बुद्धिमान् वाग्मी होकर रहे । ( वित्तं मे० इत्यादि पूर्ववत् )(२) नायक राजा ( देवान् ) विजयेच्छु वीरों को धनैश्वर्य दे । और उनके बीच में ( मेधिरः ) शत्रुनाशक तेजस्वी सूर्य के समान होकर रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    असा दुर्दैवी माणूस कोण असेल जो विद्वानांच्या साह्याने विद्या व शिक्षण न घेता त्यांचा विरोध करील? ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Scholar of eminence, researcher in the yajna of science, come as a participant in yajna. Specialist of natural sciences, adorable you are among scholars. Agni is the vital power that creates, matures and gives the materials for the yajna of humanity. May the heaven and earth know the mysteries of vital fire and reveal the same to you and me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a learned man do is taught further in the 14th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! All should receive wisdom and education from a person who is highly educated and destroyer of all miseries, who accepts all divine virtues and actions, who is best among scholars, well-versed in various sciences and their teacher, wisest among enlightened truthful persons, acting like an ideal man gives well all desirable objects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सत्त:) विज्ञानवान् दुःखहन्ता | = Learned destroyer of miseries. (मनुष्यवत्) यथोत्तमा = Like good men who enjoy happiness by doing good deeds and giving up all sins. (सुषूदति) ददाति = Gives. (अग्निः) सद् विद्याया वेत्ता विज्ञापयिता = Possessor and teacher of good knowledge.मनुष्याः श्रेष्ठानि कर्माण्यनुष्ठाय पापानि त्यक्त्वा सुखिनो भवन्ति तथा ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Who will be such an unfortunate person who instead of receiving wisdom and education from learned men will oppose them ?

    Translator's Notes

    The adjectives like विदुष्टर:, देवेषु देव:, मनुष्वत् and मेघिर: used in this and previous Mantra make it quite clear that here the word Agni stands not for fire but for a highly learned and wise person. It is remarkable that Wilson and Griffith have interpreted these adjectives of Agni in these two Mantras as under. Prof. Wilson has translated विदुष्टर (Vidushtarah) in 13th Mantra as "most wise." In the 14th Mantra also he interprets it “as that wise and liberal Agni, a sage among the Gods, and yet he thinks erroneously that the word Agni means material fire. The same is the case with Griffith who in the 43th mantra interprets as wisest Agni मेधिर:(Medhirah) as intelligent and yet thinks like Prof. Wilson that Agni means nothing but material fire. Unfortunately such are the pre-conceived and prejudiced wrong notions of many of these Western Translators of the Vedas. They take Manu as the name of a particular king instead of taking it in the sense of thoughtful learned person from मन-अवगमे OF बोधे forgetting or ignoring the authority of the Brahmanic passages like ये विद्वांसस्ते मनवः (शतपथ ८. ६.३. १८) अग्निर्होता मनुवृतः - अयम् अग्निर्हि सर्वतोमनुष्यैवृतः, (ऐतरेय ब्रा० २.३४)

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