ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 4
ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
य॒ज्ञं पृ॑च्छाम्यव॒मं स तद्दू॒तो वि वो॑चति। क्व॑ ऋ॒तं पू॒र्व्यं ग॒तं कस्तद्बि॑भर्ति॒ नूत॑नो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञम् । पृ॒च्छा॒मि॒ । अ॒व॒मम् । सः । तत् । दू॒तः । वि । वो॒च॒ति॒ । क्व॑ । ऋ॒तम् । पू॒र्व्यम् । ग॒तम् । कः । तत् । बि॒भ॒र्ति॒ । नूत॑नः । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञं पृच्छाम्यवमं स तद्दूतो वि वोचति। क्व ऋतं पूर्व्यं गतं कस्तद्बिभर्ति नूतनो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञम्। पृच्छामि। अवमम्। सः। तत्। दूतः। वि। वोचति। क्व। ऋतम्। पूर्व्यम्। गतम्। कः। तत्। बिभर्ति। नूतनः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तैः प्रष्टृभिः समाधातृभिश्च परस्परं कथं वर्त्तित्वा विद्यावृद्धिकार्येत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे विद्वन्नहं त्वां प्रति यमवमं यज्ञं पूर्व्यमृतं क्व गतं को नूतनस्तद्बिभर्त्तीति पृच्छामि स दूतो भवांस्तत्सर्वं विवोचति विविच्योपदिशतु। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(यज्ञम्) सर्वविद्यामयम् (पृच्छामि) (अवमम्) रक्षादिसाधकमुत्तममर्वाचीनं वा (सः) भवान् (तत्) (दूतः) इतस्ततो वार्ताः पदार्थान् वा विजानन् (वि) विविच्य (वोचति) उच्याद्वदेत। अत्र लेटि वचधातोर्व्यत्ययेनौकारादेशः। (क्व) कुत्र (ऋतम्) सत्यमुदकं वा (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (गतम्) प्राप्तम् (कः) (तत्) (बिभर्ति) दधाति (नूतनः) नवीनः। वित्तं मे० इति पूर्ववत् ॥ ४ ॥
भावार्थः
विद्यां चिकीर्षुभिर्ब्रह्मचारिभिर्विदुषां समीपं गत्वाऽनेकविधान् प्रश्नान् कृत्वोत्तराणि प्राप्य विद्या वर्धनीया। भो अध्यापका विद्वांसो यूयं स्वगतमागच्छत मत्तोऽस्य संसारस्य पदार्थसमूहस्य विद्या अभिज्ञाय सर्वानन्यानेवमेवाध्याप्य सत्यमसत्यं च यथार्थतया विज्ञापयत ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर पूँछने और समाधान देनेवालों को परस्पर कैसे वर्त्ताव रखकर विद्या की वृद्धि करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वन् ! मैं आपके प्रति जिस (अवमम्) रक्षा आदि करनेवाले उत्तम वा निकृष्ट (यज्ञम्) समस्त विद्या से परिपूर्ण (पूर्व्यम्) पूर्वजों ने सिद्ध किया (ऋतम्) सत्यमार्ग वा उत्तम जल स्थान (क्व) कहाँ (गतम्) गया (कः) और कौन (नूतनः) नवीन जन (तत्) उसको (बिभर्त्ति) धारण करता है इसको (पृच्छामि) पूछता हूँ (सः) सो (दूतः) इधर-उधर से बात-चीत वा पदार्थों को जानते हुए आप (तत्) उस सब विषय को (विवोचति) विवेककर कहो। और अर्थ सब प्रथम के तुल्य जानना ॥ ४ ॥
भावार्थ
विद्या को चाहते हुए ब्रह्मचारियों को चाहिये कि विद्वानों के समीप जाकर अनेक प्रकार के प्रश्नों को करके और उनसे उत्तर पाकर विद्या को बढ़ावें और हे पढ़ानेवाले विद्वानो ! तुम लोग अच्छा गमन जैसे हो वैसे आओ और हमसे इस संसार के पदार्थों की विद्या को सब प्रकार से जान औरों को पढ़ाकर सत्य और असत्य को यथार्थभाव से समझाओ ॥ ४ ॥
विषय
यज्ञ व ऋत
पदार्थ
१. मैं (अवमम्) = रक्षण के मूल कारणभूत (यज्ञम्) = यज्ञविषय में (पृच्छामि) = पूछता हूँ और (सः) = वह (तत् दूतः) = उन यज्ञादि का सन्देश देनेवाला प्रभु (विवोचति) = उस यज्ञ का विशेषरूप से प्रतिपादन करता है । वस्तुतः वे प्रभु हमें इन यज्ञों के साथ ही जन्म देते हैं और स्पष्ट उपदेश करते हैं कि यह यज्ञ ही तुम्हारी समृद्धि का कारण होगा । इसी से तुम फूलो - फलोगे । यज्ञ से पर्जन्य होता है , पर्जन्य से अन्न होकर हमारा जीवन चलता है । एवं , यज्ञ हमारे रक्षण का कारण बनता है । यज्ञ ‘अवम’ है ।
२. यज्ञशील ब्रह्मज्ञानी पुरुष ऋतु के द्वारा अपनी जीवन - यात्रा चलाते हैं [ऋत - livelihood by gleaning grains in a field] । प्रभु पूछते हैं कि (पूर्व्यम्) = तुम्हारा पालन व पूरण करनेवाला अथवा सर्वश्रेष्ठ जीविका का साधन (ऋतम्) = खेतों में पड़े रह गये कणों का संग्रहण (क्व गतम्) = कहाँ गया? एकदम निर्दोष व त्यागमय जीविका का साधन तुमसे छूट हो गया । जो भी (तत्) = उस साधन को (बिभर्ति) = धारण करता है , अर्थात् खेत से अन्नसंग्रह कर लेने के बाद बचे रह गये कणों के संग्रह से जीविका करता है , वह (नूतनः) =[नूयते , नु स्तुती] स्तुत्य जीवनवाला और (कः) = आनन्दमय जीवनवाला होता है । वस्तुतः इस संसार में आवश्यकताओं को बढ़ाकर चमक - दमकवाला पेचीदा जीवन शान्तिवाला नहीं होता । सदा सरल जीवन ही शान्ति से युक्त होता है ।
३. प्रभु कहते हैं कि (मे) = मेरी (अस्य) = इस बात को (रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक , अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड (वित्तम्) = अच्छी प्रकार जान ले । ‘यज्ञ व ऋत’ से कल्याण होता है , इसे सब समझ लें ।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञमय ऋतमय जीवन ही स्तुत्य व शान्त होता है ।
विषय
ईश्वर विषयक प्रश्न और प्रतिवचन तथा वेद ज्ञान के पुराने और नये धारण करने वालों का प्रतिपादन ।
भावार्थ
शिष्य कहता है हे विद्वान् गुरो ! मैं ( अवमम् ) उत्तम रक्षा करने के साधनों से सम्पन्न ( यज्ञम् ) सब सुखों, ऐश्वर्यों के दाता, सर्व पूजनीय, परम उपास्य प्रजापति परमेश्वर को लक्ष्य करके ( पृच्छामि ) प्रश्न करता हूं । ( सः ) वह तू ( इतः ) तपस्वी, ज्ञानवान् परिचर्या करने योग्य आचार्य रूप होकर राजा का संदेशहर दूत जिस प्रकार खोज २ कर, गहरी २ बातें बतलाता है उसी प्रकार तू ( विवोचति ) विविध ज्ञानों को या विशेष ज्ञानों का विविध प्रकार से उपदेश करता है । (पूर्व्यं) पूर्व ऋषियों से प्राप्त, ( ऋतं ) वेद का सत्य ज्ञान ( क्व गतम् ) कहां है और ( नूतनः ) नया, वर्तमान का (कः) कौन नया विद्वान् ( तत् ) उस ज्ञान को ( बिभर्ति ) धारण करता है । ( रोदसी ) उपदेश करने और लेने हारे गुरु शिष्य ( मे अस्य ) मेरे उपदेश किये इस प्रकार के प्रश्नों का ( वित्तम् ) ज्ञान सम्पादन करें । ( ऋतं ) मूल सत्य कारण अब कहां गया और उस को कौनसा नूतन कारण धारण करता है इस बात को (रोदसी) आकाश और पृथिवी ही जानते हैं ( २ ) इसी प्रकार ( यज्ञं ) रक्षा-साधनों से युक्त, प्रजापति राजा के विषय में प्रश्न करूं या जानना चाहूं तो उसका विशेष ज्ञान गुप्त दूत ही बतला सकता है। पूर्व के राजाओं और अधिकारियों से प्राप्त ( ऋतं ) धन कहां है ? और अब उस को कौन धारण करता है ? यह राज प्रजावर्ग सब अच्छी प्रकार जानें । ( ३ ) ( अवमं ) सब से छोटा यज्ञ कौन है। यह विद्वान् ही बतलावे। पूर्व का ( ऋतम् ) जीवन का मूल कारण वीर्य आदि कहां जाता है । और नया पुत्र आदि कौन उस को धारण करता है। माता पिता इस रहस्य को जानें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्या जाणू इच्छिणाऱ्या (जिज्ञासू) ब्रह्मचाऱ्यांनी विद्वानाजवळ जाऊन अनेक प्रकारचे प्रश्न विचारून त्यांच्याकडून उत्तर प्राप्त करून विद्या वाढवावी व हे अध्यापक विद्वानांनो ! तुम्ही सहजतेने गमन करा व या जगातील पदार्थांची विद्या सर्व प्रकारे जाणून इतरांना शिकवून सत्य व असत्य यथार्थभावाने समजावून सांगा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord of knowledge, you are the harbinger of truth and the message of Divinity. I ask you of that supreme yajna of life’s protection and promotion which sustains existence. Where is that eternal water and law of life hidden or gone? Who at the present time observes that same ancient and eternal yajna and law of life, and how? May the heaven and earth know and reveal the truth for us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the enquirers and the scholars who answer their questions behave and make progress is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O learned person. I (a pupil) ask Thee about the Protector and Adorable and Omniscient God. Where is the Vedic Wisdom which is Eternal and acquired by ancient seers and sages? Who among the modern people bears that knowledge. Tell me about all this as thou art a true messenger of Truth. Therefore please instruct me about this. The rest as before.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(यज्ञम्) सर्वविद्यामयम् = Omniscient. (अवमम्) रक्षादिसाधकस्य उत्तममर्वाचीनं वा = The good means of protection. (दूतः) इतस्ततो वार्ताः पदार्थानान् वा जानन् = Like a messenger who knows about various things.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The students who desire to acquire knowledge should approach great scholars and multiply their knowledge by putting them questions and receiving their answers. O learned teachers, you are welcome : Come here and having acquired the knowledge of the attributes or properties of various articles of the Universe, teach them to others also what is true and what is untrue.
Translator's Notes
विष्णुर्वे यज्ञ: (एतरेय १.१५) यज्ञो वै विष्णु: (शतपथ १. १.३.१, १३. १. ८. ८) यज्ञो वै विष्णु: (कौषीतकी ब्रा० ४.१ ॥१८, ८, १४) (ताण्ड्य ९, ६. १० गोपथ ३.४ ६) So it is clear that the word Yajna stands for Omnipresent and Omniscient God.
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