ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 10
तन्न॑स्तु॒रीप॒मद्भु॑तं पु॒रु वारं॑ पु॒रु त्मना॑। त्वष्टा॒ पोषा॑य॒ वि ष्य॑तु रा॒ये नाभा॑ नो अस्म॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । नः॒ । तु॒रीप॑म् । अद्भु॑तम् । पु॒रु । वा॒ । अर॑म् । त्मना॑ । त्वष्टा॑ । पोषा॑य । वि । स्य॒तु॒ । रा॒ये । नाभा॑ । नः॒ । अ॒स्म॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्नस्तुरीपमद्भुतं पुरु वारं पुरु त्मना। त्वष्टा पोषाय वि ष्यतु राये नाभा नो अस्मयुः ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। नः। तुरीपम्। अद्भुतम्। पुरु। वा। अरम्। त्मना। त्वष्टा। पोषाय। वि। स्यतु। राये। नाभा। नः। अस्मऽयुः ॥ १.१४२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् अस्मयुस्त्वष्टां भवान् नः पुरु पोषाय राये नाभा प्राणइव विष्यतु त्मना तुरीपमद्भुतं पुरु वारं धनमस्ति तन्न आवह ॥ १० ॥
पदार्थः
(तत्) (नः) अस्मभ्यम् (तुरीपम्) तूर्णं रक्षकम् (अद्भुतम्) आश्चर्यस्वरूपम् (पुरु) बहु (वा) (अरम्) अलम् (पुरु) बहु (त्मना) आत्मना (त्वष्टा) विद्याधर्मेण राजमानः (पोषाय) पुष्टिकराय (वि) (स्यतु) प्राप्नोतु (राये) धनाय (नाभा) नाभौ (नः) अस्माकम् (अस्मयुः) अस्मान्कामयमानः ॥ १० ॥
भावार्थः
यो विद्वानस्मान्कामयेत तं वयमपि कामयेमहि योस्मान्न कामयेत तं वयमपि न कामयेमहि तस्मात् परस्परस्य विद्यासुखे कामयमानावाचार्य्यविद्यार्थिनौ विद्योन्नतिं कुर्याताम् ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (अस्मयुः) हम लोगों की कामना करनेवाले (त्वष्टा) विद्या और धर्म से प्रकाशमान आप (नः) हम लोगों के (पुरु) बहुत (पोषाय) पोषण करने के लिये और (राये) धन होने के लिये (नाभा) नाभि में प्राण के समान (वि, ष्यतु) प्राप्त होवें और (त्मना) आत्मा से जो (तुरीपम्) तुरन्त रक्षा करनेवाला (अद्भुतम्) अद्भुत आश्चर्य्यरूप (पुरु, वा, अरम्) बहुत वा पूरा धन है (तत्) उसको (नः) हम लोगों के लिये प्राप्त कीजिये (=कराइये) ॥ १० ॥
भावार्थ
जो विद्वान् हम लोगों की कामना करे उसकी हम लोग भी कामना करें। जो हम लोगों की कामना न करे उसकी हम भी कामना न करें, इससे परस्पर विद्या और सुख की कामना करते हुए आचार्य्य और विद्यार्थी लोग विद्या की उन्नति करें ॥ १० ॥
विषय
त्वष्टा से याचना
पदार्थ
१. (अस्मयुः) = सदा हमारा हित चाहनेवाला (त्वष्टा) = संसार का निर्माता प्रभु (नः नाभा) = हमारे यज्ञों में [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] (नः) = हमारे (पोषाय) = पोषण के लिए तथा (राये) = ऐश्वर्य के लिए (त्मना) = स्वयं (तत् विषयतु) = [वियुज्जतु] विशेषरूप से उस धन को प्राप्त कराये जोकि [क] (तुरीपम्) = [त्वरया पाति] शीघ्रता से हमारा रक्षण करनेवाला है, [ख] (अद्भुतम्) = महान् है अथवा अभूतपूर्व है, किसी भी प्रकार हमारे पतन का कारण न होने से अद्भुत है, [ग] (पुरुवारम्) = [पुरु वा अरम्] पालन करनेवाला और पर्याप्त है अथवा [पुरु वारम्] बहुतों से वरणीय है, चाहने योग्य है, तथा [घ] (पुरु) = पालन व पूरण करनेवाला है। २. हम यज्ञशील बनें। इन यज्ञों के होने पर प्रभु हमें उत्तम धनों को प्राप्त कराएँ यह धन हमारा रक्षण करनेवाला हो, पतन का कारण न होने से अद्भुत हो, बहुतों से वरणीय हो तथा पालन व पूरण करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- त्वष्टा प्रभु हमें यज्ञशीलता के साथ धन प्राप्त कराएँ।
विषय
त्वष्टा, शिल्पी
भावार्थ
( अस्मयुः ) हमारा प्रिय ( त्वष्टा ) शिल्पी और तेजस्वी राजा ( नः पोषाय ) हमें पुष्ट करने और पोषण करने के लिये और ( नः राये ) हमारे ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये ( नः नाभा वि स्यतु ) हमारे केन्द्र में आकर विराजे । वह ( नः ) हमें ( तुरीपम् ) अति शीघ्र रक्षा करने वाले ( अद्भुतं ) आश्चर्यकारी, नये से नये ( पुरु ) बहुत अधिक (अरं) बहुत पर्याप्त साधन और ( त्मना ) स्वयं अपने आत्म सामर्थ्य से (पुरु) प्रभूत ऐश्वर्य ( विस्यतु ) प्राप्त करे और करावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो विद्वान आमची कामना करतो त्याची आम्ही कामना करावी. जो आमची कामना करीत नाही त्याची आम्हीही कामना करू नये. त्यासाठी परस्पर विद्या व सुखाची कामना करीत आचार्य व विद्यार्थी यांनी विद्येची वाढ करावी. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That wealth of life, knowledge, power and honour, ever flowing, all protective and self-preserving, which is the universal choice and conscientious love of all, may Tvashta, creator of life forms and human institutions, the very centre-hold of our life and society, lord our own, create for our sustenance, prosperity and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
One should reciprocate the good gestures of others.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Studded with wisdom and righteousness and desirous of our welfare, O learned person! come and give us immense mundane wealth and be with us like the PRANA in the naval. Also bring to us that wealth (of wisdom and knowledge) which protects us and, is wonderful and sufficing.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
We should always desire the association of such a learned person who is favorably disposed towards our welfare. Thus the preceptor and the pupil should multiply their knowledge for mutual wisdom and happiness.
Foot Notes
(त्वष्टा ) राजधर्मेण राजमान: = Shining with wisdom and righteousness. ( तुरीयम् ) तूर्णं रक्षकम् = That which protect soon.
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