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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒व॒सृ॒जन्नुप॒ त्मना॑ दे॒वान्य॑क्षि वनस्पते। अ॒ग्निर्ह॒व्या सु॑षूदति दे॒वो दे॒वेषु॒ मेधि॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व॒ऽसृ॒जन् । उप॑ । त्मना॑ । दे॒वान् । य॒क्षि॒ । व॒न॒स्प॒ते॒ । अ॒ग्निः । ह॒व्या । सु॒सू॒द॒ति॒ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । मेधि॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवसृजन्नुप त्मना देवान्यक्षि वनस्पते। अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवऽसृजन्। उप। त्मना। देवान्। यक्षि। वनस्पते। अग्निः। हव्या। सुसूदति। देवः। देवेषु। मेधिरः ॥ १.१४२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये वनस्पते त्वं यतस्त्मना आत्मना देवानुपावसृजन्सन् देवेषु देवो मेधिरोऽग्निर्हव्या सुषूदतीव विद्यां यक्षि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (अवसृजन्) विविधया विद्ययाऽलंकुर्वन् (उप) (त्मना) आत्मना (देवान्) विद्यां कामयमानान् (यक्षि) संगच्छसे (वनस्पते) रश्मिपतिः सूर्य्यइव वर्त्तमान (अग्निः) पावकः (हव्या) दातुमर्हाणि (सुसूदति) सुष्ठु क्षरति वर्षति (देवः) देदीप्यमानः (देवेषु) द्योतमानेषु लोकेषु (मेधिरः) संगमयिता ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः पृथिव्यादिषु देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु दिव्यस्वरूपस्सन् जलं वर्षयति तथा विद्वांसो जगति विद्यार्थिषु विद्यां वर्षयेयुः ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वनस्पते) रश्मियों के पति सूर्य्य के समान वर्त्तमान ! आप जिस कारण (त्मना) आत्मा से (देवान्) विद्या की कामना करते हुओं को (उपावसृजन्) अपने समीप नाना प्रकार की विद्या से परिपूरित करते हुए (देवेषु) प्रकाशमान लोकों में (देवः) अत्यन्त दीपते हुए (मेधिरः) सङ्ग करानेवाले (अग्निः) जैसे अग्नि (हव्या) होम से देने योग्य पदार्थों को (सुषूदति) सुन्दरता से ग्रहण कर परमाणुरूप करता है वैसे विद्या का (यक्षि) सङ्ग करते हो। इससे सत्कार करने योग्य हो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्यमण्डल पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों में दिव्यरूप हुआ जल को वर्षाता है, वैसे विद्वान् जन संसार में विद्यार्थियों में विद्या की वर्षा करावें ॥ ११ ॥

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    विषय

    देवत्व व मेधा की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (वनस्पते) = [वनस्- loveliness, glory] सौन्दर्य व यश के स्वामिन् प्रभो! आप (त्मना) = स्वयं (अवसृजन्) = सब अवगुणों को हमसे दूर करते हुए (देवान् उपयक्षि) = दिव्यगुणों को हमारे साथ संगत कीजिए। आप ही बुराइयों को दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों को प्राप्त करानेवाले हैं। २. (अग्निः) = अग्रणी प्रभु ही हव्या दानपूर्वक अदन की वृत्तियों को (सुषूदति) = [प्रेरयति] हममें प्रेरित करते हैं। (देवः) = वे प्रभु दिव्यगुणों के पुञ्ज व प्रकाशमय हैं, (देवेषु मेधिराः) = देववृत्ति के व्यक्तियों में मेधा देनेवाले हैं। ३. प्रभु [क] सर्वप्रथम हमसे बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को हमारे साथ जोड़ते हैं, [ख] हममें हव्यों को प्रेरित करते हैं, हमें दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाला बनाते हैं, [ग] इस प्रकार हमें देव बनाकर मेधासम्पन्न करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें बुराइयों से बचाते हैं, हव्यसेवन की वृत्तिवाला बनाते हैं और हमें मेधासम्पन्न करते हैं।

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    विषय

    वनस्पतिवत् राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (वनस्पते) रश्मियों के स्वामी सूर्य के समान तेजस्विन् ! और वनस्पति अर्थात् महावृक्ष के समान अपनी छाया में अपने आश्रितों को शरण देने हारे ! अथवा जलों के पति समुद्र के समान एवं सेवने योग्य ऐश्वर्यो और उत्तम गुणों के स्वामिन् ! विद्वन् ! तू ( त्मना ) अपने आत्म सामर्थ्य से ( देवान् ) विद्या और धन के अभिलाषी उत्तम विद्वान् पुरुषों को ( अव सृजन् ) अति समीप बुला कर, ( उप यक्षि ) विद्या और ऐश्वर्य को प्रदान कर । (अग्निः) ज्ञानवान् और (देवः) दानशील (मेधिरः) और बुद्धिमान् पुरुष ( देवेषु ) उन पदार्थों के इच्छुक पुरुषों में (हव्या) देने योग्य ज्ञान, धन और उपदेश आदि पदार्थ (सु सूदति) सदा दिया ही करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यमंडळ, पृथ्वी इत्यादी दिव्य पदार्थांमध्ये दिव्यरूपी जलाचा वर्षाव करते, तसे संसारात विद्वानांनी विद्यार्थ्यांवर विद्येचा वर्षाव करावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vanaspati, lord of light and sunbeams, with your heart and soul you join the devas, seekers of light and knowledge of divinity, giving them the enlightenment they love and desire, just as Agni, brilliant light and life of the universe, refulgent among the lights of nature and humanity, receives and refines the materials consumed and recreated in the yajnic evolution of nature and humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The sun makes rains, likewise the preceptor should enlighten his pupils.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person, like the lord of the rays the sun, adorns the students desirous of acquiring knowledge with wisdom and learning. Like the sun, he shines in the bright regions; is the unifier and best among the enlightened persons and thus downpours knowledge on earth like the rains. He is therefore respectable.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun rains down water. Likewise the enlightened persons should impart knowledge to the students.

    Foot Notes

    (अवसृजन्) विविधया विद्यया अलङ्कुर्वन् = Adorning with the knowledge of various sciences. (वनस्पते ) रश्मिपतिः सूर्य इव = Like the sun that is the lord of the rays. (मेघिर:) संगमयिता = Unifier.

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