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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ई॒ळि॒तो अ॑ग्न॒ आ व॒हेन्द्रं॑ चि॒त्रमि॒ह प्रि॒यम्। इ॒यं हि त्वा॑ म॒तिर्ममाच्छा॑ सुजिह्व व॒च्यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒ळि॒तः । अ॒ग्ने॒ । आ । व॒ह॒ । इन्द्र॑म् । चि॒त्रम् । इ॒ह । प्रि॒यम् । इ॒यम् । हि । त्वा॒ । म॒तिः । मम॑ । अच्छ॑ । सु॒ऽजि॒ह्व॒ । व॒च्यते॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईळितो अग्न आ वहेन्द्रं चित्रमिह प्रियम्। इयं हि त्वा मतिर्ममाच्छा सुजिह्व वच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईळितः। अग्ने। आ। वह। इन्द्रम्। चित्रम्। इह। प्रियम्। इयम्। हि। त्वा। मतिः। मम। अच्छ। सुऽजिह्व। वच्यते ॥ १.१४२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सुजिह्वाऽग्ने ईळितस्त्वमिव प्रियं चित्रमिन्द्रमावह या ममेयं मतिस्त्वयाच्छ वच्यते सा हि त्वा प्राप्नोतु ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (ईळितः) प्रशंसितः (अग्ने) सूर्यइव प्रकाशात्मन् (आ) (वह) (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (चित्रम्) नानाविधम् (इह) अस्मिन् जन्मनि (प्रियम्) प्रीतिकरम् (इयम्) (हि) किल (त्वा) (मतिः) प्रज्ञा (मम) (अच्छ) (सुजिह्व) शोभना जिह्वा मधुरभाषिणी यस्य तत्सम्बुद्धौ (वच्यते) उच्यते ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    सर्वैः पुरुषार्थेन विद्वत्प्रज्ञां प्राप्य महदैश्वर्यं संचेतव्यम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सुजिह्व) मधुरभाषिणी जिह्वावाले (अग्ने) सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप विद्वान् ! (ईडितः) प्रशंसा को प्राप्त हुए आप (इह) इस जन्म में (प्रियम्) प्रीति करनेवाले (चित्रम्) चित्र विचित्र नानाप्रकार के (इन्द्रम्) परमैश्वर्य को (आ, वह) प्राप्त करो जो (मम) मेरी (इयम्) यह (मतिः) प्रज्ञा बुद्धि तुम से (अच्छ) (वच्यते) कही जाती है (हि) वही (त्वा) आपको प्राप्त हो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    सबको पुरुषार्थ से विद्वानों की बुद्धि पाकर महान् ऐश्वर्य का अच्छा संग्रह करना चाहिये ॥ ४ ॥

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    विषय

    ज्ञानवर्धक, प्रीणित करनेवाला धन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (ईळितः) = उपासित हुए हुए आप इह इस जीवन में (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (चित्रम्) = [चित्+र] चेतना देनेवाले (प्रियम्) = तृप्ति व कान्ति के हेतुभूत धन को (आवह) = प्राप्त कराइए। प्रभु की उपासना से हम जितेन्द्रिय बनते हैं और जितेन्द्रिय बनकर ज्ञानयुक्त धन को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। २. हे (सुजिह्व) = उत्तम जिह्वावाले, ज्ञान देनेवाले प्रभो ! (इयं हि मम मतिः) = निश्चय ही विचारपूर्वक की गई मेरी यह स्तुति (त्वा अच्छ) = आपका लक्ष्य करके (आ वच्यते) = उच्चारित होती है। मैं आपके स्तोत्रों का अर्थभावन के साथ जप करता हूँ और परिणामतः हृदयस्थ आपसे ज्ञान प्राप्त करता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु स्तोता को वह धन प्राप्त कराते हैं जो ज्ञानयुक्त व प्रीणित करनेवाला होता है।

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    विषय

    तनूनपात् का रहस्य ।

    भावार्थ

    उत्तम जिह्वा या दीप्ति, ज्वाला वाला अग्नि जिस प्रकार ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यकर, प्रिय, मनोहर विद्युत् के प्रकाश को देता है उसी प्रकार हे ( सुजिह्व ) उत्तम मधुर वाणी वाले ! ( अग्ने ) विद्वन् ! तू ( ईळितः ) स्तुति किया जाकर, प्रशंसित और इच्छानुरूप उपदेश प्राप्त करके, विद्वान् होकर ( इह ) इस लोक में, और इस जन्म में ( प्रियम् ) प्रीति कारक, सब को अच्छा लगने वाले, ( चित्रम् ) आश्चर्यकर (इन्द्रं) ऐश्वर्य को ( आ वह ) धारण कर और प्राप्त कर ( त्वा ) तुझे ( मम ) मेरी ( इयं मतिः ) यह उत्तम बुद्धि ( अच्छ ) भली प्रकार ( वच्यते ) उपदेश की जावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वांनी पुरुषार्थाने विद्वानांची बुद्धी प्राप्त करून महान ऐश्वर्याचा संग्रह केला पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, leading light of life and the world, praised and prayed at yajna, bring us here and now Indra, wondrous, versatile and dear lord of honour and power, and bless us with wealth and prosperity. Lord of blissful voice and word, thus does my mind and understanding speak well of you and to you in adoration and prayer.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person is admired.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened leader ! your soul is illumined and bright like the sun. Your speech is sweet, and hence it is praised by us. Bring us in this life, majestic wealth of all kinds, mundane and spiritual. Let this my intellect and praise reach you well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All should acquire wealth industriously with the intellectual and enlightened persons.

    Translator's Notes

    (अग्ने) सूर्य इव प्रकाशात्मान् = Man of illumined soul, shining like the sun. (सुजिन्ह) शोभना जिव्हा मधुर भाषिणी तस्य तत्सम्बुध्दौ – Sweet tongued or uttering always sweet words. (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् — Full brilliance.

    Foot Notes

    The epithet used here for (AGNI) makes it clear that a conscious entity has been addressed and prayed. Contrary to it, Shri Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have erroneously translated that fire being addressed. They translate सुजिव्ह, the fire qualifying as a घृतपानेन शोभनज्वालः (SAYANA) Bright tongued (WILSON), 'Sweet tongue' is correct meaning (GRIFFITH). इन्द्रम् is from इदि परमैश्वर्ये (भ्वादि ) hence the meaning of परमैश्वर्यम् by RISHI Dayananda Sarasvati is correct, though others take it to mean some particular 'GOD' of their conception, sitting somewhere in heaven. These are their pre-conceived notions which have unfortunately misled them.

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