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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - बर्हिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स्तृ॒णा॒नासो॑ य॒तस्रु॑चो ब॒र्हिर्य॒ज्ञे स्व॑ध्व॒रे। वृ॒ञ्जे दे॒वव्य॑चस्तम॒मिन्द्रा॑य॒ शर्म॑ स॒प्रथ॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तृ॒णा॒नासः॑ । य॒तऽस्रु॑चः । ब॒र्हिः । य॒ज्ञे । सु॒ऽअ॒ध्व॒रे । वृ॒ञ्जे । दे॒वव्य॑चःऽतमम् । इन्द्रा॑य । शर्म॑ । स॒ऽप्रथः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे स्वध्वरे। वृञ्जे देवव्यचस्तममिन्द्राय शर्म सप्रथ: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तृणानासः। यतऽस्रुचः। बर्हिः। यज्ञे। सुऽअध्वरे। वृञ्जे। देवव्यचःऽतमम्। इन्द्राय। शर्म। सऽप्रथः ॥ १.१४२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये स्वध्वरे यज्ञ इन्द्राय सप्रथो बर्हिर्देवव्यचस्तमं शर्म स्तृणानासस्सन्तो यतस्रुचो भवन्ति ते दुःखदारिद्र्यं वृञ्जे त्यजन्ति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (स्तृणानासः) आच्छादकास्सन्तः (यतस्रुचः) प्राप्तोद्यमाः (बर्हिः) बृहत् (यज्ञे) विद्यादानाख्ये (स्वध्वरे) सुशोभमाने (वृञ्जे) वृञ्जते। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति तलोपो व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (देवव्यचस्तमम्) देवैर्विद्वद्भिर्व्यचो व्याप्तं तदतिशयितम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (शर्म) गृहम् (सप्रथः) प्रख्यातगुणैस्सह वर्त्तमानम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    नह्युद्यमिनोऽन्तरा लक्ष्मीराज्यश्रियौ प्राप्नुतः। ये अत्युत्तमे विद्वन्निवासयुक्ते गृह आवसन्ति तेऽविद्यादारिद्र्ये निघ्नन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (स्वध्वरे) उत्तम शोभायुक्त (यज्ञे) विद्यादानरूप यज्ञ में (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये (सप्रथः) प्रख्यात गुणों के साथ वर्त्तमान (बर्हिः) बड़े (देवव्यचस्तमम्) विद्वानों से अतीव व्याप्त (शर्म) घर को (स्तृणानासः) ढाँपते हुए (यतस्रुचः) उद्यम को प्राप्त होते हैं, वे दुःख और दरिद्रपन का (वृञ्जे) त्याग कर देते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    उद्यम करनेवालों के विना लक्ष्मी और राज्य श्री प्राप्त नहीं होती तथा जो अतीव उत्तम विद्वानों के निवास संयुक्त घर में अच्छे प्रकार वसते हैं, वे अविद्या और दरिद्रता को निरन्तर नष्ट करते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    प्रभु-स्वागत की तैयारी

    पदार्थ

    १. (यतस्रुचः) = यज्ञों में आहुति के लिए उठाये हुए चम्मचवाले, यज्ञशील पुरुष स्वध्वरे उत्तम हिंसाशून्य यज्ञे जीवनयज्ञ में (बर्हिः स्तृणानासः) = वासनाशून्य हृदय को प्रभु के लिए आसनरूप से बिछाते हुए (इन्द्राय) = प्रभु की प्राप्ति के लिए (देवव्यचस्तमम्) = दिव्य गुणों के अधिक-से-अधिक विस्तारवाले, (सप्रथः) = शक्तियों के विस्तार से युक्त शर्म शरीररूप गृह को (वृञ्जे) = [सम्पादयन्ति - सा०] सिद्ध करते हैं। २. प्रभुप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम [क] यज्ञशील बनें, [ख] हृदय को वासना शून्य बनाएँ, [ग] दिव्यगुणों का अपने में विस्तार करें, [घ] शक्तियों को बढ़ाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु को बिठाने के लिए वासनाशून्य हृदयरूप आसन को बिछाएँ ।

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् उपासना कर्म, यज्ञकर्त्ता जनों के समान उपासक का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यथा यतस्रुचः यज्ञे बर्हिः स्तृणानासः इन्द्राय देवव्यचस्तमम् शर्म वृज्जते तथा ) जिस प्रकार यज्ञ में स्रुक् आदि पात्रों को उठाए हुए यज्ञ कर्त्ता लोग यज्ञ में कुश आदि बिछाते हुए ‘इन्द्र’ अर्थात् परमेश्वर या उपास्य देव के व्यापक विस्तृत सुख को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( सु-अध्वरे ) जिस को शत्रुजन नष्ट न कर सकें ऐसे राष्ट्र में ( यतस्रुचः ) बाहुओं, वाणियों, इन्द्रियों, स्त्रियों और समस्त लोकों को नियम में रखने में समर्थ उत्तम शासक जन ( बर्हिः ) बड़े भारी बल या राष्ट्र को ( स्तृणानासः ) आच्छादित करते हुए ( इन्द्राय ) शत्रुहन्ता राजा के लिये ( देवव्यचस्तमम् ) विद्वानों, विजयेच्छुक वीर पुरुषों से खूब परिपूर्ण, (सप्रथः) खूब बिस्तृत, ( शर्म ) सुखकारक भवन, शरण रक्षागृह सभाभवन दुर्ग आदि ( वृञ्जे ) बनाते हैं । अथवा बड़े भारी राष्ट्र को आच्छादित या सुरक्षित रख कर उसको सुरक्षित बड़े गृह के समान बना लेते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उद्योग केल्याशिवाय लक्ष्मी व राजश्री प्राप्त होत नाही व जे अत्युत्तम विद्वानांचा निवास असलेल्या घरात राहतात ते अविद्या व दारिद्र्य नष्ट करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The organisers of great yajnas of love and non violence collect the holy grass, spread it on the vedi and hold the ladle in hand for the oblation in yajna in honour of Indra for the sake of power, wealth and knowledge. And they build the largest home for the scholars of divinity and, through yajna, divest themselves of misery and poverty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Hard work is key to prosperity has been underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The persons who are industrious, adorn grand houses inhabited by many likeminded scholars for the acquisition of great wealth. While performing of this non-violent noble Yajna in the form of dissemination of knowledge, one wards off all his miseries and poverty.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Wealth and prosperity of the State, as well as, of an individual can not be acquired by the persons who are not industrious. Those who live in the dwellings inhabited by great scholars, shake off their all ignorance and poverty.

    Foot Notes

    (बर्हि:) बृहत् = Great or spacious. ( यज्ञ ) विद्यादानाख्ये — In the Yajna in the form of the diffusion of knowledge. (शर्म ) गृहम् = House.

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