ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - स्वाहा कृतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पू॒ष॒ण्वते॑ म॒रुत्व॑ते वि॒श्वदे॑वाय वा॒यवे॑। स्वाहा॑ गाय॒त्रवे॑पसे ह॒व्यमिन्द्रा॑य कर्तन ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒ष॒ण्ऽवते॑ । म॒रुत्व॑ते । वि॒श्वऽदे॑वाय । वा॒यवे॑ । स्वाहा॑ । गा॒य॒त्रऽवे॑पसे । ह॒व्यम् । इन्द्रा॑य । क॒र्त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे। स्वाहा गायत्रवेपसे हव्यमिन्द्राय कर्तन ॥
स्वर रहित पद पाठपूषण्ऽवते। मरुत्वते। विश्वऽदेवाय। वायवे। स्वाहा। गायत्रऽवेपसे। हव्यम्। इन्द्राय। कर्तन ॥ १.१४२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं स्वाहा पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे गायत्रवेपस इन्द्राय हव्यं कर्त्तन ॥ १२ ॥
पदार्थः
(पूषण्वते) बहवः पूषणः पुष्टिकर्त्तारो गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मिन् (मरुत्वते) प्रशंसिता मरुतो विद्यास्तावकाः सन्ति यस्मिन् (विश्वदेवाय) विश्वेऽखिला देवा विद्वांसो यस्मिंस्तस्मै (वायवे) प्राप्तुं योग्याय (स्वाहा) सत्यया क्रियया (गायत्रवेपसे) गायत्रं गायन्तं त्रायमाणं वेपो रूपं यस्मात् तस्मै (हव्यम्) आदातुमर्हं कर्म (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (कर्त्तन) कुरुत ॥ १२ ॥
भावार्थः
येन धनेन पुष्टिर्विद्याविद्वत्सत्कारौ वेदविद्याप्रवृत्तिः सर्वोपकारश्च स्यात्तदेव धर्म्यं धनं भवति नेतरत् ॥ १२ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (स्वाहा) सत्य क्रिया से (पूषण्वते) जिसके बहुत पुष्टि करनेवाले गुण (मरुत्वते) जिसमें प्रशंसायुक्त विद्या की स्तुति करनेवाले (विश्वदेवाय) वा समस्त विद्वान् जन विद्यमान (वायवे) प्राप्त होने योग्य (गायत्रवेपसे) गानेवाले की रक्षा करता हुआ जिनसे रूप प्रकट होता उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य कर्म को (कर्त्तन) करो ॥ १२ ॥
भावार्थ
जिस धन से पुष्टि, विद्या विद्वानों का सत्कार, वेदविद्या की प्रवृत्ति और सर्वोपकार हो वही धर्म सम्बन्धी धन है, और नहीं ॥ १२ ॥
विषय
स्वाहा व हव्य
पदार्थ
१. (पूषण्वते) = प्राणिमात्र का पोषण करनेवाले, (मरुत्वते) = मरुतों व प्राणोंवाले-प्राणशक्ति का संचार करनेवाले, विश्वदेवाय सब दिव्यगुणोंवाले, (वायवे) = गतिशील, (गायत्रवेपसे) = [गायत्र-छन्द का एक प्रकार, a hymn] स्तोत्रों के द्वारा कामादि शत्रुओं को कम्पित करनेवाले, (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (स्वाहा) = स्वार्थत्याग को तथा (हव्यम्) = दानपूर्वक अदन को कर्तन करो। २. वस्तुतः स्वार्थत्याग करने तथा दानपूर्वक अदन की वृत्ति को अपनाने पर प्रभु हमारा पोषण करते हैं, हमें प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं, दिव्यगुणों से युक्त करते हैं, हमें गतिशील बनाते हैं और उस समय हम स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए वासनारूप शत्रुओं को अपने से दूर रखते हैं तथा वास्तविक ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - स्वार्थत्याग व दानपूर्वक अदन ही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है।
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1124
ओ३म् पू॒ष॒ण्वते॑ म॒रुत्व॑ते वि॒श्वदे॑वाय वा॒यवे॑ ।
स्वाहा॑ गाय॒त्रवे॑पसे ह॒व्यमिन्द्रा॑य कर्तन ॥
ऋग्वेद 1/142/12
इन्द्र राजन को दूँ मैं हवि,
वही है मेरे प्यारे
भौतिक यज्ञ की ना यह हवि
जिसे हम उस पे निवारें
सामग्री घृत आदि का वो इन्द्र
बोलो भला उसका क्या करे ?
पाना है उसको यदि
आत्मसमर्पण की हवि
अर्पण कर दे अहंकार बिना रे
इन्द्र राजन को दूँ मैं हवि,
वही है मेरे प्यारे
जो भी कुछ करते हैं कार्य
बनके रहें उसमें आर्य
खाना-पीना पूजा दान
भाव ना हों उसमें अदान
होंगे हम पूर्ण तैयार
त्याग देंगे जब अहंकार
"मैं" की भावना के कारण
पहुँचे ना हम इन्द्र के द्वारे
इन्द्र राजन को दूँ मैं हवि,
वही है मेरे प्यारे
इन्द्र हैं पूषण्वान्
और है मरुतवान्
इन्द्र है सूर्य वाले
उनसे प्रेरित पवन प्राण
इन्द्र हैं विश्वदेवाय
इन्द्रिय मन बुद्धि सहाय
और अग्नि जल आदि देव
जुड़े रहते हैं उनके सहारे
इन्द्र राजन को दूँ मैं हवि,
वही है मेरे प्यारे
सर्वव्यापक वह वायु
गायत्रवेपस झूमाऊँ
भक्ति-गान का चाहक
प्रिय है उसके उपासक
भक्ति गान की तरङ्गे
इन्द्र में भरती उमङ्गें
आओ त्याग कर 'अहम्'
जायें उस पे वारे वारे
इन्द्र राजन को दूँ मैं हवि,
वही है मेरे प्यारे
भौतिक यज्ञ की ना यह हवि
जिसे हम उस पे निवारें
सामग्री घृत आदि का वो इन्द्र
बोलो भला उसका क्या करे ?
पाना है उसको यदि
आत्मसमर्पण की हवि
अर्पण कर दे अहंकार बिना रे
इन्द्र राजन को दूँ मैं हवि,
वही है मेरे प्यारे
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- २१.११.२०११ १५.०५
राग :- गौड़ सारंग
गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल दादरा 6 मात्रा
शीर्षक :- इन्द्र को हव्य प्रदान करो 🎧भजन 704वां
*तर्ज :- *
00124-724
पूषण्वते = सूर्य के स्वामी
अदान = स्वार्थ,
मरुत् = पवन या प्राण
गायत्रवेपसे = गान से झूम उठने वाले
झुमाऊं = झूमने वाले
अहम = घमंड
इन्द्र = आत्मा या परमात्मा
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
इन्द्र को हव्य प्रदान करो
आओ इन्द्र को स्वाहा पूर्वक हव्य प्रदान करें। क्या तुम पूछते हो कि कौन है यह इन्द्र, कैसे उसे हम हव्य दें, कौन सा हव्य दें? क्या स्वाहा बोलकर घृत एवं हवन- सामग्री की आहुति इन्द्र के नाम से अग्नि में छोड़ दें, तो वह इन्द्र को पहुंच जाएगी? नहीं,यहां वेद उसकी बात नहीं कर रहा है। इन्द्र हैं राजराजेश्वर प्रभु, उन्हें इस स्थूल घृत आदि की आवश्यकता नहीं है। प्रभु को तो हमें अपने सर्वस्व का होम देना है। जो कुछ हम कार्य करते हैं, जो कुछ खाते पीते हैं,जो कुछ हवन तर्पण आदि करते हैं जो कुछ दान आदि करते हैं, जो कुछ तपस्या आदि करते हैं, उस सबमें से अहंकार को निकाल कर सब कुछ ईश्वर अर्पण-बुद्धि से करना है ।जब तक "मैं" की भावना रहती है तब तक किया हुआ कोई कार्य,दान किया हुआ कोई पदार्थ इन्द्र के पास नहीं पहुंचता। अतः आओ, आज से हम इन्द्र को हव्य देना आरम्भ करें।
कैसा है इन्द्र? वह 'पूषण्वान्' है, पूषावाला है,पूषा का स्वामी है। पूषा सूर्य का नाम है। 'सूर्यवाले' के रूप में इन्द्र की ख्याति है, क्योंकि वही सूर्य का नियंत्रण एवं संचालन कर्ता है। इन्द्र 'मरुत्वान' है मरुतोंवाला है। मरुत्, पवन और प्राण को कहते हैं। पवन और प्राण उसी की प्रेरणा से कार्य करते हैं। पवन जीवन देता है प्राण अमृत बरसाता है, इन्द्र की ही शक्ति से।
इन्द्र विश्वदेवमय है। शरीर के मन बुद्धि, ज्ञानेंद्रिय आदि देव सब तथा बाहर के अग्नि, जल आदि देव सब उसके साथ जुड़े हुए हैं,जैसे रथचक्र की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं। इन्द्र 'वायु' है,सर्वगत है, सर्वव्यापक है, सर्वान्तर्यामी है, माला के सूत्र के समान सब में ओत-प्रोत है।
इन्द्र गायत्रवेदस् है,उपासक के हृदय निकले भक्तिगान से कम्पित- तरंगगित हो जाने वाला है,झूम उठने वाला है,
आओ 'अहम' त्याग कर हम इन्द्र अर्पण हो जाएं,इन्द्र के हो जायें।
🕉🧘♂️ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा🎧🙏
🕉🧘♂️ वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🙏
विषय
राजा के प्रति प्रजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (पूषण्वते) पोषण करने वाले गुणों से युक्त और पोषक साधनों और पोषक वर्गों के स्वामी, ( मरुत्वते ) विद्वानों, वैश्य प्रजा और वीर सैनिक स्वामी ( विश्वदेवाय ) समस्त उत्तम, विजिगीषुओं के स्वामी ( वायवे ) ज्ञानेच्छुक, ज्ञानप्रद और वायु के समान तीव्र वेग से जाने वाले नायक तथा ( गायत्रवेपसे ) गान करने वाले के रक्षक स्वरूप ( इन्द्राय ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने और उसके स्वामी प्रभु के लिये (स्वाहा) उत्तम सत्य आचरण और सत्कार द्वारा ( हव्यम् कर्तन ) उत्तम वचन सत्कार और अन्नादि पदार्थ उपस्थित करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या धनामुळे पुष्टी, विद्या, विद्वानांचा सत्कार वेदविद्येची प्रवृत्ती व सर्वोपकार करता येतो तेच धर्मयुक्त धन आहे, अन्य नव्हे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Homage of honour and adoration to the lord of nourishment, sustenance and advancement of life, to the lord of energy and movement onward, to the lord of the universe and ideal of humanity, and to Vayu, lord of the breath of life and spirit adorable. Do homage with offer of food and service to the saviour lord beatific of blessed form and to Indra, lord of honour, power and knowledge.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Honest earnings are the best wealth.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! you perform acceptable and noble deeds for earning wealth. It is indeed nourishing, and it supports many admirable scholars. In return, these persons protect the singers of the glory of Lord.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Real wealth is always righteously earned and used. It makes a man strong, because he respects knowledge and encourages the tendency to disseminate the Vedic knowledge, which is beneficial to one and all.
Foot Notes
( मरुत्वते) प्रशंसिताः मरुतः विद्या दिस्तावकाः सन्ति यस्मिन् = For noble learning seekers ( इन्द्राय ) परमैश्वर्याय = For great wealth. (वायवे ) प्राप्तुं योग्याय – Attainable. ( गायत्रवेपसे) गायत्रं गायन्तं त्नायमाणं वेपः रूपं यस्मात् तस्मै = That which has protective form for a singer of God or devotee.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal