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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स्वाहा॑कृता॒न्या ग॒ह्युप॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। इन्द्रा ग॑हि श्रु॒धी हवं॒ त्वां ह॑वन्ते अध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑ऽकृतानि । आ । ग॒हि॒ । उप॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ । इन्द्र॑ । आ । ग॒हि॒ । श्रु॒धि । हव॑म् । त्वाम् । ह॒व॒न्ते॒ । अ॒ध्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहाकृतान्या गह्युप हव्यानि वीतये। इन्द्रा गहि श्रुधी हवं त्वां हवन्ते अध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहाऽकृतानि। आ। गहि। उप। हव्यानि। वीतये। इन्द्र। आ। गहि। श्रुधि। हवम्। त्वाम्। हवन्ते। अध्वरे ॥ १.१४२.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र विद्वन् अध्वरे वीतये स्वाहाकृतानि हव्यान्युपागहि यं त्वां विद्यां जिज्ञासवो हवन्ते स त्वमागहि हवं श्रुधि ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (स्वाहाकृतानि) सत्यक्रियया निष्पादितानि (आ) (गहि) आगच्छ (उप) सामीप्ये (हव्यानि) आदातुमर्हाणि (वीतये) विद्याव्याप्तये (इन्द्र) परमैश्वर्ययोजक (आ) (गहि) (श्रुधी) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) स्तवनम् (त्वाम्) (हवन्ते) स्तुवन्ति (अध्वरे) अहिंसनीये व्यवहारे ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    अध्यापको यावच्छास्त्रमध्यापयेत् तावत्प्रत्यहं प्रतिमासं वा परीक्षेत। विद्यार्थिषु ये येभ्यो विद्याः प्रदद्युस्ते तेषां शरीरेण मनसा धनेन सेवां कुर्य्युः ॥ १३ ॥अत्राध्यापकाऽध्येतृविद्यागुणप्रशंसनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति द्विचत्वारिशदुत्तरं शततमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य को युक्त करनेवाले विद्वान् ! आप (अध्वरे) न नष्ट करने योग्य व्यवहार में (वीतये) विद्या की प्राप्ति के लिये (स्वाहाकृतानि) सत्य क्रिया से (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (उपागहि) प्राप्त होओ, जिन (त्वाम्) तुम्हारी (हवन्ते) विद्या का ज्ञान चाहते हुए विद्यार्थी जन स्तुति करते हैं सो आप (आ, गहि) आओ और (हवम्) स्तुति को (श्रुधि) सुनो ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    अध्यापक जितना शास्त्र विद्यार्थियों को पढ़ावे उसकी प्रतिदिन वा प्रतिमास परीक्षा करे और विद्यार्थियों में जो जिनको विद्या देवें वे उनकी तन, मन, धन से सेवा करें ॥ १३ ॥इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों के गुणों और विद्या की प्रशंसा होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये ॥यह एकसौ बयालीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    प्रभुप्राप्ति व त्यागमय जीवन

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि (स्वाहाकृतानि) = स्वार्थत्याग के कार्यों को (आगहि) = तू ग्रहण करनेवाला हो। तेरे कर्म स्वार्थ की भावना से पूर्ण न हों तू (हव्यानि उप) = [आगहि] हव्य पदार्थों को ही स्वीकार करनेवाला हो। यज्ञ करके यज्ञशेष को ही खानेवाला बन। यह यज्ञशेष का सेवन (वीतये) = तेरे अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिए होगा। २. प्रभु की प्रेरणा को सुनकर जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (आ गहि) = आप आइए, (हवं श्रुधी) = मेरी पुकार को सुनिए, अध्वरे इस अहिंसात्मक यज्ञ में (त्वां हवन्ते) = हम आपको ही पुकारते हैं। वस्तुतः आपकी प्रेरणा व शक्ति से ही मैं स्वाहाकृतों व हव्यों को अपने जीवन में धारण कर सकूँगा, क्योंकि त्याग उतने अंश में ही सम्भव होता है जितना कि हम आपके [प्रभु के] समीप होते हैं, अतः आप हमें प्राप्त होओ ताकि हम त्यागमय जीवन बिता सकें।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुप्राप्ति व प्रभु की उपासना से ही मैं त्यागमय जीवन बिता पाता हूँ। 'त्याग से प्रभुप्राप्ति व प्रभुप्राप्ति से त्याग' इस प्रकार इनका परस्पर भावन चलता है।

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    विषय

    विद्वानों के आदर का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे विद्यावन् ! आचार्य ! आप (स्वाहाकृतानि) उत्तम वाणी और आदर द्वारा सुसम्पादित (हव्यानि) अन्न आदि उत्तम पदार्थों को ( वीतये ) प्राप्त करने के लिये ( आगहि ) आओ । (आगहि) आओ और ( हवं ) उत्तम वचन ( श्रुधि ) श्रवण करो । लोग ( अध्वरे ) इस यज्ञ में परस्पर सत्संग और उत्तम कर्म के अवसर पर ( त्वां हवन्ते ) तुझे बुलाते और तुझ से ज्ञान श्रवण करने की प्रार्थना करते हैं । इत्येकादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक जितके शास्त्र विद्यार्थ्यांना शिकवितो त्याची प्रत्येक दिवशी किंवा प्रत्येक महिन्याला परीक्षा घ्यावी व विद्यार्थ्यांनी त्यांची तन, मन, धनाने सेवा करावी. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of light and life, knowledge, power and honour, come close to our yajna and receive our homage of worship and prayer, gifts and service in yajna for the sake of protection and well-being. Come lord, listen to the prayers and presentations made in faith. All the devotees invoke, invite and honour you in the yajna of love and non-violence and in their conduct and behaviour.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Benefits of regular teaching and serving to the teachers is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! leading us to great prosperity, come to partake of these materials acquired through honest working. In its achieving, none has been harmed or deceived. Come and accede to our request. We, the seekers after knowledge always invoke you in all such dealings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A teacher should keep his pupils under watch during the studies. The pupils should serve the teachers physically mentally and financially.

    Translator's Notes

    (स्वाहाकृतानि ) सत्यक्रियया निष्पादितानि = Produced or prepared with true and honest means or acts. ( वीतये) विद्याव्याप्तये = For providing knowledge.

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