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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 185 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒तं दि॒वे तद॑वोचं पृथि॒व्या अ॑भिश्रा॒वाय॑ प्रथ॒मं सु॑मे॒धाः। पा॒ताम॑व॒द्याद्दु॑रि॒ताद॒भीके॑ पि॒ता मा॒ता च॑ रक्षता॒मवो॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तम् । दि॒वे । तत् । अ॒वो॒च॒म् । पृ॒थि॒व्यै । अ॒भि॒ऽश्रा॒वाय॑ । प्र॒थ॒मम् । सु॒ऽमे॒धाः । पा॒ताम् । अ॒व॒द्यात् । दुः॒ऽइ॒तात् । अ॒भीके॑ । पि॒ता । मा॒ता । च॒ । र॒क्ष॒ता॒म् । अवः॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतं दिवे तदवोचं पृथिव्या अभिश्रावाय प्रथमं सुमेधाः। पातामवद्याद्दुरितादभीके पिता माता च रक्षतामवोभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतम्। दिवे। तत्। अवोचम्। पृथिव्यै। अभिऽश्रावाय। प्रथमम्। सुऽमेधाः। पाताम्। अवद्यात्। दुःऽइतात्। अभीके। पिता। माता। च। रक्षताम्। अवःऽभिः ॥ १.१८५.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    प्रकृतविषयेऽभीष्टवक्तव्यविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा सुमेधा अहमभिश्रावाय पृथिव्यै च यत् प्रथममृतमवोचं तद्दिवे चाऽभीके वर्त्तमानेऽवद्याद्दुरितात्तौ पातां तथा पिता माता चावोभी रक्षताम् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (ऋतम्) सत्यम् (दिवे) दिव्यसुखाय (तत्) (अवोचम्) उपदिशेयं वदेयं च (पृथिव्यै) पृथिवीव वर्त्तमानायै स्त्रियै (अभिश्रावाय) य अभितः शृणोति श्रावयति वा तस्मै (प्रथमम्) पुरः (सुमेधाः) सुष्ठुप्रज्ञाः (पाताम्) (रक्षताम्) (अवद्यात्) निन्द्यात् (दुरितात्) दुष्टाचरणात् (अभीके) कमिते (पिता) पालकः (माता) मान्यकर्त्री (च) (रक्षताम्) (अवोभिः) रक्षणादिभिः ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। उपदेशकेन उपदेश्यान् प्रत्येवं वाच्यं यादृशं प्रियं लोकहितं सत्यं मयोच्येत तथा युष्माभिरपि वक्तव्यं यथा पितरः स्वसन्तानान् सेवन्ते तथैतेऽपत्यैरपि सदा सेवनीयाः ॥ १० ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    चलते हुए विषय में चाहे हुए कहने योग्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (सुमेधाः) सुन्दर बुद्धिवाला मैं (अभिश्रावाय) जो सब ओर से सुनता वा सुनाता उसके लिये और (पृथिव्यै) पृथिवी के समान वर्त्तमान क्षमाशील स्त्री के लिये जो (प्रथमम्) प्रथम (ऋतम्) सत्य (अवोचम्) उपदेश करूँ और कहूँ (तत्) उसको (दिवे) दिव्य उत्तमवाले के लिये भी उपदेश करूँ कहूँ जैसे (अभीके) कामना किये हुए व्यवहार में वर्त्तमान (अवद्यात्) निन्दा योग्य (दुरितात्) दुष्ट आचरण से उक्त दोनों (पाताम्) रक्षा करें वैसे (पिता) पिता (च) और (माता) माता (अवोभिः) रक्षा आदि व्यवहारों से मेरी (रक्षताम्) रक्षा करें ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उपदेश करनेवाले को उपदेश सुनने योग्यों के प्रति ऐसा कहना चाहिये कि जैसा प्रिय लोकहितकारी वचन मुझसे कहा जावे, वैसे आप लोगों को भी कहना चाहिये, जैसे माता-पिता अपने सन्तानों की सेवा करते हैं, वैसे ये सन्तानों को भी सदा सेवने योग्य हैं ॥ १० ॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उपदेशकाने उपदेश ऐकणाऱ्याला असे म्हटले पाहिजे की जसे प्रिय लोकहितकारी वचन मी बोलतो तसे तुम्ही ही बोलावे. माता-पिता जशी आपल्या संतानाचे संगोपन करतात तशी संतानांनीही त्यांची सेवा करावी. ॥ १० ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Blest with noble intelligence by heaven and earth, I pray I may speak the original Word of Truth and Divinity in honour of heaven and earth for the noble listener. May the heaven and earth, and father and mother, both loving and kind, both ever close-by, save me from calumny sin and evil and protect and promote me with their care, favour and kindness.

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