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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    आ ना॑सत्या॒ गच्छ॑तं हू॒यते॑ ह॒विर्मध्वः॑ पिबतं मधु॒पेभि॑रा॒सभिः॑ । यु॒वोर्हि पूर्वं॑ सवि॒तोषसो॒ रथ॑मृ॒ताय॑ चि॒त्रं घृ॒तव॑न्त॒मिष्य॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ना॒स॒त्या॒ । गच्छ॑तम् । हू॒यते॑ । ह॒विः । मध्वः॑ । पि॒ब॒त॒म् । म॒धु॒ऽपेभिः॑ । आ॒सऽभिः॑ । यु॒वोः । हि । पूर्व॑म् । स॒वि॒ता । उ॒षसः॑ । रथ॑म् । ऋ॒ताय॑ । चि॒त्रम् । घृ॒तऽव॑न्तम् । इष्य॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः । युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नासत्या । गच्छतम् । हूयते । हविः । मध्वः । पिबतम् । मधुपेभिः । आसभिः । युवोः । हि । पूर्वम् । सविता । उषसः । रथम् । ऋताय । चित्रम् । घृतवन्तम् । इष्यति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (आ) समन्तात् (नासत्या) अश्विनाविव। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः (गच्छतम्) (हूयते) क्षिप्यते दीप्यते (हविः) होतुं प्रक्षेप्तं दातुमर्हं काष्ठादिकमिन्धनम् (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि जलानि। मध्वित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। अत्र लिंगव्यत्ययेन पुँस्त्वम्। वाच्छन्दसिसर्वे० इति पूर्वसवर्णप्रतिषेधा द्यणादेशः। (पिबतम्) (मधुपेभिः) मधूनि जलानि पिबन्ति यैस्तैः (आसभिः) स्वकीयैरास्यवच्छेदकगुणैः। अत्रास्यस्य स्थाने पदन्नोमासू०। अ० ६।१।६३। इत्यासन्नादेशः। (युवोः) युवयोः (हि) निश्चयार्थे (पूर्वम्) प्राक् (सविता) सूर्यलोकः (उषसः) सूर्योदयात्प्राक् वर्त्तमानकालवेलायाः (रथम्) रमणहेतुम् (ऋताय) सत्यगमनाय। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। निघं० ३।१२। (चित्रम्) आश्चर्य्यवेगादियुक्तम् (घृतवन्तम्) घृतानि बहून्युदकानि विद्यन्ते यस्मिँस्तम्। घृतमित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (इष्यति) गच्छति ॥१०॥

    अन्वयः

    पुनस्ताभ्यां किं साधनीयमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अश्विनौ नासत्याभ्यामश्विभ्यामिव युवाभ्यां यद्धविर्हूयते तेन हविषा शेधितानि मध्वो मधूनि जलानि मधुपेभिरासभिः पिबतम्। अस्मदानन्दाय घृतवन्तं चित्रं रथमागच्छतं समन्ताच्छीघ्रं प्राप्नुतं युवोर्युवयो र्यो रथ उषसः पूर्वं सवितेव प्रकाशमान इष्यति स ह्यतायास्माभिर्गृहीतव्यो भवति ॥१०॥

    भावार्थः

    यदा यानेष्वग्निजले प्रदीप्य चालयन्ति तदेमानि यानानि स्थानान्तरं सद्यः प्राप्नुवन्ति। तत्र जलवाष्पनिस्सारणायैकमीदृशं स्थानं निर्मातव्यं यद्द्वारा बाष्पनिर्मोचनेन वेगो वर्द्धेत। एतद्विद्याऽभिज्ञ एव सम्यक् सुखं प्राप्नोति ॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे शिल्पिलोगो ! तुम दोनों (नासत्या) जल और अग्नि के सदृश जिस (हविः) सामग्री का (हूयते) हवन करते हो उस हवि से शुद्ध हुए (मध्वः) मीठे जल (मधुपेभिः) मीठे मीठे जल पीनेवाले (आसभिः) अपने मुखों से (पिबतम्) पियो और हम लोगों को आनन्द देने के लिये (घृतवन्तम्) बहुत जल की कलाओं से युक्त (चित्रम्) वेगादि आश्चर्य्य गुणसहित (रथम्) विमानादि यानों से देशान्तरों को (गच्छतम्) शीघ्र जाओं आओ (युवाः) तुम्हारा जो रथ (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वम्) पहिले (सविता) सूर्यलोक के समान प्रकाशमान (इष्यति) शीघ्र चलता है (हि) वही (ऋताय) सत्य सुख के लिये समर्थ होता है ॥१०॥

    भावार्थ

    जब यानों में जल और अग्नि को प्रदीप्त करके चलाते हैं तब ये यान और स्थानों को शीघ्र प्राप्त कराते हैं उनमें जल और बाफ के निकलने का एक ऐसा स्थान रच लेवें कि जिसमें होकर बाफ के निकलने से वेग की वृद्धि होवे। इस विद्या का जाननेवाला ही अच्छे प्रकार सुखों को प्राप्त होता है ॥१०॥

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    विषय

    फिर उनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अश्विनौ नासत्याभ्याम् अश्विभ्याम् इव युवाभ्यां यत् हविः हूयते तेन हविषा शोधितानि मध्वः मधूनि जलानि मधुपेभिः आसभिः पिबतम्। अस्मत् आन्दाय घृतवन्तं चित्रं रथम् आगच्छतं समन्तात् शीघ्रं प्राप्नुतं युवोः युवयोः यः रथः उषसः पूर्वं सविता इव प्रकाशमानः इष्यति स हि ऋताय अस्माभिः गृहीतव्यः भवति ॥१०॥ 

    पदार्थ

    हे (अश्विना) अश्विनौ विद्याज्योतिर्विस्तारमयौ=विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पी लोगो ! (नासत्याभ्याम्) अश्विनाविव। अश्विभ्याम्=दो सारथी देवताओं के, (इव)=सदृश, (युवाभ्याम्)=तुम दोनों के द्वारा, (यत्)=जिस, (हविः) होतुं प्रक्षेप्तं दातुमर्हं काष्ठादिकमिन्धनम्=हवन में डाली जाने वाली लकड़ी आदि सामग्री का, (हूयते) क्षिप्यते दीप्यते=हवन करते हो।  (तेन)=उस, (हविषा)=हवि से, (शोधितानि)=शुद्ध किये हुए, (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि जलानि=मधुर गुण से युक्त जल, (मधुपेभिः) मधूनि जलानि पिबन्ति यैस्तैः=मीठे जल को जो पीते हैं, वे, (आसभिः) स्वकीयैरास्यवच्छेदकगुणैः=[स्वकीयैः आस्यो अवच्छेदक गुणैः] अपने मुख के उस गुण से जो अलग करता है, से (पिबतम्)=पियो और (अस्मत्)=हम लोगों को, (आनन्दाय)=आनन्द देने के लिये, (घृतवन्तम्) घृतानि बहून्युदकानि विद्यन्ते यस्मिँस्तम्=बहुत घृत और जल से युक्त, (चित्रम्) आश्चर्य्यवेगादियुक्तम्=वेगादि आश्चर्य्य गुणसहित, (रथम्) रमणहेतुम्=भ्रमण के लिये, विमानादि यानों से,  (आगच्छतम्)=आते हुए, (समन्तात्)=हर ओर से,  (शीघ्रम्)=शीघ्र, (प्राप्नुतम्)=आते हुए, (युवोः) युवयोः=तुम दोनों का, (यः)=जो, (रथः)=रथ, (उषसः)=उषा काल से, (पूर्वम्) प्राक्=पहले, (सविता) सूर्यलोकः=सूर्यलोक, (इव)=के समान, (प्रकाशमानः)= प्रकाशमान, (इष्यति) गच्छति= हो जाता है, (सः)=वह, (हि) निश्चयार्थे=निश्चय से ही, (ऋताय) सत्यगमनाय= सत्य मार्ग से जाने के लिये, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (गृहीतव्यः)=ग्रहण किये जाने योग्य, (भवति)=होता है ॥१०॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जब यानों में जल और अग्नि को प्रदीप्त करके चलाते हैं तब ये यान और स्थानों को शीघ्र पहुँचते हैं। उनमें जल और भाप के निकलने का एक ऐसा स्थान बना लेवें कि जिसमें होकर भाप के निकलने से वेग की वृद्धि होवे। इस विद्या का जाननेवाला ही अच्छे प्रकार सुखों को प्राप्त करता है ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ाने वाले शिल्पी लोगो ! (नासत्याभ्याम्) दो सारथी देवताओं के (इव) सदृश (युवाभ्याम्) तुम दोनों के द्वारा (यत्) जिस (हविः) हवन में डाली जाने वाली लकड़ी आदि सामग्री का (हूयते) हवन किया जाता है।  (तेन) उस (हविषा) हवि से (शोधितानि) शुद्ध किये हुए (मध्वः) मधुर गुणयुक्त जल को (मधुपेभिः) जो पीते हैं, वे (आसभिः) अपने मुख के उस गुण से जो अलग करते हैं, (पिबतम्) [उसे] पियें और (अस्मत्) हम लोगों को (आन्दाय) आनन्द देने के लिये (घृतवन्तम्) बहुत घृत और जल से युक्त (चित्रम्) वेगादि आश्चर्य गुणसहित (रथम्) भ्रमण के लिये विमानादि यानों से (समन्तात्) हर ओर से (शीघ्रम्) शीघ्र (प्राप्नुतम्) आते हुए (युवोः) तुम दोनों का (यः) जो (रथः) रथ (उषसः) उषा काल से (पूर्वम्) पहले (सविता) सूर्यलोक (इव) के समान (प्रकाशमानः) प्रकाशमान (इष्यति) हो जाता है, (सः) वह (हि) निश्चय से ही (ऋताय)  सत्य मार्ग से जाने के लिये (अस्माभिः) हमारे द्वारा (गृहीतव्यः) ग्रहण किये जाने योग्य (भवति) होता है ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (नासत्या) अश्विनाविव। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः (गच्छतम्) (हूयते) क्षिप्यते दीप्यते (हविः) होतुं प्रक्षेप्तं दातुमर्हं काष्ठादिकमिन्धनम् (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि जलानि। मध्वित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। अत्र लिंगव्यत्ययेन पुँस्त्वम्। वाच्छन्दसिसर्वे० इति पूर्वसवर्णप्रतिषेधा द्यणादेशः। (पिबतम्) (मधुपेभिः) मधूनि जलानि पिबन्ति यैस्तैः (आसभिः) स्वकीयैरास्यवच्छेदकगुणैः। अत्रास्यस्य स्थाने पदन्नोमासू०। अ० ६।१।६३। इत्यासन्नादेशः। (युवोः) युवयोः (हि) निश्चयार्थे (पूर्वम्) प्राक् (सविता) सूर्यलोकः (उषसः) सूर्योदयात्प्राक् वर्त्तमानकालवेलायाः (रथम्) रमणहेतुम् (ऋताय) सत्यगमनाय। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। निघं० ३।१२। (चित्रम्) आश्चर्य्यवेगादियुक्तम् (घृतवन्तम्) घृतानि बहून्युदकानि विद्यन्ते यस्मिँस्तम्। घृतमित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (इष्यति) गच्छति ॥१०॥
    विषयः- पुनस्ताभ्यां किं साधनीयमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे अश्विनौ नासत्याभ्यामश्विभ्यामिव युवाभ्यां यद्धविर्हूयते तेन हविषा शोधितानि मध्वो मधूनि जलानि मधुपेभिरासभिः पिबतम्। अस्मदानन्दाय घृतवन्तं चित्रं रथमागच्छतं समन्ताच्छीघ्रं प्राप्नुतं युवोर्युवयो र्यो रथ उषसः पूर्वं सवितेव प्रकाशमान इष्यति स ह्यतायास्माभिर्गृहीतव्यो भवति ॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा यानेष्वग्निजले प्रदीप्य चालयन्ति तदेमानि यानानि स्थानान्तरं सद्यः प्राप्नुवन्ति। तत्र जलवाष्पनिस्सारणायैकमीदृशं स्थानं निर्मातव्यं यद्द्वारा बाष्पनिर्मोचनेन वेगो वर्द्धेत। एतद्विद्याऽभिज्ञ एव सम्यक् सुखं प्राप्नोति ॥१०॥

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    विषय

    मधु - पान

    पदार्थ

    १. हे (नासत्या) - नासिका में विचरण करनेवाले, शरीर में असत्य को न आने देनेवाले प्राणापानो ! (आगच्छतम्) - आप यहाँ इस शरीर में हमें प्राप्त होवो । आपके ठीक कार्य करने पर ही, भूख - प्यास लगने पर हमसे (हविः) - यज्ञिय पवित्र भोज्य पदार्थ (हूयते) - इस शरीर में आहुत किये जाते हैं ; भोजन को भी हम एक यज्ञ का रूप देने का प्रयत्न करते हैं । 
    २. हे प्राणपानो ! आप (मधुपेभिः आसभिः) - इन अन्नों के सारभूत सोम - [वीर्यकण] - रूप मधु का पान करनेवाले 
    अपने मुखों से (मध्वः पिबतम्) - इस सोम का पान करो । प्राणसाधना से यज्ञिय अन्नों से उत्पन्न सात्त्विक वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है, यही अश्विनी देवों का सोमपान है । 
    ३. हे प्राणापानो ! (युवोः) - आप दोनों के (चित्रम्) - इस अद्भुत अथवा संज्ञानवाले, ज्ञानरूप प्रकाशवाले (घृतवन्तम्) - [घृ क्षरणदीप्तयोः] नैर्मल्य व चमकवाले (रथम्) - शरीररूप रथ को (सविता) - वह प्रेरक प्रभु (उषसः पूर्वम्) - उषाकाल के अग्रभाग में ही, अर्थात् बहुत सवेरे - सवेरे (हि) - निश्चयपूर्वक (ऋताय) - यज्ञादि उत्तम कर्मों के लिए (इष्यति) - प्रेरित करता है, अर्थात् यह हमारा शरीर ज्ञानमय, निर्मल व स्वास्थ्य की दीप्तिवाला बनता है और सदा प्रातः से ही उत्तम कर्मों में लग जाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम यज्ञिय भोजन खाएं, प्राणसाधना से सोम का रक्षण करें । सोमरक्षण से 'प्रकाश, नैर्मल्य व दृढ़ता' - वाले इस शरीर को सदा उत्तम कर्मों में व्याप्त रक्खें । 
     

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    विषय

    स्त्री पुरुषों को उत्तम जल, अन्न, दीर्घ जीवन ऐश्वर्य प्राप्ति आदि का उपदेश

    भावार्थ

    हे (नासत्यौ) कभी असदाचरण न करने वाले, सत्य स्वभाव से युक्त स्त्री पुरुषो! (आ गच्छतम्) आप दोनों आदरपूर्वक आओ। (हविः) अन्न आदि ग्रहण योग्य पदार्थ (हूयते) अग्नि में आहुति किया जावे। और आप दोनों (मधुपेभिः) मधु अर्थात् उत्तम अन्न और जल को पान और उपभोग करने वाले (आसभिः) मुखों द्वारा (मध्वः) मधुर अन्न का (पिबतम्) उपभोग करो। (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर और तुम्हारा आचार्य (उषसः पूर्वम्) उषाकाल के समान, या तापकारक यौवनकाल के पूर्व ही (युवोः) तुम दोनों के (चित्रं) अति अद्भुत (घृतवन्तम्) घृतादि स्निग्ध या तेजस्वी पदार्थों से पुष्ट (रथम्) रथ के समान बने देह को (ऋताय) यज्ञ के समान पवित्र कार्य, ब्रह्मचर्य और सत्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिये (इष्यति) प्रेरित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा यानात जल व अग्नी प्रदीप्त करून ती चालविली जातात तेव्हा ती याने दुसऱ्या स्थानी ताबडतोब जातात. त्यात जल व वाफेचे ठिकाण असे असावे की वाफ निघाल्यामुळे वेगाची वृद्धी व्हावी. ही विद्या जाणणाराच चांगल्याप्रकारे सुख प्राप्त करतो. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, high-priests of truth and nature, come, the input oblations are offered. Taste the honey sweets of your achievement with your honeyed lips. The sun itself before the dawn energises your wondrous paradisal chariot for the pursuit of truth and right.

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    Subject of the mantra

    Then what should be done by them, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (aśvinā) =craftsmen who increase the splendor of knowledge, (nāsatyābhyām)=of two charioteer deities, (iva)=like, (yuvābhyām)=by both of you, (yat)=which, (haviḥ)=being offered to yajan as offering wood etc. substances, (hūyate)=yajan are performed, (tena)=that, (haviṣā)=by offering, (śodhitāni)=purified, (madhvaḥ)=to sweet qualitative water, (madhupebhiḥ)=people who drink, they, (āsabhiḥ)=from the quality of own mouth those decipher, [use]=to that, (pibatam)=must drink, [aura]=and, (asmat)=to us, (āndāya)=for providing delight, (ghṛtavantam)=much ghee [full of buttery-oily] and watery, (citram)=speed etc. with amazing qualities, (ratham)=for excursion by aircrafts etc. vehicles, (samantāt)=from all sides, (śīghram)=quick, (prāpnutam)=coming, (yuvoḥ)=of both of you, (yaḥ)=which, (rathaḥ)=chariot, (uṣasaḥ)=by down, (pūrvam)=before, (savitā)=Sun world, (iva)=like, (prakāśamānaḥ)=luminous, (iṣyati)=becomes, (saḥ)=that, (hi)=certainly, (ṛtāya) =to go through the right way, (asmābhiḥ)=by us, (gṛhītavyaḥ) =to be accepted, (bhavati)=is.

    English Translation (K.K.V.)

    O Craftsmen who increase the splendor of knowledge! Like the two charioteer deities, the firewood, etc., which are put to the yajan by both of you, those who drink the sweet water purified from that offering must drink that which separates them with the quality of own mouth, those decipher and to give delight to us. The charioteers, both of you, coming soon from all sides in aircraft to travel with the much ghee [buttery-oily] and containing water, for travelling with amazing qualities, before the dawn become luminous like the Sun. That is certainly worthy to be accepted by us for going on the right path.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    When water and fire are ignited in the vehicles, the vehicles reach to the places quickly. Make a place for the exit of water and steam in them, through which the velocity increases due to the release of the steam. Only the experts of this knowledge attain happiness in a good way.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O truthful expert artisans ! whatever fuel and oblations you put in the fire, drink the sweet and thereby purified water with lips that know the sweetness of all. Come for our delight to our pleasant dwelling place at the dawn before the rise of the sun with your wonderful chariot full of water etc. that sort of chariot or car is to be taken by us for true movement and speedy locomotion.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [इवि:] होतुं प्रक्षेप्तुं दातुम् अर्ह काष्ठादिकम् इन्धनम् । = Anything to be put in the fire like the fuel. (मध्वः) मधुर गुणयुक्तानि जलानि = Sweet waters. मधुइति उदकनामसु पठितम् (निघ १.१२) अत्र लिंगव्यत्ययेन पुंस्त्वम् वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति पूर्वसवर्णप्रतिषेधाद् यणादेशः (आसभिः) स्वकीयैः आस्यवत् छेदक गुणैः अत्रास्यस्य स्थाने पछन्मोमास (अष्ट० ६.१.६३ ) इत्यासन्नादेशः

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When fire and water are put in proper proportion and duly combined in the vehicles, they take us soon to distant places. There should be such a place for the exit of the steam, that the speed may be accelerated. He can enjoy happiness well who knows this science.

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