ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
त्रिर्नो॑ अश्विना यज॒ता दि॒वेदि॑वे॒ परि॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीम॑शायतम् । ति॒स्रो ना॑सत्या रथ्या परा॒वत॑ आ॒त्मेव॒ वातः॒ स्वस॑राणि गच्छतम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । नः॒ । अ॒स्वि॒ना॒ । य॒ज॒ता । दि॒वेऽदि॑वे । परि॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । पृ॒थि॒वीम् । अ॒शा॒य॒त॒म् । ति॒स्रः । ना॒स॒त्या॒ । र॒थ्या॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । आ॒त्माऽइ॑व । वातः॒ । स्वस॑राणि । ग॒च्छ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम् । तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः । नः । अस्विना । यजता । दिवेदिवे । परि । त्रिधातु । पृथिवीम् । अशायतम् । तिस्रः । नासत्या । रथ्या । परावतः । आत्माइव । वातः । स्वसराणि । गच्छतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्माकम् (अश्विना) जलाग्नी इव शिल्पिनौ (यजता) यष्टारौ संगन्तारौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (परि) सर्वतो भावे (त्रिधातु) सुवर्णरजतादि धातु संपादितम् (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा। पृथिवीत्यन्तरिक्षमामसु पठितम्। निघं० १।३। (अशायतम्) शयाताम्। अत्र लोडर्थे लङ्। अशयातामिति प्राप्ते ह्रस्वदीर्घयोर्व्यत्ययासः। (तिस्रः) ऊर्ध्वाधः समगतीः (नासत्या) नविद्यतेऽसत्यंययोस्तौ (रथ्या) यौ रथविमानादिकं यानं वहतस्तौ (परावतः) दूरस्थानानि। परावतः प्रेरितवतः परागताः। निरु० ११।४८। परावत इति दूरनामसु पठितम्। निघं० ३।२६। आत्मेव आत्मनः शीघ्रगमनवत् (वातः) कलाभिर्भ्रामितो वायुः (स्वसराणि) स्व-२ कर्य्यप्रापकाणिदिनानि। स्वसराणीति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (गच्छतम्) ॥७॥
अन्वयः
पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे नासत्यौ यजतौ रथ्यावश्विनाविव शिल्पिनौ युवां पृथिवीं प्राप्य त्रिः पर्य्यशयातमात्मेव वातः प्राणश्च स्वसराणि दिवे दिवे गच्छति तद्वद्गच्छतं नोऽस्माकं त्रिधातु यानं परावतो मार्गाँस्तिस्रो गतीर्गमयतम् ॥७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ऐहिकसुखमभीप्सवोजना यथा जीवोऽन्तरिक्षादिमार्गैः सद्यः शरीरान्तरं गच्छति यथा च वायुः सद्यो गच्छति तथैव पृथिव्यादिविकारैः कलायन्त्रयुक्तानि यानानि रचयित्वा तत्र जलाग्न्यादीन् संप्रयोज्याभीष्टान् दूरदेशान् सद्यः प्राप्नुयुः। नैतेन कर्मणा विना सांसारिकं सुखं भवितुमर्हति ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे (नासत्या) असत्य व्यवहार रहित (यजता) मेल करने तथा (रथ्या) विमानादि यानों को प्राप्त करानेवाले (अश्विना) जल और अग्नि के समान कारीगर लोगो ! तुम दोनों (पृथिवी) भूमि वा अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर (त्रिः) तीन बार (पर्य्यशायतम्) शयन करो (आत्मेव्) जैसे जीवात्मा के समान (वातः) प्राण (स्वसराणि) अपने कार्य्यों में प्रवृत्त करनेवाले दिनों को नित्य-२ प्राप्त होते हैं वैसे (गच्छतम्) देशान्तरों को प्राप्त हुआ करो और जो (नः) हम लोगों के (त्रिधातु) सोना चांदी आदि धातुओं से बनाये हुए यान (परावतः) दूरस्थानों को (तिस्रः) ऊंची नीची और सम चाल चलते हुए मनुष्यादि प्राणियों को पहुंचाते हैं उनको कार्यसिद्धि के अर्थ हम लोगों के लिये बनाओ ॥७॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। संसारसुख की इच्छा करनेवाले पुरुष जैसे जीव अन्तरिक्ष आदि मार्गों से दूसरे शरीरों को शीघ्र प्राप्त होता और जैसे वायु शीघ्र चलता है वैसे ही पृथिव्यादि विकारों से कलायन्त्र युक्त यानों को रच और उनमें अग्नि जल आदि का अच्छे प्रकार प्रयोग करके चाहे हुए दूर देशों को शीघ्र पहुंचा करें इस काम के विना संसारसुख होने को योग्य नहीं है ॥७॥
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे नासत्यौ यजतौ रथ्यौ अश्विनौ इव शिल्पिनौ युवां पृथिवीं प्राप्य त्रिः परि अशायतम् आत्मा इव वातः प्राणः च स्वसराणि दिवे दिवे गच्छति तत् वत् गच्छतं नः अस्माकं त्रिधातु यानं परावतः मार्गाः तिस्रः गतीः गमयतम् ॥७॥
पदार्थ
हे (नासत्यौ) नविद्यतेऽसत्यंययोस्तौ=असत्य व्यवहार रहित, (यजता-√यज्) यष्टारौ संगन्तारौ=संगति करनेवाले, (रथ्यौ) यौ रथविमानादिकं यानं वहतस्तौ(√वह्)= विमानादि यानों को प्राप्त करानेवाले, (अश्विना) जलाग्नी इव शिल्पिनौ=जल और अग्नि के समान शिल्पियों, (युवाम्)=तुम दोनों, (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा=भूमि वा अन्तरिक्ष को, (प्राप्य)=प्राप्त होकर, (त्रिः) त्रिवारम्=तीन बार, (परि) सर्वतो भावे=हर ओर, (अशायतम्) शयाताम्=शयन करो, (आत्मा)=जीवात्मा के, (इव)=समान, (वातः) कलाभिर्भ्रामितो वायुः=कलाभिः भामितः वायुः=गले से उग्र (क्रोधित) वायु=गले से तीव्रता से निकलता हुआ, (प्राणः)= प्राण वायु, (च)=भी, (स्वसराणि) स्व-स्व कार्य्यप्रापकाणिदिनानि=अपने-अपने कार्य्यों में प्रवृत्त करनेवाले दिनों में, (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्=प्रतिदिन (सदैव), (गच्छति)=जाता है, (तत्)=उसके, (वत्)=समान, (गच्छतम्)=जाते हुए, (नः) अस्माकम्=हम, (त्रिधातु) सुवर्णरजतादि धातु संपादितम्=सोना चांदी आदि धातुओं से बनाये हुए, (यानम्)=यान को, (परावतः) दूरस्थानानि=दूर स्थित स्थान के, (मार्गाः)=मार्ग से, (तिस्रः) ऊर्ध्वाधः समगतीः=ऊंचे-नीचे समान गति से (गतीः)=चलते हुए. (गमयतम्)=जाएं ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। संसारसुख की इच्छा करनेवाले पुरुष जैसे जीव अन्तरिक्ष आदि मार्गों से दूसरे शरीरों को शीघ्र प्राप्त होता और जैसे वायु शीघ्र चलता है वैसे ही पृथिवी आदि विकारों से कलायन्त्र युक्त यानों को रच और उनमें अग्नि जल आदि का अच्छे प्रकार प्रयोग करके चाहे हुए दूर देशों को शीघ्र पहुंचा करें। इस काम के विना संसारसुख होने को योग्य नहीं है ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (नासत्यौ) असत्य व्यवहार रहित (यजता) संगति करनेवाले, (रथ्यौ) विमानादि यानों को प्राप्त करानेवाले (युवाम्) तुम दोनों (अश्विना) जल और अग्नि के समान शिल्पियों (पृथिवीम्) भूमि या अन्तरिक्ष में (प्राप्य) पहुँच कर (त्रिः) तीन बार (परि) हर ओर (अशायतम्) शयन करो। (आत्मा) जीवात्मा के (इव) समान (वातः) गले से तीव्रता से निकलता हुआ (प्राणः) प्राण वायु (च) भी (स्वसराणि) अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करनेवाले दिनों में (दिवेदिवे) प्रतिदिन जाता है और (तत्) उसके (वत्) समान (गच्छतम्) जाते हुए (नः) हम (त्रिधातु) सोना चांदी आदि धातुओं से बनाये हुए (यानम्) यान को (परावतः) दूर स्थित स्थान के (मार्गाः) मार्ग से (तिस्रः) ऊंचे-नीचे समान गति से (गतीः) चलते हुए (गमयतम्) जाएं ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्माकम् (अश्विना) जलाग्नी इव शिल्पिनौ (यजता) यष्टारौ संगन्तारौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (परि) सर्वतो भावे (त्रिधातु) सुवर्णरजतादि धातु संपादितम् (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा। पृथिवीत्यन्तरिक्षमामसु पठितम्। निघं० १।३। (अशायतम्) शयाताम्। अत्र लोडर्थे लङ्। अशयातामिति प्राप्ते ह्रस्वदीर्घयोर्व्यत्ययासः। (तिस्रः) ऊर्ध्वाधः समगतीः (नासत्या) नविद्यतेऽसत्यंययोस्तौ (रथ्या) यौ रथविमानादिकं यानं वहतस्तौ (परावतः) दूरस्थानानि। परावतः प्रेरितवतः परागताः। निरु० ११।४८। परावत इति दूरनामसु पठितम्। निघं० ३।२६। आत्मेव आत्मनः शीघ्रगमनवत् (वातः) कलाभिर्भ्रामितो वायुः (स्वसराणि) स्व-स्व कर्य्यप्रापकाणिदिनानि। स्वसराणीति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (गच्छतम्) ॥७॥
विषयः- पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे नासत्यौ यजतौ रथ्यावश्विनाविव शिल्पिनौ युवां पृथिवीं प्राप्य त्रिः पर्य्यशयातमात्मेव वातः प्राणश्च स्वसराणि दिवे दिवे गच्छति तद्वद्गच्छतं नोऽस्माकं त्रिधातु यानं परावतो मार्गाँस्तिस्रो गतीर्गमयतम् ॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ऐहिकसुखमभीप्सवोजना यथा जीवोऽन्तरिक्षादिमार्गैः सद्यः शरीरान्तरं गच्छति यथा च वायुः सद्यो गच्छति तथैव पृथिव्यादिविकारैः कलायन्त्रयुक्तानि यानानि रचयित्वा तत्र जलाग्न्यादीन् संप्रयोज्याभीष्टान् दूरदेशान् सद्यः प्राप्नुयुः। नैतेन कर्मणा विना सांसारिकं सुखं भवितुमर्हति ॥७॥
विषय
इडा, पिंगला व सुषुम्णा में प्राण - विचरण
पदार्थ
१. हे (यजता) - आदरणीय व संगतिकरण योग्य (अश्विना) - प्राणापानो ! आप (नः) - हमें (दिवे - दिवे) - प्रतिदिन (त्रिधातु) - 'वात, पित्त व कफ' इन तीनों से धारण किये गये (पृथिवीम्) - इस पार्थिव शरीर में (त्रिः) - तीन बार, तीन प्रकार से (परि अशायतम्) - व्यापक निवास करनेवाले होओ । जागरित अवस्था में जैसे हम 'स्थूलशरीर' में निवास करते हैं और स्वप्नावस्था में 'सूक्ष्मशरीर' में रह रहे होते हैं, उसी प्रकार प्रतिदिन सुषुप्ति में 'कारणशरीर' में निवास करनेवाले हों । यदि हम स्थूल व सूक्ष्म शरीर में ही रह जाते हैं तो हमारा यहाँ निवास अधूरा ही होता है । प्राणापानों की कृपा से हमारा यह निवास पूर्ण हो और हम इस शरीर में तीन प्रकार से, न कि दो ही रूपों में, निवास करनेवाले हों, स्थूलशरीर में हम "वैश्वानर" सब मनुष्यों के लिए हितकर कर्मों में ही प्रवृत्त हों, सूक्ष्मशरीर में [इन्द्रिय, प्राण, मन व बुद्धि में] हम 'तेजस्' - तेजस्विता को लिये हुए हों और कारणशरीर में हम "प्राज्ञ" सर्वोत्कृष्ट बुद्धि का सम्पादन करें । हे ! (रथ्या) - शरीररूप रथ को उत्तम बनानेवाले (नासत्या) - कभी भी असत्य को न आने देनेवाले प्राणापानो ! आप (परावतः) - सुदूर स्थानों में स्थित नाड़ियों से, अर्थात् शरीर के कोने - कोने में स्थित नाड़ियों में विचरण करते हुए आप उन नाड़ियों से (तिस्त्रः) - इडा, पिंगला व सुषम्णा इन नाड़ियों को उसी प्रकार (गच्छतम्) - प्राप्त होओ (इव) - जिस प्रकार (वातः) - निरन्तर गतिशील आत्मा - शरीर का स्वामी (स्वसराणि) - स्व के, आत्मा के सरण - स्थानभूत शरीरों को प्राप्त होता है । ये शरीर स्व - सर है - आत्मा इनके अन्दर विचरण करता है । आत्मा जैसे इन शरीरों में विचरण करता है उसी प्रकार प्राणापान, इडा, पिंगला व सुषुम्णा इन नाड़ियों में विचरण करें । वस्तुतः योग - मार्ग में प्रगति हो जाने पर हम प्राणों को इन नाड़ियों में स्थापित कर पाते हैं और उसी समय हमारे ये शरीर स्व - सर - आत्मा की ओर सरण करनेवाले होते हैं । ये शरीर उस समय भोग - मार्ग से दूर हो जाते हैं एवं प्राणापान की साधना हमें भोग से ऊपर उठाकर प्रभु - प्रवण करती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान की कृपा से हमारा निवास पूर्ण हो, हम भोगों से ऊपर उठकर प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाले बनें । वैश्वानर हों, तैजस हों तथा प्राज्ञ बनें ।
विषय
प्रथम विवाहित स्त्री पुरुषों का प्रथम तीन रात्रि ब्रह्मचर्य पालन ।
भावार्थ
हे (अश्विना) जल और अग्नि के समान शान्ति और तेज से युक्त स्त्री पुरुषो! (यजता) यज्ञ करनेवाले, परस्पर संगत हुए हुए आप दोनों (दिवेदिवे) प्रतिदिन (त्रिधातु) तीन धातुओं से बने शरीर को (पृथिवीम) पृथ्वी पर ब्रह्मचारी रहकर (त्रिः) तीनवार, या तीन दिनोंतक (अशायतम्) शयन करो। हे (नासत्या) कभी असत्य आचरण न करने वाले तुम दोनो! (आत्मा इव) आत्मा जिस प्रकार एक देह से अन्य देहों में और (वातः) वायु जिस प्रकार एक स्थान से अन्य स्थानों में स्वयं चला जाता है उसी प्रकार (परावतः) दूर दूर तक के देशों को (रख्या) रथ पर चढ़कर (तिस्रः) तीनों लोक अर्थात् उच्च, नीच और सम, अथवा जल, पर्वत और स्थल, तीनों प्रकार के भूमि-भागों में (स्वसराणि) दिन रात स्वयं चलने वाले यानों द्वारा (गच्छतम्) आओ। अथवा (स्व-सराणि) यान आदि रथ सब दिन चलाओ। स्त्री पुरुषों के प्रथम तीन रात्रि व्रतपूर्वक भूमि शयन की विधि गृह्यसूत्रों में देखो।
टिप्पणी
अक्षारलवणाशिनौ ब्रह्मचारिणावधःशायिनौ स्याताम्। अत ऊर्ध्वं त्रिरात्रं द्वादशरात्रं। संवत्सरं वा। आश्व० गृ० सू० अ० ९ । १०-१२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. संसार सुखाची इच्छा करणाऱ्या पुरुषांनी जसा जीव अंतरिक्ष इत्यादी मार्गांनी दुसऱ्या शरीरांना तात्काळ प्राप्त करतो व जसा वायू तात्काळ वाहतो तसे पृथ्वीच्या विकाराने कलायंत्रयुक्त याने तयार करून त्यात अग्नी, जल इत्यादींचा चांगल्या प्रकारे उपयोग करून इच्छित स्थानी लवकर पोहोचावे. या कामाशिवाय संसारसुख मिळत नाही. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, expert powers of science and technology, truthful, devoted to yajna and working together like fire and water, and masters of the three- metal chariot, day by day go round the earth and sky thrice for us and then come to sleep on the earth. Just as the soul goes from one body to another, as winds blow from one place to another, so by the threefold, three way, three speed chariot, move from one chariot to another and go to the destinations of your choice.
Subject of the mantra
Then, what kind of they are? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (nāsatyau)=free from untruthful conduct, (yajatā)=those accompanying, (rathyau)=those getting obtained crafts etc. (aśvinā)=craftsman like water and fire, (yuvām)=both of you, (pṛthivīm)=to land or space, (prāpya)=having reached, (triḥ)=thrice, (pari)=on each side, (aśāyatam)=sleep, (ātmā)=of soul, (iva)=like, (vātaḥ)=exhaling speedily through throat, (prāṇaḥ)=life breath, (ca)=also, (svasarāṇi)=in the days leading to their respective actions, (divedive)=goes every day, [aura]=and, (tat)=him, (vat)=like (gacchatam)=going, (naḥ)=we, (tridhātu)=made of metals like gold, silver, etc. (yānam)=to vehicle, (parāvataḥ)=of a faraway place, (mārgāḥ)=by way, (tisraḥ)=up and down at the same speed, (gatīḥ)=walking through, (gamayatam)=go.
English Translation (K.K.V.)
O those who have company without untruthful conduct! Those getting obtained crafts et cetera like water and fire, both of you having reached the land or space, sleep three times on each side. Like the soul, the life breath too, coming out of the throat exhaling speedily in the days leading to their respective actions goes daily and while going like him, let us move the vehicle made of metals like gold, silver etc., moving up and down the path of a distant place, moving at the same speed .
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile in this mantra. Like a person desiring worldly happiness, other bodies can be attained quickly by the paths of space, etc. and as the wind moves quickly, in the same way, by making good use of fire, water etc. in the earth etc. make it reach. Without this work the world is not worthy of delights.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O absolutely truthful respectable artisans who are like the fire and water useful for vehicles, go round the world and go to the firmament and then rest thrice. (Three times more than usual on account of exhaustion). As the soul goes to the middle region before taking another body or as the vital air is fast moving as we see every day, so you should also be active and take our aero plane and other speedy vehicles made of gold, silver and other metals to distant places, with high, low and middle speed as is required.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अश्विना ) जलाग्नी इव शिल्पिनौ = Artisans like the water and fire. त्रिधातु सुवर्णरजतादिधातुसम्पादितम् = A vehicle made of gold, silver and other metals. (नासत्यौ) न विद्यतेऽसत्यं ययोः = Absolutely truthful( स्वसराणि) स्वस्वकार्यमाप्रापकाणि दिनानि = The days which lead us to our actions. स्वसराणीति पदनामसु पंठितम् ( निघ० ४.२ ) अनेन माप्त्यर्थो गृहयते ||
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. Those who desire worldly happiness, should construct vehicles with parts of the earth and other elements and mechanical devices and by the proper use and combination of the water and fire should go soon to distant countries, as the soul soon goes to another body by the path of the firmament after death. None can enjoy worldly happiness without this act.
Translator's Notes
Though Rishi Dayananda has explained स्वसराणि as स्वस्वकार्य प्रापकाणि दिनानि and quoted only from the Nighantu 4.5 it can very well be quoted from the Nighantu 1.9 where it is clearly stated स्वसरणीति अहर्नाम ( निघ० १०१ ) = Svasarani – Days. When in the Nighantu 5.6 अश्विनौ is पदनाम पद गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च ॥ by taking the 2nd and third meaning the word can very well be used for a water and fire, proper combination of which enables a man to have speedy locomotion, in the form of steam.
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