ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 12
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ नो॑ अश्विना त्रि॒वृता॒ रथे॑ना॒र्वाञ्चं॑ र॒यिं व॑हतं सु॒वीर॑म् । शृ॒ण्वन्ता॑ वा॒मव॑से जोहवीमि वृ॒धे च॑ नो भवतं॒ वाज॑सातौ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । त्रि॒ऽवृता॑ । रथे॑न । अ॒र्वाञ्च॑म् । र॒यिम् । व॒ह॒त॒म् । सु॒ऽवीर॑म् । शृ॒ण्वन्ता॑ । वा॒म् । अव॑से । जो॒ह॒वी॒मि॒ । वृ॒धे । च॒ । नः॒ । भ॒व॒त॒म् । वाज॑ऽसातौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो अश्विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम् । शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । अश्विना । त्रिवृता । रथेन । अर्वाञ्चम् । रयिम् । वहतम् । सुवीरम् । शृण्वन्ता । वाम् । अवसे । जोहवीमि । वृधे । च । नः । भवतम् । वाजसातौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (अश्विना) जलपवनौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (त्रिवृता) यस्त्रिषु स्थलजलान्तरिक्षेषु पूर्णगत्या गमनाय वर्त्तते तेन (रथेन) विमानादियानस्वरूपेण रमणसाधनेन (अर्वांचम्) अर्वागुपरिष्टादधस्थं स्थानमभीष्टं वांऽचति येन तम् (रयिम्) चक्रवर्त्तिराज्यसिद्धं धनम् (वहतम्) प्राप्नुतः। अत्र लङर्थे लोट्। (सुवीरम्) शोभनां वीरा यस्य तम् (शृण्वन्ता) शृण्वन्तौ (वाम्) युवयोः (अवसे) रक्षणाय सुखावगमाय विद्यायां प्रवेशाय वा (जोहवीमि) पुनः पुनराददामि (वृधे) वर्द्धनाय। अत्र कृतो बहुलम् इति भावे क्विप्। (च) समुच्चये (नः) अस्मान् (भवतम्) भवतः। अत्र लडर्थे लोट्। (वाजसातौ) सङ्ग्रामे ॥१२॥
अन्वयः
पुनरेताभ्यां किं साधनीयमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे शिल्पविद्याविचक्षणौ शृण्वन्ता भावयितारावश्विनौ युवां द्यावापृथिव्यादिकौ द्वाविव त्रिवृता रथेननोस्मानर्वांचं सुवीरं रयिमावहतं प्राप्नुतम् नोऽस्माकं वाजसातौ वृधे वर्द्धनाय च विजयिनौ भवतं यथाहं वामवसे जोहवीमि पुनः पुनराददामि तथा मां गृह्णीतम् ॥१२॥
भावार्थः
नैतदश्विसंप्रयोजित रथेन विना कश्चित् स्थलजलान्त रिक्षमार्गान् सुखेन सद्यो गन्तुं शक्नोत्यतो राज्यश्रियमुत्तमां सेनां वीरपुरुषाँश्च संप्राप्येदृशेन यानेन युद्धे विजयं प्राप्तुं शक्नुवंति तस्मादेतस्मिन् मनुष्याः सदा युक्ता भवंत्विति ॥१२॥ पूर्वेण सूक्तेनैतद्विद्यासाधकेन्द्रोर्थः प्रतिपादितोऽनेन सूक्तेन ह्येतस्या विद्याया मुख्यौ साधकावश्विनौ द्यावापृथिव्यादिकौ च प्रतिपादितौ स्त इत्येतदर्थस्य पूर्वार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। इति पञ्चमो वर्गश्चतुस्त्रिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर इनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे कारीगरी में चतुरजनो (शृण्वन्ता) श्रवण करानेवाले (अश्विना) दृढ विद्या बल युक्त ! आप दोनों जल और पवन के समान (त्रिवृता) तीन अर्थात् स्थल जल और अन्तरिक्ष में पूर्णगति से जानेके लिये वर्त्तमान (रथेन) विमान आदि यान से (नः) हम लोगों को (अर्वाञ्चम्) ऊपर से नीचे अभीष्ट स्थान को प्राप्त होनेवाले (सुवीरम्) उत्तम वीर युक्त (रयिम्) चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध हुए धन को (आवहतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होके पहुंचाइये (च) और (नः) हम लोगों के (वाजसातौ) सङ्ग्राम में (वृधे) वृद्धि के अर्थ विजय को प्राप्त करानेवाले (भवतम्) हूजिये जैसे मैं (अवसे) रक्षादि के लिये तुम्हारा (जोहवीमि) वारंवार ग्रहण करता हूँ वैसे आप मुझको ग्रहण कीजिये ॥१२॥
भावार्थ
जल अग्नि से प्रयुक्त किये हुए रथ के विना कोई मनुष्य स्थल जल और अन्तरिक्षमार्गों में शीघ्र जानेको समर्थ नहीं हो सकता। इससे राज्यश्री, उत्तम सेना, और वीर पुरुषों को प्राप्त होके ऐसे विमानादि यानों से युद्ध में विजय को पा सकते हैं। इस कारण इस विद्या में मनुष्य सदा युक्त हों ॥१२॥ पूर्व सूक्त से इस विद्या के सिद्ध करनेवाले इन्द्र शब्द के अर्थ का प्रतिपादन किया तथा इस सूक्त से इस विद्या के साधक अश्वि अर्थात् द्यावा पृथिवी आदि अर्थ प्रतिपादन किये हैं इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये। यह पांचवां वर्ग और चौतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३४॥
विषय
फिर इनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शिल्पविद्याविचक्षणौ शृण्वन्ता श्रावयितारावश्विनौ अश्विनौ युवां द्यावापृथिवी आदिकौ द्वाविव त्रिवृता रथेन नः अस्मान् अर्वांचं सुवीरं रयिम् आवहतम् प्राप्नुतम् नःअस्माकं वाजसातौ वृधे वर्द्धनाय च विजयिनौ भवतं यथा अहं वाम् अवसे जोहवीमि पुनः पुनरात् अदामि तथा मां गृह्णीतम् ॥१२॥
पदार्थ
हे (शिल्पविद्याविचक्षणौ)=कारीगरी में बुद्धिमान्, (शृण्वन्ता) शृण्वन्तौ=श्रवण करने वाले, (अश्विनौ) जलपवनौ=जल और पवन, (युवाम्)=तुम दोनों, (द्यावापृथिवी)=आकाश और पृथिवी, (आदिकौ)=आदि, (द्वाविव)=दोनों ही, (त्रिवृता) यस्त्रिषु स्थलजलान्तरिक्षेषु पूर्णगत्या गमनाय वर्त्तते तेन=तीन अर्थात् स्थल, जल और अन्तरिक्ष में पूर्णगति से जाने के लिये वर्त्तमान, (रथेन) विमानादियानस्वरूपेण रमणसाधनेन= विमान आदि यान रमण के साधन से, (नः) अस्मान्=हमें, (अर्वांचम्) अर्वागुपरिष्टादधस्थं स्थानमभीष्टं वांऽचति येन तम्=ऊपर से नीचे अभीष्ट स्थान को प्राप्त होनेवाले, (सुवीरम्) शोभनां वीरा यस्य तम्=उस शोभन वीर को, (रयिम्) चक्रवर्त्तिराज्यसिद्धं धनम्=चक्रवर्त्ति राज्य धन की सिद्धि को, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वहतम्) प्राप्नुतः=प्राप्त करते हुए, (नः) अस्माकम्=हमको, (वाजसातौ) सङ्ग्रामे=सङ्ग्राम में, (वृधे) वर्द्धनाय=वृद्धि के लिये, (च)=भी, (विजयिनौ)=विजय को प्राप्त करानेवालों को, (भवतम्) भवतः=आपको, (यथा)=जैसे, (अहम्)=मैं, (वाम्)=तुम दोनों को, (अवसे) रक्षणाय सुखावगमाय विद्यायां प्रवेशाय वा=रक्षा के लिये सुख की प्राप्ति और विद्या में प्रवेश के लिये, (जोहवीमि) पुनः पुनराददामि=मैं बार-बार हर ओर से देता हूँ, (तथा)=वैसे ही, (माम्)=मुझको, (गृह्णीतम्)=ग्रहण कीजिये ॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जल अग्नि से प्रयुक्त किये हुए रथ के विना कोई मनुष्य स्थल जल और अन्तरिक्ष मार्गों में शीघ्र जाने में समर्थ नहीं हो सकता है। इससे राज्यश्री, उत्तम सेना, और वीर पुरुषों को प्राप्त हो के ऐसे विमान आदि यानों से युद्ध में विजय को पा सकते हैं। इस कारण इस विद्या में मनुष्य सदा युक्त हों॥१२॥
विशेष
सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद- पूर्व सूक्त से इस विद्या के सिद्ध करनेवाले इन्द्र शब्द के अर्थ का प्रतिपादन किया तथा इस सूक्त से इस विद्या के साधक अश्वि अर्थात् द्यावा पृथिवी आदि अर्थ प्रतिपादन किये हैं इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥३४॥
अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है ॥३४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (शिल्पविद्याविचक्षणौ) कारीगरी में बुद्धिमान् (शृण्वन्ता) श्रवण करने वाले (अश्विनौ) जल और पवन (युवाम्) तुम दोनों (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी (आदिकौ) आदि (द्वाविव) दोनों ही (त्रिवृता) तीन स्थानों अर्थात् स्थल जल और अन्तरिक्ष में पूर्णगति से जाने के लिये उपलब्ध (रथेन) विमान आदि यान रमण के साधन से (नः) हमें (अर्वांचम्) ऊपर से नीचे अभीष्ट स्थान को पहुँचनेवाले (सुवीरम्) उस शोभन वीर को (रयिम्) चक्रवर्त्ति राज्य और धन की सिद्धि के लिए, (आ) हर ओर से (वहतम्) प्राप्त करते हुए (नः) हमको (वाजसातौ) सङ्ग्राम में (वृधे) वृद्धि के लिये (च) भी (विजयिनौ) विजय को प्राप्त करानेवाले (भवतम्) आपको (यथा) जैसे (अहम्) मैं (वाम्) तुम दोनों को (अवसे) रक्षा के लिये, सुख की प्राप्ति और विद्या में प्रवेश के लिये (जोहवीमि) मैं बार-बार हर ओर से देता हूँ। (तथा) वैसे ही (माम्) मुझको (गृह्णीतम्) ग्रहण कीजिये ॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (अश्विना) जलपवनौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (त्रिवृता) यस्त्रिषु स्थलजलान्तरिक्षेषु पूर्णगत्या गमनाय वर्त्तते तेन (रथेन) विमानादियानस्वरूपेण रमणसाधनेन (अर्वांचम्) अर्वागुपरिष्टादधस्थं स्थानमभीष्टं वांऽचति येन तम् (रयिम्) चक्रवर्त्तिराज्यसिद्धं धनम् (वहतम्) प्राप्नुतः। अत्र लङर्थे लोट्। (सुवीरम्) शोभनां वीरा यस्य तम् (शृण्वन्ता) शृण्वन्तौ (वाम्) युवयोः (अवसे) रक्षणाय सुखावगमाय विद्यायां प्रवेशाय वा (जोहवीमि) पुनः पुनराददामि (वृधे) वर्द्धनाय। अत्र कृतो बहुलम् इति भावे क्विप्। (च) समुच्चये (नः) अस्मान् (भवतम्) भवतः। अत्र लडर्थे लोट्। (वाजसातौ) सङ्ग्रामे ॥१२॥
विषयः- पुनरेताभ्यां किं साधनीयमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे शिल्पविद्याविचक्षणौ शृण्वन्ता श्रावयितारावश्विनौ युवां द्यावापृथिव्यादिकौ द्वाविव त्रिवृता रथेननोस्मानर्वांचं सुवीरं रयिमावहतं प्राप्नुतम् नोऽस्माकं वाजसातौ वृधे वर्द्धनाय च विजयिनौ भवतं यथाहं वामवसे जोहवीमि पुनः पुनराददामि तथा मां गृह्णीतम् ॥१२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- नैतदश्विसंप्रयोजित रथेन विना कश्चित् स्थलजलान्त रिक्षमार्गान् सुखेन सद्यो गन्तुं शक्नोत्यतो राज्यश्रियमुत्तमां सेनां वीरपुरुषाँश्च संप्राप्येदृशेन यानेन युद्धे विजयं प्राप्तुं शक्नुवंति तस्मादेतस्मिन् मनुष्याः सदा युक्ता भवंत्विति ॥१२॥
सूक्तस्य भावार्थः- पूर्वेण सूक्तेनैतद्विद्यासाधकेन्द्रोर्थः प्रतिपादितोऽनेन सूक्तेन ह्येतस्या विद्याया मुख्यौ साधकावश्विनौ द्यावापृथिव्यादिकौ च प्रतिपादितौ स्त इत्येतदर्थस्य पूर्वार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। इति पञ्चमो वर्गश्चतुस्त्रिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३४॥
विषय
संग्राम - विजय
पदार्थ
१. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! आप (त्रिवृता) - 'धर्म, अर्थ व काम' तीनों के वर्तन के लिए - दिये गये (रथेन) - शरीररूप रथ से (सुवीरम्) - उत्तम वीरता से युक्त (रयिम्) - धन को (अर्वाञ्चम्) - 'अस्मदभिमुखं' हमारे सामने (आवहतम्) - प्राप्त कराइए, अर्थात् इस प्राणसाधना से हमारा शरीररूप रथ "धर्म, अर्थ व काम" का समरूप से सेवन करनेवाला हो । हमें वीरतायुक्त धन प्राप्त हो ।
२. (शृण्वन्ता) - हमारी प्रार्थना को सुननेवाले (वाम्) - आप दोनों को (अवसे) - अपने रक्षण के लिये (जोहवीमि) - पुकारता हूँ । प्राणापान से केवल स्थूल शरीर के रोग ही दूर नहीं होते, मन के अशुभ भाव भी नष्ट हो जाते हैं और मस्तिष्क के अशुभ विचार भी दूर हो जाते हैं तथा हमारा पूर्ण रक्षण हो पाता है ।
३. हे प्राणापानो ! आप (वाजसातौ) - संग्राम में (नः) - हमारे (वृधे) - वर्धन के लिए (भवतम्) - होओ, अर्थात् संग्राम में हम कभी पराजित न हों । अध्यात्मसंग्राम में विजयी होकर हम उन्नत और अधिक उन्नत होते चलें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम धर्म - अर्थ - काम में समरूप से प्रवृत्त होते हैं, हम वीर बनते हैं, उत्तम ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं और अध्यात्मसंग्राम में सदा विजयी होते हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष—इस सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार होता है कि प्राणसाधना से ज्ञान, शक्ति व उदारता प्राप्त होती है [१] । जीवन में माधुर्य व शरीर में कान्ति होती है [२] । इन्द्रियों, मन व बुद्धि के दोष दूर होते हैं [३] । हमें 'स्वास्थ्य, सत्य व स्वाध्याय' की समृद्धि प्राप्त होती है [४] । इस सौभाग्य को प्राप्त होकर सूर्यसमकान्तिवाले बनते हैं [५] । हमें मानस शान्ति के साथ शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है [६] । हम 'वैश्वानर, तैजस व प्राज्ञ बनते हैं [७] । हमारा जीवन प्रकाशमय स्वर्ग - सदृश बन जाता है [८] । इस शरीररूप रथ में हमारा प्रभु से मेल होता है [९] । हमारा यह शरीर सदा यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहता है [१०] । तेंतीस देवों का प्रादुर्भाव होता है [११] । हम जीवन - संग्राम में विजयी होते हैं [१२] । इस विजय के लिए ही हम प्रभु को पुकारते हैं -
विषय
स्त्री पुरुषों को उत्तम जल, अन्न, दीर्घ जीवन ऐश्वर्य प्राप्ति आदि का उपदेश
भावार्थ
हे (अश्विना) नाना सुखों के भोगने हारे, एक दूसरे में हृदय से व्याप्त स्त्री पुरुषो! आप दोनों (नः) हमारे बीच में (त्रिवृता रथेन) त्रिचक्र रथ के समान मन, वाणी और प्राण तीन बल से चलने वाले, रमण साधन, रथ रूप देह से (सुवीरं रयिम्) उत्तम वीरों से युक्त ऐश्वर्य के समान उत्तम प्राणों से युक्त वीर्य को (वहतं) धारण करो। (शृण्वन्तौ) नाना विद्याओं का श्रवण करते हुए (वाम्) तुम दोनों को मैं, आचार्य (अवसे) ज्ञान की वृद्धि के लिये (जोवहीमि) उपदेश करता हूं। तुम दोनों (नः) हम लोगों के बीच (वाजसातौ) ज्ञानप्राप्ति, बल-प्राप्ति और ऐश्वर्य प्राप्ति के कार्य में, सन्तानों और शुभ कार्यों द्वारा (नः वृधे) हमें बढ़ाने के लिये (भवतम्) सदा तत्पर रहो। इति पञ्चमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जल व अग्नी यांनी प्रयुक्त केलेल्या रथाशिवाय (वाहनाशिवाय) कोणताही माणूस स्थल, जल व अंतरिक्ष मार्गात शीघ्रतेने जाण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. त्यामुळे राज्यश्री, उत्तम सेना व वीर पुरुष यांनी युक्त होऊन यानाद्वारे युद्धात विजय प्राप्त केला जाऊ शकतो. त्यासाठी या विद्येत माणसांनी सदैव युक्त असावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, high-priests of nature, science and technology, come by the multipurpose chariot across the land, over the sea and through the skies, and bring us wealth and honour worthy of the brave this side of the horizon. Listeners as you are, I call upon you for protection and promotion. Be favourable to us for advancement and victory in the battles of life.
Subject of the mantra
Then what should be accomplished by these? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śilpavidyāvicakṣaṇau) =intelligent in workmanship, (śṛṇvantā)=listeners, (aśvinau)=water and wind, (yuvām)=both of you, (dyāvāpṛthivī)=space and earth, (ādikau)=et cetera, (dvāviva)=both, (trivṛtā)=available to move at full speed in three places i.e. land, water and space, (rathena)=by aircraft etc. means of travelling, (naḥ)=to us, (arvāṃcam)=from top to bottom arriving to desired place, (suvīram)=to that graceful hero, (rayim)=and to the accomplishment of Chakravarti kingdom and wealth, (ā)=from all sides, (vahatam)=while receiving, (naḥ)=to us, (vājasātau)=in the battle, (vṛdhe)=to increase, (ca) aura (vijayinau) vijaya ko prāpta karānevāle (bhavatam)=to you, (yathā)=as, (aham)=I (vām) to both of you, (avase)=for protection, for attainment of happiness and for introduction to learning, (johavīmi) =I give from all over again and again, (tathā)=in the same way, (mām)=to me, (gṛhṇītam)=take it.
English Translation (K.K.V.)
O intelligent in workmanship listeners! Water and air both of you, sky and earth et cetera only, for the accomplishment of Chakravarti kingdom and wealth to that graceful hero who reaches the desired place from top to bottom by means of travelling et cetera through aircrafts et cetera are available to move at full speed in three places i.e. land, water and space; received from all sides. You who make us victorious even for the growth of the war, just as I give you both from all sides for protection, for attainment of happiness and for entry into knowledge. In the same way accept me.
Footnote
Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- From the previous hymn, the meaning of the word Indra, who accomplishes this knowledge, has been rendered and from this hymn, the seekers of this knowledge have rendered the meaning of Ashvi i.e. heaven and earth. TRANSLATOR’S COMMENTS-The kingdom of Chakravarti has been explained in mantra number (01.04.07) of Rigveda.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without a chariot used by water and fire, no man can be able to move quickly on land, water and space routes. With this, Rajyashree, the best army, and brave men can get victory in the war with such aircraft etc. For this reason, human beings should always be engaged in this knowledge.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O expert artisans! You who are united like the heaven and the earth or water and fire and who listen to our requests, borne in your car or chariot traverse on the earth, the water and the middle region, bring to us present prosperity of vast Government with noble off-spring. I call upon you, listening to me for protection, Knowledge with ease and entry into wisdom. Please accede to my prayer.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अविना ) जलपवनौ । अत्र सर्वत्र सुपां सुलुक इत्याकारादेशः = The water and fire. (त्रिवृता ) यः त्रिषु स्थलजलान्तरिक्षेषु पूर्णगत्या गमनाय वर्तते तेन = That can traverse speedily on the earth, in the water and in the firmament. (रथेन) विमानादियानस्वरूपेण रमणसाधनेन = By any means of delight like the aero plane. (अवसे) रक्षणाय, सुखेनावगमाय, विद्यायां प्रवेशाय वा = For protection, for easy learning and entry into wisdom. ( जोहवीमि) पुनः पुनः आददामि । = I call upon you or take you in (remember). ( वाजसातौ) संग्रामे = In the battle.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No one can traverse by the paths of the earth, water and firmament without the car or vehicle prepared and yoked by expert learned artisans. Therefore men should attain prosperity of good Government, good army and brave persons and should get victory in battles using such wonderful vehicles. So men should pay attention to this important matter also.
Translator's Notes
The adjective of रथेन as त्रिवृता is very significant Rishi Dayananda has interpreted it in this hymn several times as यः त्रिषु स्थलजलान्तरिक्षेषु पूर्णगत्या गमनाय वर्तते तेन यः त्रिषु विमानादियानस्वरूपेण रमणसाधने । = That can traverse the earth, the water and the firmament. Even Sayanacharya interprets त्रिवृता रथेन as अप्रतिहतगतित्वात् त्रिषु लोकेषु वर्तमानेन रथेन । = By the vehicle which can go in all the three worlds i. e. the earth, the water and the heaven. Prof. Wilson translates it as "Borne in your car that traverses the three worlds." अवसे used in the Mantra has been interpreted by by Sayanacharya as रक्षणार्थम् But Rishi Dayananda agreeing with Sayanacharya that it is derived from अव which has 19 meanings including protection, takes it besides रक्षणाय for सुखावगमाय विद्यायां प्रवेशाय वा । अवगम (Knowledge ) and प्रवेश (entry into wisdom). जोहवीमि is from हु-दानादनयो: आदाने च so Rishi Dayananda has interpreted as पुनः पुनः आददामि = Take you again and again. In the previous hymn, Indra had been described as the accomplisher of this science and in this hymn, the heaven and earth, fire and water etc. have been mentioned as means, so it is connected with that hymn, as the same subject is continued. इति पंचमो वर्गः चतुस्त्रिंशं सूक्तं च समाप्तम् || Here ends the fifth Verga and the thirty-fourth hymn of the first Mandala of Rigveda Sanhita.
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