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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अश्विनौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    क्व १॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व १॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः । क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्व॑ । त्री । च॒क्रा । त्रि॒ऽवृतः॑ । रथ॑स्य । क्व॑ । त्रयः॑ । व॒न्धुरः॑ । ये । सऽनी॑ळाः । क॒दा । योगः॑ । वा॒जिनः॒ । रास॑भस्य । येन॑ । य॒ज्ञम् । ना॒स॒त्या॒ । उ॒प॒ऽया॒थः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्व १ त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व १ त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः । कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्व । त्री । चक्रा । त्रिवृतः । रथस्य । क्व । त्रयः । वन्धुरः । ये । सनीळाः । कदा । योगः । वाजिनः । रासभस्य । येन । यज्ञम् । नासत्या । उपयाथः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (क्व) कस्मिन् (त्री) त्रीणि (चक्रा) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि। अत्रोभयत्र शेश्छंद०। इति शेर्लोपः। (त्रिवृतः) त्रिभी रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य (रथस्य) त्रिषु भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य (क्व) (त्रयः) जलाग्निमनुष्यपदार्थस्थित्यर्थावकाशाः (बन्धुरः) बन्धनविशेषाः। सुपांसुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (ये) प्रत्यक्षाः (सनीडाः) समाना नीडा बन्धना धारा गृहविशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते (कदा) कस्मिन् काले (योगः) युज्यते यस्मिन्सः (वाजिनः) प्रशस्तो वाजो वेगोऽस्यास्तीति तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इतिः। (रासभस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (येन) रथेन (यज्ञम्) गमनयोग्यं मार्गे (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ (उपयाथः) शीघ्रमभीष्टस्थाने सामीप्यं प्रापयथः ॥९॥

    अन्वयः

    पुनस्ताभ्यां किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे नासत्यावश्विनौ शिल्पिनौ युवां येन विमानादियानेन यज्ञं संगन्तव्यं मार्गं कदोपयाथो दूरदेशस्थं स्थानं सामीप्यवत्प्रापयथः तस्य च रासभस्य वाजिनस्त्रिवृतो रथस्य मध्ये क्व त्रीणि चक्राणि कर्त्तव्यानि क्व चास्मिन् विमानादियाने ये सनीडास्त्रयो बन्धुरास्तेषां योगः कर्त्तव्य इति त्रयः प्रश्नाः ॥९॥

    भावार्थः

    अत्रोक्तानां त्रयाणां प्रश्नानामेतान्युत्तराणि वेद्यानि विभूतिकामैर्नरैरथस्यादिमध्यान्तेषु सर्वकलाबन्धनाधाराय त्रयो बन्धनविशेषाः कर्त्तव्याः। एकं मनुष्याणां स्थित्यर्थं द्वितीयमग्निस्थित्यर्थं तृतीयं जलस्थित्यर्थं च कृत्वा यदा यदा गमनेच्छा भवेत्तदा तदा यथायोग्यं काष्ठानि संस्थाप्याग्निं योजयित्वा कलायंत्रोद्भावितेन वायुना संदीप्य बाष्पवेगेन चालितेन यानेन सद्यो दूरमपि स्थानं समीपवत्प्राप्तं शक्नुयुः नहीदृशेन यानेन विना कश्चिन्निर्विघ्नतया स्थानान्तरं सद्यो गंतुं शक्नोतीति ॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उनसे क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सत्य गुण और स्वभाववाले कारीगर लोगो ! तुम दोनों (यज्ञम्) दिव्य गुण युक्त विमान आदि यान से जाने-आने योग्य मार्ग को (कदा) कब (उपयाथः) शीघ्र जैसे निकट पहुंच जावें वैसे पहुंचते हो और (येन) जिससे पहुंचते हो उस (रासभस्य) शब्द करनेवाले (वाजिनः) प्रशंसनीय वेग से युक्त (त्रिवृतः) रचन चालन आदि सामग्री से पूर्ण (रथस्य) और भूमि जल अन्तरिक्ष मार्ग में रमण करानेवाले विमान में (क्व) कहाँ (त्री) तीन (चक्रा) चक्र रचने चाहिये और इस विमानादि यान में (ये) जो (सनीडाः) बराबर बन्धनों के स्थान वा अग्नि रहने का घर (बन्धुरः) नियमपूर्वक चलाने के हेतु कोष्ठ होते हैं उनका (योगः) योग (क्व) कहाँ करना चाहिये ये तीन प्रश्न हैं ॥९॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में कहे हुए तीन प्रश्नों के ये उत्तर जानने चाहिये विभूति की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को उचित है कि रथ के आदि, मध्य और अन्त में सब कलाओं के बन्धनों के आधार के लिये तीन बंधन विशेष संपादन करें तथा तीन कला घूमने-घुमाने के लिये संपादन करें एक मनुष्यों के बैठने दूसरी अग्नि को स्थिति और तीसरी जल की स्थिति के लिये करके जब-जब चलने की इच्छा हो तब-२ यथा योग्य जलकाष्ठों को स्थापन, अग्नि को युक्त और कला के वायु से प्रदीप्त करके बाफ के वेग से चलाये हुए यान से शीघ्र दूर स्थान को भी निकट के समान जाने को समर्थ होवें। क्योंकि इस प्रकार किये विना निर्विघ्नता से स्थानान्तर को कोई मनुष्य शीघ्र नहीं जा सकता ॥९॥

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    विषय

    फिर उनसे क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे नासत्यौ अवश्विनौ शिल्पिनौ युवां येन विमानादियानेन यज्ञं संगन्तव्यंमार्गं कदा उपयाथः दूरदेशस्थं स्थानं सामीप्यवत् प्रापयथः तस्य च रासभस्य वाजिनः त्रिवृतः रथस्य मध्ये क्व त्रीणि चक्राणि कर्त्तव्यानि क्व च अस्मिन् विमानादियाने ये सनीडाः त्रयः बन्धुराः तेषां योगः कर्त्तव्य इति त्रयः प्रश्नाः ॥९॥

    पदार्थ

    हे  (नासत्यौ) सत्यगुणस्वभावौ=सत्य गुण और स्वभाववाले, (अश्विनौ)=सूर्य्याचन्द्रमसाविवि=सूर्य और वायु के समान, (शिल्पिनौ)=कारीगर लोगों !  (युवाम्)=तुम दोनों, (येन) रथेन=विमानादियाने=विमान आदि यान से, (यज्ञम्) गमनयोग्यं मार्गे=गमन योग्य, और (संगन्तव्यंमार्गं)=संगति करण योग्य मार्ग में,  (कदा) कस्मिन् काले=किसी समय में, (उपयाथः) शीघ्रमभीष्टस्थाने सामीप्यं प्रापयथः=शीघ्र अभीष्ट स्थान के निकट पहुंच जावें, (दूरदेशस्थम्)=दूरदेश स्थित, (स्थानम्)=स्थान और (सामीप्यवत्)=निकट के, (प्रापयथः)=पहुंच जावें, (च)=और, (तस्य)=उसके, (रासभस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य=जिस वेग से  शब्द करते हैं,  (वाजिनः) प्रशस्तो वाजो वेगोऽस्यास्तीति तस्य=उस  प्रशंसनीय वेग से युक्त, (त्रिवृतः) त्रिभी रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य=रचने व  चलाने आदि की सामग्री से पूर्ण,  (रथस्य) त्रिषु भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य=और भूमि, जल और अन्तरिक्ष मार्ग में रमण करानेवाले विमान के  (मध्ये)=बीच में, (क्व)=कहाँ, (त्रीणि)=तीन, (चक्राणि) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि=यान को शीघ्र ले जाने के लिये निर्मित कलाचक्र, (कर्त्तव्यानि)=बनाने चाहियें, (च)=और, (क्व)=कहाँ, (अस्मिन्)=इस,  (विमानादियाने)=विमान आदि यान में, (ये) प्रत्यक्षाः=प्रत्यक्ष,  (सनीडाः) समाना नीडा बन्धना धारा गृहविशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते=समान बन्धनों और विशेष गृह वा अग्नि के रहने के स्थान में रहने वाले, (त्रयः)=तीन, (बन्धुराः) बन्धनविशेषाः। तेषाम्=जिनके विशेष बन्धन हैं, ऐसे (योगः) युज्यते यस्मिन्सः=जिससे जुड़े हुए हैं, (कर्त्तव्य)=करना चाहिए, (त्रयः) जलाग्निमनुष्यपदार्थस्थित्यर्थावकाशाः=जल, अग्नि, मनुष्य,  पदार्थ के लिये जगह है, (इति)=ऐसे,  (प्रश्नाः)=प्रश्न हैं ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में कहे हुए तीन प्रश्नों के ये उत्तर जानने चाहिये विभूति की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को उचित है कि रथ के आदि, मध्य और अन्त में सब कलाओं के बन्धनों के आधार के लिये तीन बंधन विशेष संपादन करें तथा तीन कला घूमने-घुमाने के लिये संपादन करें, एक मनुष्यों के बैठने, दूसरी अग्नि को स्थिति और तीसरी जल की स्थिति के लिये करके जब-जब चलने की इच्छा हो तब-तब यथा योग्य जलकाष्ठों को स्थापन, अग्नि को युक्त और कला के वायु से प्रदीप्त करके वाष्प के वेग से चलाये हुए यान से शीघ्र दूर स्थान को भी निकट के समान जाने को समर्थ होवें। क्योंकि इस प्रकार किये विना निर्विघ्नता से स्थानान्तर को कोई मनुष्य शीघ्र नहीं जा सकता ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)


    हे  (नासत्यौ) सत्य गुण और स्वभाववाले (अश्विनौ) सूर्य और वायु के समान (शिल्पिनौ) कारीगर लोगो !  (युवाम्) तुम दोनों (येन) विमान आदि यान से (यज्ञम्) जाने योग्य और (संगन्तव्यंमार्गं) संगति करने योग्य मार्ग में  (कदा) किसी समय में (उपयाथः) शीघ्र अभीष्ट स्थान के निकट पहुंच जावें। (दूरदेशस्थम्) दूरदेश में स्थित (स्थानम्) स्थान और (सामीप्यवत्) निकट के स्थान में (प्रापयथः) पहुंच जावें (च) और (तस्य) उसके (रासभस्य) जिस वेग से  शब्द करते हैं,  (वाजिनः) उस  प्रशंसनीय वेग से युक्त (त्रिवृतः) रचने व  चलाने आदि की सामग्री से पूर्ण  (रथस्य) और भूमि, जल व अन्तरिक्ष मार्ग में रमण करानेवाले विमान के  (मध्ये) बीच में (क्व) कहाँ (त्रीणि) तीन (चक्राणि) यान को शीघ्र ले जाने के लिये निर्मित पहिये (कर्त्तव्यानि) बनाने चाहियें। (च) और (क्व) कहाँ (अस्मिन्) इस  (विमानादियाने) विमान आदि यानों में (ये) प्रत्यक्ष  (सनीडाः) समान बन्धनों और विशेष गृह या अग्नि के रहने के स्थान में रहने वाले (त्रयः) तीन [कलायें]  (बन्धुराः) जिनके विशेष बन्धन हैं, ऐसे (योगः) जिससे जुड़े हुए हैं, ऐसा (कर्त्तव्य) करना चाहिए। क्या (त्रयः) जल, अग्नि, मनुष्य और  पदार्थ के लिये जगह है, (इति) ऐसे  (प्रश्नाः) प्रश्न हैं ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (क्व) कस्मिन् (त्री) त्रीणि (चक्रा) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि। अत्रोभयत्र शेश्छंद०। इति शेर्लोपः। (त्रिवृतः) त्रिभी रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य (रथस्य) त्रिषु भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य (क्व) (त्रयः) जलाग्निमनुष्यपदार्थस्थित्यर्थावकाशाः (बन्धुरः) बन्धनविशेषाः। सुपांसुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (ये) प्रत्यक्षाः (सनीडाः) समाना नीडा बन्धना धारा गृहविशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते (कदा) कस्मिन् काले (योगः) युज्यते यस्मिन्सः (वाजिनः) प्रशस्तो वाजो वेगोऽस्यास्तीति तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इतिः। (रासभस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (येन) रथेन (यज्ञम्) गमनयोग्यं मार्गे (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ (उपयाथः) शीघ्रमभीष्टस्थाने सामीप्यं प्रापयथः ॥९॥
    विषयः- पुनस्ताभ्यां किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे नासत्यावश्विनौ शिल्पिनौ युवां येन विमानादियानेन यज्ञं संगन्तव्यं मार्गं कदोपयाथो दूरदेशस्थं स्थानं सामीप्यवत्प्रापयथः तस्य च रासभस्य वाजिनस्त्रिवृतो रथस्य मध्ये क्व त्रीणि चक्राणि कर्त्तव्यानि क्व चास्मिन् विमानादियाने ये सनीडास्त्रयो बन्धुरास्तेषां योगः कर्त्तव्य इति त्रयः प्रश्नाः ॥९॥
     
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोक्तानां त्रयाणां प्रश्नानामेतान्युत्तराणि वेद्यानि विभूतिकामैर्नरैरथस्यादिमध्यान्तेषु सर्वकलाबन्धनाधाराय त्रयो बन्धनविशेषाः कर्त्तव्याः। एकं मनुष्याणां स्थित्यर्थं द्वितीयमग्निस्थित्यर्थं तृतीयं जलस्थित्यर्थं च कृत्वा यदा यदा गमनेच्छा भवेत्तदा तदा यथायोग्यं काष्ठानि संस्थाप्याग्निं योजयित्वा कलायंत्रोद्भावितेन वायुना संदीप्य बाष्पवेगेन चालितेन यानेन सद्यो दूरमपि स्थानं समीपवत्प्राप्तं शक्नुयुः नहीदृशेन यानेन विना कश्चिन्निर्विघ्नतया स्थानान्तरं सद्यो गंतुं शक्नोतीति ॥९॥
     

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    विषय

    वाजीरासभ का योग

    पदार्थ

    १. यह शरीर एक रथ है, इस रथ के द्वारा जीवन - यात्रा को पूर्ण करके हमें लक्ष्य - स्थान पर पहुँचना है । यहाँ इस शरीर - रथ के विषय में चर्चा करते हुए प्रश्नात्मक ढंग से कहते हैं कि इस (त्रिवृतः) - [त्रिभ्यः वर्तते] धर्म - अर्थ - काम तीनों के समरूप से सेवन के लिए दिये गये [धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः] (रथस्य) - शरीररूप रथ के (त्री चक्रा) - इन्द्रियों, मन व बुद्धिरूप तीन चक्र (क्व) - कहाँ हैं ? 
    २. (त्रयः बन्धुरः) - इस रथ के तीन दण्डरूप बन्धन 'वात, पित्त, कफ' ये (सनीळाः) - जो मिलकर इस शरीररूप नीड में - घोंसले में रहते हैं, वे (क्व) - कहाँ हैं ? वातादि का शरीर में स्थान कहाँ - कहाँ है ? ये तीनों समरूप से रहें तो मनुष्य स्वस्थ रहता है । इनमें से कोई एक प्रबल हुआ तो वह किसी - न - किसी रोग का कारण बन जाता है । 
    ३. इस शरीररूप रथ में (वाजिनः) - शक्तिशाली (रासभस्य) - [रास् शब्दे] सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान का उच्चारण करनेवाले उस प्रभु का (योगः) - मेल (कदा) - कब होगा ? (येन) - जिस योग से, अर्थात् जिस प्रभु का मेल होने पर हे (नासत्या) - सदा सत्य को ही अपनानेवाले प्राणापानो ! (यज्ञम्) - श्रेष्ठतम कर्मों को ही (उपयाथः) - समीपता से प्राप्त होते हैं । प्रभु का मेल होने पर हमसे अशुभ कर्म नहीं होते, यह प्रभु का मेल इन प्राणापानों की साधना से ही होना है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - यह शरीररूप रथ [क] धर्म - अर्थ - काम तीनों के समरूप से सेवन के लिए दिया गया है, [ख] इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि - इस शरीर - रथ के चक्र हैं, इनके ठीक होने पर ही रथ चलेगा । [ग] वात, पित्त, कफ - ये तीन रथ के बन्धन - दण्ड हैं । इनमें विकार हुआ और रथ विच्छिन्न हुआ, [घ] इस रथ में प्रभु का मेल होता है, अर्थात् वे इसके सारथि बनते हैं तो कोई भी अशुभ कर्म नहीं होता, रथ गड्ढों में गिरता नहीं, मार्ग पर ही चलता है । 
     

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    विषय

    त्रिवृत त्रिचक्र रथ ।

    भावार्थ

    हे (नासत्या) सदा सत्यस्वभाव वालो! आप लोग (येन) जिसके द्वारा (यज्ञं) यज्ञ या गन्तव्य मार्ग को (उपयाथः) जाते हो। उस (त्रिवृतः रथस्य) त्रिवृत रथ के (त्री चक्रा क्व) तीन चक्र कहां लगे हैं? और (ये) जो (त्रयः) तीन (सनीळाः) एक ही आश्रय में जुड़े हुए (बन्धुराः) बन्धन दण्ड हैं वे (क्व) कहां लगे हैं। और (वाजिनः) वेग वाले (रासभस्य) अति शब्दकारी यन्त्राग्नि के समान या अश्व के समान सञ्चााक शक्ति का (योगः कदा) योग कब हुआ? ये सभी प्रश्न विशेष जानने योग्य हैं। अध्यात्म में—अग्नि, वायु और तेज इन तत्वों के त्रिवृतीकरण द्वारा बना देह रूप रथ है। उसके वात, पित्त, कफ तीन चक्र हैं। सत्य, रजस, तमस् तीन दण्ड हैं। अथवा मन, वाक्, प्राण तीन दण्ड हैं। इसमें मुख्य प्राण वेगवान् अश्व है। ये सब कहां २ स्थित हैं? और प्राण का देह में कब योग होता है? ये सब ज्ञातव्य बातें हैं। इसी रथ के द्वारा स्त्री पुरुष ‘यज्ञ’ रूप परमेश्वर के परम पद तक साधना और तपस्या द्वारा पहुंचते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात विचारलेल्या तीन प्रश्नांची ही उत्तरे जाणली पाहिजेत. शक्तीची (समृद्धीची) इच्छा बाळगणाऱ्या माणसांनी रथाच्या आरंभी, मध्ये व शेवटी सर्व कळांच्या बंधनांच्या आधारासाठी तीन बंधने विशेष तयार करावीत व तीन कळा फिरण्यासाठी व फिरविण्यासाठीही तयार कराव्यात. एक माणसाला बसण्यासाठी, दुसरी अग्नीची स्थिती व तिसरी जलाची स्थिती. याप्रमाणे जेव्हा जेव्हा जाण्याची इच्छा असेल तेव्हा तेव्हा यथायोग्य जलकाष्ठांना स्थापन करून अग्नीला युक्त करून यंत्राला वायूने प्रदीप्त करून वाफेवर चालविलेल्या (विमानाने) यानाने तत्काळ दूर स्थानीही निकट असल्याप्रमाणे पोहोचविण्यास समर्थ व्हावे. कारण या प्रकारे वागल्याशिवाय कोणताही मनुष्य निर्विघ्नपणे स्थानांतर करू शकत नाही. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, truthful and dedicated scientists, where are the threefold three wheels of the chariot’s design, structure and speed? Where are the three bonds of the structure strong and fixed? When and where the ignition and start of the roaring hawk by which you fly to your destination?

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    Subject of the mantra

    Then what should be done by them, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (nāsatyau)=having truthful virtues and nature, (avaśvinau)=like Sun and air, (śilpinau)=craftsmen, (yuvām)=both of you, (yena)=by aircraft etc. vehicle, (yajñam)=able to go, [aura]=and, (saṃgantavyaṃmārgaṃ)=in a compatible path, (kadā)= at some point in time, (upayāthaḥ)=quickly reach near the desired place, (dūradeśastham)=situated in a faraway place, (sthānam)=place, [aura]=and, (sāmīpavat)=in a nearby place, (prāpayathaḥ)=must reach, (ca)=and, (tasya)=his, (rāsabhasya)=with the speed with which speak words, (vājinaḥ)=with that appreciable velocity, (trivṛtaḥ)=full of that composing and running substance, (rathasya)=and getting travelling done in the earth, water and space (madhye)=in the middle, (kva)=where, (trīṇi)=three, (cakrāṇi)=wheel made for moving aircrafts fast, (karttavyāni)=should be made, (ca)=and, (kva)=where, (asmin)=this, (vimānādiyāne)=in aircraft etc. vehicle, (ye)=evident, (sanīḍāḥ)=those who live in the same bondage and special house or place of fire, (trayaḥ)=three small parts, (bandhurāḥ) those who have special bonds, such, (yogaḥ)=to which they are connected, [aisā]=such, (karttavya) =should be done, [kyā]=what, (trayaḥ)= There is a place for water, fire, man and matter, (iti)=such, (praśnāḥ)=questions are.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    These three questions asked in this mantra should be known to the men who wish for superhuman power, it is appropriate that for the basis of the bonds of all the artifacts at the beginning, middle and end of the chariot, three bands should be specially executed and three for moving around. Execute the position of one human to sit and the other fire and do for the third water condition whenever you want to walk. Then and again, by setting up water-woods as appropriate, containing fire and illumined by the air of artifacts, should be able to go to a distant place as close as possible with a vehicle driven by the speed of steam. Since without this method, no human being can go to another place without any difficulty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same Subject is continued-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful learned artisans, where are to be set up the three mechanical wheels of the triple chariot like the aero plane (which can travel on the earth, water and firmament) etc. whereby you come to your distant destination (as if it is near) ? Where are three wheels of the speed that produces noise? Where are the three seats for the water, fire and men thereto firmly fastened? These are the three questions you should consider and answer.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (चक्रा) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि = Mechanical wheels for speedy locomotion of the Vehicles. (त्रित: रथस्य ) त्रिभिः रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य । = Of the vehicle which is full of all material for manufacturing, driving and other requisites and which can travel on the earth, the waters and firmament. ( सनीडा :) समाना नीडा: बन्धनाधारा गृह विशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते । = Possessing places for keeping fire etc. ( रासमस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य रासभावश्विनोरित्यादि पदोपयोजननामसु (निघ० १.१५) ) = Of the speed which causes noise.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    These are the answers of these questions hinted at above. 1. The persons who long for prosperity should fasten three things or have three seats in the beginning, middle and end of the vehicles. (1) A seat for men. (2) Second place for keeping the fire. (3) Third place for keeping water. Whenever there is desire to go out on tour, fuel etc. should be properly put to feed the fire, which should be burnt with the aid of the air produced by machines and with the force of the steam. In this way, men can go to distant places as if they are close by. Without such conveyances or chariots (aero plane being one of them) no one can travel to distant places safely.

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