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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्रिर्नो॑ अश्विना दि॒व्यानि॑ भेष॒जा त्रिः पार्थि॑वानि॒ त्रिरु॑ दत्तम॒द्भ्यः । ओ॒मानं॑ शं॒योर्मम॑काय सू॒नवे॑ त्रि॒धातु॒ शर्म॑ वहतं शुभस्पती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः । नः॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । दि॒व्यानि॑ । भे॒ष॒जा । त्रिः । पार्थि॑वान् । त्रिः । ऊँ॒ इति॑ । द॒त्त॒म् । अ॒त्ऽभ्यः । ओ॒मान॑म् । श॒म्ऽयोः । मम॑काय । सू॒नवे॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । शर्म॑ । व॒ह॒त॒म् । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिर्नो अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भ्यः । ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः । नः । अश्विना । दिव्यानि । भेषजा । त्रिः । पार्थिवान् । त्रिः । ऊँ इति । दत्तम् । अत्भ्यः । ओमानम् । शम्योः । ममकाय । सूनवे । त्रिधातु । शर्म । वहतम् । शुभः । पती इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्मभ्यम् (अश्विना) अश्विनौ विद्याज्योतिर्विस्ता रमयौ (दिव्यानि) विद्यादि शुभगुणप्रकाशकानि (भेषजा) सोमादीन्यौषधानि रसमयानि (त्रिः) त्रिवारम् (पार्थिवानि) पृथिव्याविकारयुक्तानि (त्रिः) त्रिवारम् (ऊँ) वितर्के (दत्तम्) (अद्भ्यः) सातत्यगन्तृभ्यो वायुविद्युदादिभ्यः (ओमानम्) रक्षन्तम् विद्याप्रवेशकं क्रियागमकं व्यवहारम्। अत्रावधातोः। अन्येभ्योपि दृश्यन्त इति मनिन्। (शंयोः) शं सुखं कल्याणं विद्यते यस्मिँस्तस्य (ममकाय) ममायं ममकस्तस्मै। अत्र संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः। अ० ६।४।१४६। इति‡ वृद्ध्यभावः (सूनवे) औरसाय विद्यापुत्राय वा (त्रिधातु) त्रयोऽयस्ताम्रपित्तलानि धातवे यस्मिन् भूसमुद्रान्तरिक्षगमनार्थे याने तत (शर्म) गृहस्वरूपं सुखकारकं वा। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। निघं० ३।४। (वहतम्) प्रापयतम् (शुभः) यत् कल्याणकारकं मनुष्याणां कर्म तस्य। अत्र संपदादित्वात् क्विप्। (पती) पालयितारौ। पष्ठ्याःपतिपुत्र०। अ० ८।३।५३। इति संहितायां◌ विसर्जनीयस्य सकारादेशः ॥६॥ ‡[अनया परिभाषया। सं०] ◌[शुभ् शब्दस्य। सं०]

    अन्वयः

    पुनस्ताभ्यां किं कार्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे शुभस्पती अश्विनौ युवां नोऽस्मभ्यमद्भ्यो दिव्यानि भेषजौषधानि त्रिर्दत्तं ऊँइति वितर्के पार्थिवानि भेषजौषधानि त्रिर्दत्तं ममकाय सूनवे शंयोः सुखस्यदानमोमानं च त्रिर्दत्तं त्रिधातु शर्म ममकाय सूनवे त्रिर्वहतं प्रापयतम् ॥६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्जलपृथिव्योर्मध्ये यानि रोगनाशकान्यौषधानि संति तानि त्रिविधतापनिवारणाय भोक्तव्यान्यनेक धातुकाष्ठमयं गृहाकारं यानं रचयित्वा तत्रोत्तमानि यवादीन्यौषधानि संस्थाप्याग्निगृहेग्नि पार्थिवैरिंधनैः प्रज्वाल्यापः स्थापयित्वा बाष्पबलेन यानानि चालयित्वा व्यवहारार्थं देशदेशान्तरं गत्वा तत आगत्य सद्यः स्वदेशः प्राप्तव्य एवं कृते महांति सुखानि प्राप्तानि भवन्तीति ॥६॥ इति चतुर्थो वर्गः ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उनसे क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पि लोगो ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भ्यः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करनेवाले (भेषजा) रसमय सोमादि ओषधियों को (त्रिः) तीनताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पर्थिवानि) पृथिवी के विकार युक्त ओषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन बार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जानेवाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करनेवाली औषधी हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम-२ जव आदि औषधी स्थापन अग्नि के घर में अग्नि को काष्ठों से प्रज्वलित जल के घर में जलों को स्थापन भाफ के बल से यानों को चला व्यवहार के लिये देशदेशान्तरों को जा और वहां से आकर जल्दी अपने देश को प्राप्त हों इस प्रकार करने से बड़े-२ सुख प्राप्त होते हैं ॥६॥ यह चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥४॥

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    विषय

    फिर उनसे क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे शुभ पती अश्विनौ युवां नः अस्मभ्यम् अद्भ्यः दिव्यानि भेषजा ओषधानि त्रिः दत्तम् ऊँ इति वितर्के पार्थिवानि भेषजा ओषधानि त्रिः दत्तं ममकाय सूनवे शंयोः सुखस्य दानम् ओमानम् च त्रिः दत्तं त्रिधातु शर्म ममकाय सूनवे त्रिः वहतं प्रापयतम् ॥६॥ 

    पदार्थ

    हे  (शुभः) यत् कल्याणकारकं मनुष्याणां कर्म तस्य=कल्याण करनेवाले मनुष्यों के कर्मों का, (पती) पालयितारौ=पालन कराने और (अश्विना) अश्विनौ विद्याज्योतिर्विस्तारमयौ=विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पी लोगों ! (युवाम्)=आप दोनों, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (अद्भ्यः) सातत्यगन्तृभ्यो वायुविद्युदादिभ्यः=वायु और विद्युत् के द्वारा निरन्तर गतिशील, (दिव्यानि) विद्यादि शुभगुणप्रकाशकानि=विद्यादि शुभ गुणों का प्रकाश करनेवाले, (भेषजा) सोमादीन्यौषधानि रसमयानि=रसमय सोम आदि ओषधियां, (त्रिः) त्रिवारम्=तीन बार, (दत्तम्)=देकर, (ऊँ) इति वितर्के=[ऊहति-वितर्कयति]=अर्थात् (पार्थिवानि) पृथिव्याविकारयुक्तानि=पृथिवी से उत्पन्न [विकार का अभिप्राय है- परिवर्तन होना]  (भेषजा) सोमादीन्यौषधानि रसमयानि=रस से युक्त सोम आदि ओषधियां,  (त्रिः) त्रिवारम्=तीन बार, (दत्तम्)=देकर,  (ममकाय)=मेरे लिये, (सूनवे) औरसाय विद्यापुत्राय वा=अपने पुत्र या विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) शं सुखं कल्याणं विद्यते यस्मिँस्तस्य=जिसमें सुख कल्याण विद्यमान हो, उसके, (सुखस्य)=सुख का, (दानम्)=दान, (ओमानम्) रक्षन्तम् विद्याप्रवेशकं क्रियागमकं व्यवहारम्=विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को, (च)=भी, (त्रिः) त्रिवारम्=तीन बार, (दत्तम्)=देकर, (त्रिधातु) त्रयोऽयस्ताम्रपित्तलानि धातवे यस्मिन् भूसमुद्रान्तरिक्षगमनार्थे याने तत=जिस यान में लोहा ताँबा पीतल ये तीन धातुओं हैं, उसके भूमि समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने के लिये, (शर्म) गृहस्वरूपं सुखकारकं वा=गृह जैसा सुख देने वाला, (ममकाय) ममायं ममकस्तस्मै=मेरे लिये, (सूनवे) औरसाय विद्यापुत्राय वा=अपने पुत्र या विद्या के पुत्र के लिये,  (त्रिः) त्रिवारम्=तीन बार, (वहतम्) प्रापयतम्=पहुंचाइये ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करने वाली औषधियां हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बनाकर उसमें उत्तम-उत्तम यव आदि औषधियों का स्थापन करें, गृहअग्नि के घर में अग्नि को काष्ठों से प्रज्वलित कर, जल के घर में जलों को स्थापन कर भाप के बल से यानों को चलाकर व्यवहार के लिये भिन्न-भिन्न स्थानों को जाकर और वहां से आकर जल्दी अपने देश को प्राप्त हों। इस प्रकार करने से बड़े-बड़े सुख प्राप्त होते हैं ॥६॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-विद्यापुत्र- महर्षि दयानन्द ने मन्त्र का अर्थ करते हुए पद “सूनवे” पद का अर्थ अपने और विद्यापुत्र के लिए किया है। महर्षि ने ऋग्वेद के मन्त्र संख्या ०१.४५ .१० में “सूनवः” का अर्थ- पुत्रा विद्यार्थिनः किया है। इसे देथते हुए “सूनवे” का  यहां   इस मन्त्र नें व्याख्याकार का अर्थ विद्यापुत्र अर्थात् शिष्य है, क्योंकि विद्या देनेवाले गुरु के लिए शिष्य पुत्र के समान होता है ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (शुभः) कल्याण करनेवाले मनुष्यों के कर्मों का (पती) पालन कराने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पी लोगो ! (युवाम्) आप दोनों (नः) हमारे लिये (अद्भ्यः) वायु और विद्युत् के द्वारा निरन्तर गतिशील (दिव्यानि) विद्यादि शुभ गुणों प्रकाश करनेवाले और (भेषजा) रस से युक्त सोम आदि ओषधियों का (त्रिः) तीन बार (दत्तम्) देकर (ऊँ) अर्थात् (पार्थिवानि) पृथिवी से उत्पन्न (भेषजा) रस से युक्त सोम आदि ओषधियों को  (त्रिः) तीन बार (दत्तम्) देकर  (ममकाय) मेरे लिये (सूनवे) अपने पुत्र या विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) जिसमें सुख  और कल्याण विद्यमान हो, उस (सुखस्य) सुख का (दानम्) दान, (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले और रक्षा किये जानेवाले व्यवहार को (च) भी (त्रिः) तीन बार, (दत्तम्) देकर (त्रिधातु) जिस यान में लोहा, ताँबा, और पीतल ये तीन धातुओं हैं, उसके भूमि समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने के लिये (शर्म) गृह जैसा सुख देने वाले (ममकाय) मेरे लिये (सूनवे) अपने पुत्र या विद्या के पुत्र के लिये  (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्मभ्यम् (अश्विना) अश्विनौ विद्याज्योतिर्विस्ता रमयौ (दिव्यानि) विद्यादि शुभगुणप्रकाशकानि (भेषजा) सोमादीन्यौषधानि रसमयानि (त्रिः) त्रिवारम् (पार्थिवानि) पृथिव्याविकारयुक्तानि (त्रिः) त्रिवारम् (ऊँ) वितर्के (दत्तम्) (अद्भ्यः) सातत्यगन्तृभ्यो वायुविद्युदादिभ्यः (ओमानम्) रक्षन्तम् विद्याप्रवेशकं क्रियागमकं व्यवहारम्। अत्रावधातोः। अन्येभ्योपि दृश्यन्त इति मनिन्। (शंयोः) शं सुखं कल्याणं विद्यते यस्मिँस्तस्य (ममकाय) ममायं ममकस्तस्मै। अत्र संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः। अ० ६।४।१४६। इति‡ वृद्ध्यभावः (सूनवे) औरसाय विद्यापुत्राय वा (त्रिधातु) त्रयोऽयस्ताम्रपित्तलानि धातवे यस्मिन् भूसमुद्रान्तरिक्षगमनार्थे याने तत (शर्म) गृहस्वरूपं सुखकारकं वा। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। निघं० ३।४। (वहतम्) प्रापयतम् (शुभः) यत् कल्याणकारकं मनुष्याणां कर्म तस्य। अत्र संपदादित्वात् क्विप्। (पती) पालयितारौ। पष्ठ्याःपतिपुत्र०। अ० ८।३।५३। इति संहितायां विसर्जनीयस्य सकारादेशः ॥६॥ ‡[अनया परिभाषया। सं०] [शुभ् शब्दस्य। सं०]
    विषयः- पुनस्ताभ्यां किं कार्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे शुभस्पती अश्विनौ युवां नोऽस्मभ्यमद्भ्यो दिव्यानि भेषजौषधानि त्रिर्दत्तं ऊँइति वितर्के पार्थिवानि भेषजौषधानि त्रिर्दत्तं ममकाय सूनवे शंयोः सुखस्यदानमोमानं च त्रिर्दत्तं त्रिधातु शर्म ममकाय सूनवे त्रिर्वहतं प्रापयतम् ॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्जलपृथिव्योर्मध्ये यानि रोगनाशकान्यौषधानि संति तानि त्रिविधतापनिवारणाय भोक्तव्यान्यनेक धातुकाष्ठमयं गृहाकारं यानं रचयित्वा तत्रोत्तमानि यवादीन्यौषधानि संस्थाप्याग्निगृहेग्नि पार्थिवैरिंधनैः प्रज्वाल्यापः स्थापयित्वा बाष्पबलेन यानानि चालयित्वा व्यवहारार्थं देशदेशान्तरं गत्वा तत आगत्य सद्यः स्वदेशः प्राप्तव्य एवं कृते महांति सुखानि प्राप्तानि भवन्तीति ॥६॥ 

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    विषय

    मानसशान्ति व शारीरिक स्वास्थ्य

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! (नः) - हमें (त्रिः) - तीन बार (दिव्यानि भेषजा) - दिव्य ओषधियों को (दत्तम्) - दीजिए । यहाँ दिव्य ओषधियों से अभिप्राय मस्तिष्क के लिए हितकर ओषधियों से है । ये ओषधियाँ हमारे मस्तिष्क के दोषों को दूर करके उन्हें प्रकृति, जीव व परमात्मा के ज्ञानों से परिपूर्ण करनेवाली हों । इस त्रिविध ज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही ओषधियों को तीनबार देने की प्रार्थना की गई है । 
    २. इसी प्रकार (त्रिः) - तीन बार (पार्थिवानि) - पृथिवी - सम्बन्धी ओषधियों को (दत्तम्) - दीजिए । 'पृथिवी' शरीर है, वे ओषधियाँ दीजिए जोकि हमारे शरीरों को 'वात, पित्त, कफ' के विकार से होनेवाले रोगों से बचाएँ, इसीलिए ओषधि के तीन बार देने की प्रार्थना की है चूँकि रोग त्रिविध हैं । 
    ३. (उ) - और (अद्भ्यः) - अन्तरिक्ष से [आपः अन्तरिक्ष, 'नि०] (त्रिः) - तीन बार ओषधियों को दीजिए । हृदयान्तरिक्ष की भी ओषधियाँ काम - क्रोध - लोभ' रूप तीन हैं । ये तीन ही गीता में नरक के द्वार कहे गये हैं । इनको भी दूर करने के लिए प्राणसाधना मुख्य उपाय है । एवं, प्राणसाधना [क] मस्तिष्क को उज्ज्वल करके उसे त्रिविध ज्ञान से परिपूर्ण करती है, [ख] शरीर को त्रिविध व्याधियों से बचाती है और [ग] मानस को त्रिविध [*मम कः' इति वदति इति ममकः] 'मेरा तो यह आनन्दस्वरूप प्रभु है' इस प्रकार का जप करनेवाले तथा (सूनवे) - सदा अपने अन्दर वेदवाणी को प्रेरित करनेवाले के लिए (शंयोः ओमानम्) - शान्ति को प्राप्त करनेवाले के आनन्दविशेष को तथा (त्रिधातु शर्म) - वात, पित्त, कफ - तीनों के ठीक समन्वय से धारण किये गये स्वस्थ शरीर के सुख को (वहतम्) - प्राप्त कराइए, अर्थात् प्राणापान की साधना से मेरा मानस शान्त हो तथा शरीर स्वस्थ हो । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की साधना से हमारे शरीर की त्रिलोकी अपने - अपने ऐश्वर्य से युक्त हो तथा मानस शान्ति के साथ शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त हो । 
     

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    विषय

    स्त्री पुरुष, राजा मन्त्री रथी सारथी का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) विद्या और ज्ञान प्रकाश में पारंगत विद्वानों! एवं रथी सारथी के समान स्त्री पुरुषो! आप दोनों (अद्भयः) जलों से प्राप्त करके (पार्थिवानि) पृथ्वी पर उगे वनोषधि से और (दिव्यानि) तेजोमय धातु, लोह स्वर्णादि से बने (भेषजा) नाना रोग निवारक पदार्थों को (नः) हमारे उपकार के लिए (त्रिः त्रिः त्रिः उ दत्तम्) तीन तीन बार अर्थात् वार वार प्रदान करें। (शंयोः) शान्ति सुख के चाहने वाले (ममकाय) मेरे निज बन्धु (सूनवे) पुत्र को (ओमानं) रक्षाकारी उपाय प्रदान करो। और हे (शुभः पती) शुभ गुणों और आभरणों के धारण करनेवाले स्त्री पुरुषो! (त्रिधातु) तीन धातु वात, पित्त और कफ के बने (शर्म) सुखद साधन देह को, या तीन धातु के बने रोगनाशक आभूषण (वहतं) धारण करो। इति चतुर्थी वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी जल व पृथ्वीवर उत्पन्न झालेला रोग नष्ट करणाऱ्या औषधींचे प्रत्येक दिवशी तीन वेळा सेवन करावे व अनेक धातूंनी युक्त काष्ठमय घराप्रमाणे यान तयार करून त्यात उत्तमोत्तम जव इत्यादी औषधी ठेवून द्यावी. अग्नीच्या घरात अग्नीला काष्ठांनी प्रज्वलित करावे. जलघरात जलाला स्थित करून वाफेच्या शक्तीने याने चालवावीत. व्यवहारासाठी देशदेशान्तरी जावे व तेथून लवकर आपल्या देशात यावे. याप्रकारे वागण्याने खूप सुख मिळते. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, scholars of knowledge, light and progressive expansion, protectors of all that is good and blissful, create for us and give us threefold heavenly essences such as soma, three earthly ones and three from waters. For my child create something soothing and all round protective, a three-metal tonic panacea for a healthy and comfortable state of health in which the three humors of vitality are balanced in peace, without agitation, anywhere.

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    Subject of the mantra

    Then, what should be done with them? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śubhaḥ)=the deeds of the benevolent people, (patī)=one who nourishes, [aura]=and, (aśvinā)=People who increase the light of learning, (yuvām)=both of you, (naḥ)=for us, (adbhyaḥ)=constantly moving by wind and electricity, (divyāni)=Those who illuminate the good qualities of knowledge etc. [aura]=and, (bheṣajā)=of Soma containing juice, etc. herbs, (triḥ)=thrice, (dattam)=by giving, (ūṁ)=or, (pārthivāni)=originated from the earth, (bheṣajā)=to Soma containing juice, etc. herbs, (triḥ)=thrice, (dattam)=by giving, (mamakāya)=for me, (sūnave)= for own son or Vidyaputra (disciple), (śaṃyoḥ)=in which happiness and well-being exist, that (sukhasya)=of pleasure, (dānam)=endowment, (omānam) the entry into learning and the behavior of action to be understood and protected, (ca)=also, (triḥ)=thrice, (dattam)=by giving,(tridhātu)=To go into the land, sea and space of the vehicle in which these three metals are iron, copper and brass, (śarma)=giving pleasure like home, (mamakāya)=for me, (sūnave)= for own son or son of Vidya, (triḥ)=thrice, (vahatam)=deliver.

    English Translation (K.K.V.)

    O craftsmen who make people perform the deeds of welfare and increase the light of knowledge! Both of you are the ones who bring manifestation of good qualities to us, constantly moving through the air and electricity and by giving three times the Soma containing the juices, that is giving three times to the Soma and other herbal medicines containing the juice from the earth, giving three times for own son or for Vidyaputra (disciple), in whom happiness and well-being exist. The gift of that happiness, enters into learning and sense of action and by giving three times the treats to be protected, bring your son or son of Vidya thrice to me, who gives happiness like a home to go to the land, ocean and space of the vehicle in which these three metals are iron, copper and brass.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Humans require the herbal medicines that destroy diseases that have arisen in water and earth. Eat them three times in a day and make a vehicle like a wooden house with many metals and procure good barley etc. herbal medicines in it, by lighting fire in the Gṝhagni (ritualistic fire) with wood, by procuring water in the house of water, by driving vehicles on the power of steam, go to different places for practice and come from there and reach your country soon. By doing this, great pleasures are attained.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Vidyaputra- Maharishi Dayanand, while interpreting the meaning of the mantra, has given the meaning of the term “sūnave” to own son and vidyāputra. Maharishi has given the meaning of “sūnavaḥ” in Rigveda's Mantra No. 01.45.10 - Son vidyārthinaḥ. Giving it the meaning of “sūnave” here, the interpreter means- vidyāputra i.e. disciple, because for the Guru who gives knowledge, the disciple is like a son

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Protectors of the auspicious good actions of men, O learned men, full of the light of knowledge, thrice grant us the medicaments like Soma etc. which manifest good virtues like knowledge, by increasing intellect and those got from the earth and those got from the water, ever moving air and electricity. Grant unto our sons (whether physical or spiritual) prosperity, happiness and peace which protect and help in the acquisition of wisdom. Grant unto us the conveyances that enable us to travel on earth, sea and firmament which give us happiness and are made like our home.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अश्विनौ) विद्याज्योतिविस्तारमयौ = Learned persons full of the light of vast knowledge. ( दिव्यानि ) विद्यादिशुभगुणप्रकाशकानि = Which manifest good virtues like knowledge. ( अद्भ्यः) सातत्यगन्तृभ्यो वायुविद्युदादिभ्यः = From ever moving air, electricity and other articles. [शंयो:] शं सुखं कल्याणं विद्यते यस्मिन् तस्य = Of possessing happiness. [त्रिधातु] त्रयोऽयस्ताम्र पित्तलानि धातवो यस्मिन् भूसमुद्रान्तरिक्षगमनार्थे याने तत् । = Made of iron, copper and brass. A vehicle by which one can travel on earth, sea and firmament. [ शर्म ] गृहस्वरूपं सुखकारकं वा । शर्मेति गृहनामसु [निघ० ३.४] = Home.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should take for health, medicines which are in the water or on the earth, which destroy diseases. They should manufacture conveyances like the home of iron, copper and brass etc. store there barley and other corns, should burn fire, place water and by their combination should make them to move fast, going to distant places for business and work and coming back soon. In this way, they can enjoy much happiness.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted शर्म as गृहस्विरूपं सुखकारकं वा Home and happiness though he has quoted from Nighantu to show that the word शर्म means home. He thought perhaps that the other meaning of सुख or happiness was too well-known and therefore did ot deem it necessary to quote from the Vedic Lexicon. शर्म इति सुखनामसु [निघ० ३.६] ( Sayanacharya has wrongly taken शयो: to be the name of a person named Shanyu who was the son of Brihaspati. Wilson and Griffith have committed the same mistake. As has been pointed out several times, such interpretation is against the fundamental principles of the Vedic terminology as given in the meemansa in aphorisms like. परन्तु श्रुति सामन्य्मात्रम् ( मी० मां १. ३१ ) In the Nirukta has been explained as शमनं च रोगाणां यावनं मयानाम् ( निरुक्ते ४.३ ) = Removal of diseases and of fear. has been explained by Sayanacharya as वातपित्त श्लेष्मधातुत्रय शमनविषयं सुखम् The happiness derived from the proper position of the wind, bile and phlegm in the body. Though Rishi Dayananda has interpreted त्रिधातु शर्म here differently as given above, he has also given that meaning in his commentary on Rig.1.85.12 saying त्रिधातु-त्रिथातूनि वातपित्त्कफ़ायेषु शरीरेषु तानि This is akin to Sayanacharyas" interpretation. As in this hymn, there is clear reference to various fast going conveyances, Rishi Dayananda has given the above interpretation.

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