ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
स॒मा॒ने अह॒न्त्रिर॑वद्यगोहना॒ त्रिर॒द्य य॒ज्ञं मधु॑ना मिमिक्षतम् । त्रिर्वाज॑वती॒रिषो॑ अश्विना यु॒वं दो॒षा अ॒स्मभ्य॑मु॒षस॑श्च पिन्वतम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒ने । अह॑न् । त्रिः । अ॒व॒द्य॒ऽगो॒ह॒ना॒ । त्रिः । अ॒द्य । य॒ज्ञम् । मधु॑ना । मि॒मि॒क्ष॒त॒म् । त्रिः । वाज॑वतीः । इषः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । दो॒षा । अ॒स्मभ्य॑म् । उ॒षसः॑ । च॒ । पि॒न्व॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समाने अहन्त्रिरवद्यगोहना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् । त्रिर्वाजवतीरिषो अश्विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसमाने । अहन् । त्रिः । अवद्यगोहना । त्रिः । अद्य । यज्ञम् । मधुना । मिमिक्षतम् । त्रिः । वाजवतीः । इषः । अश्विना । युवम् । दोषा । अस्मभ्यम् । उषसः । च । पिन्वतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(समाने) एकस्मिन् (अहन्) अहनि दिने (त्रिः) (त्रिवारम्) (अवद्यगोहना) अवद्यानि गर्ह्याणि निंदितानि दुःखानि गूहत आच्छादयतो दूरीकुरुतस्तौ। अवद्यपण्य० ३।१।१०१। इत्ययं निंदार्थे निपातः। ण्यन्ताद्गुहूसंवरण इत्यस्माद्धातोः। ण्यासश्रन्थो युच् अ० ३।३।१०७। इति युच्। ऊदुपधाया गोहः। अ० ६।४।८९। इत्यूदादेशे प्राप्ते। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ती इत्यस्य निषेधः। सुपां सुलुग् इत्याकारदेशश्च। (त्रिः) त्रिवारम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (यज्ञम्) ग्राह्यशिल्पादिसिद्धिकरम् (मधुना) जलेन। मध्वित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (मिमिक्षतम्) मेदुमिच्छतम् (त्रिः) त्रिवारम् वाजवतीः प्रशस्ता वाजा वेगादयो गुणा विद्यन्ते यासु नौकादिषु ताः। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (इषः) या इष्यन्ते ता इष्टसुखसाधिकाः (अश्विना) वन्हिजलवद्यानसिद्धिं संपाद्य प्रेरकचालकावध्वर्यू। अश्विनावध्वर्यू। श० १।१।२।१७। (युवम्) युवाम्। प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्। अ० ७।२।८८। इत्याकारादेशनिषेधः। (दोषाः) रात्रिषु। अत्र सुपां सुलुग् इति सुब्व्यत्ययः। दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। अस्मभ्यम् शिल्पक्रियाकारिभ्यः (उषसः) प्रापितप्रकाशेषु दिवसेषु। अत्रापि सुब्व्यत्ययः। उष इति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।५। (च) समुच्चये (पिन्वतम्) प्रीत्या सेवेथाम् ॥३॥
अन्वयः
पुनस्ताभ्यां कृतैर्यानैः किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे अश्विनावद्यगोहनाध्वर्यू युवं युवां समानेऽहनि मधुना यज्ञं त्रिर्मिमिक्षतमद्यास्मभ्यं दोषा उषसः त्रिर्यानानि पिन्वतं वाजवतीरिषश्च त्रिः पिन्वतम् ॥३॥
भावार्थः
शिल्पविद्याविद्विद्वांसो यंत्रैर्यानं चालयिंताश्च प्रतिदिनं शिल्पविद्यया यानानि निष्पाद्य त्रिधा शरीरात्ममनः सुखाय धनाद्यनेकोत्तमान् पदार्थानर्जयित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तु। येनाहोरात्रे सर्वे पुरुषार्थेनेमां विद्यामुन्नीयालस्यं त्यक्तोत्साहेन तद्रक्षणे नित्यं प्रयतेरन्निति ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उनसे सिद्ध किये हुए यानों से क्या-२ सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे (अश्विना) अग्नि जल के समान यानों को सिद्ध करके प्रेरणा करने और चलाने तथा (अवद्यगोहना) निंदित दुष्ट कर्मों को दूर करनेवाले विद्वान् मनुष्यो ! (युवम्) तुम दोनों (समाने) एक (अहन्) दिन में (मधुना) जल से (यज्ञम्) ग्रहण करने योग्य शिल्पादि विद्या सिद्धि करनेवाले यज्ञ को (त्रिः) तीन बार (मिमिक्षितम्) सींचने की इच्छा करो और (अद्य) आज (अस्मभ्यम्) शिल्पक्रियाओं को सिद्ध करने करानेवाले हम लोगों के लिये (दोषाः) रात्रियों और (उषसः) प्रकाश को प्राप्त हुए दिनों में (त्रिः) तीन बार यानों का (पिन्वतम्) सेवन करो और (वाजवतीः) उत्तम-२ सुखदायक (इषः) इच्छा सिद्धि करनेवाले नौकादि यानों को (त्रिः) तीन बार (पिन्वतम्) प्रीति से सेवन करो ॥३॥
भावार्थ
शिल्पविद्या को जानने और कलायंत्रों से यान को चलानेवाले प्रति दिन शिल्पविद्या से यानों को सिद्ध कर तीन प्रकार अर्थात् शारीरिक आत्मिक और मानसिक सुख के लिये धन आदि अनेक उत्तम-२ पदार्थों को इकट्ठा कर सब प्राणियों को सुखयुक्त करें जिससे दिन-रात में सब लोग अपने पुरुषार्थ से इस विद्या की उन्नति कर और आलस्य को छोड़के उत्साह से उसकी रक्षा में निरन्तर प्रयत्न करें ॥३॥
विषय
फिर उनसे सिद्ध किये हुए यानों से क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अश्विनौ अवद्यगोहनौ अध्वर्यू युवं युवां समाने अहनि मधुना यज्ञम् त्रिः मिमिक्षतम् अद्य अस्मभ्यं दोषा उषसः त्रिः यानानि पिन्वतं वाजवतीः इषः च त्रिः पिन्वतम् ॥३॥
पदार्थ
हे (अश्विनौ) वन्हिजलवद्यानसिद्धिं संपाद्य प्रेरकचालकावध्वर्यू=अग्नि जल के समान यानों को सिद्ध करके प्रेरणा करने और चलाने वाले अध्वर्यु, (अवद्यगोहना) अवद्यानि गर्ह्याणि निंदितानि दुःखानि गूहत आच्छादयतो दूरीकुरुतस्तौ= निन्दित दुष्ट कर्मों का आच्छादन करने और उनको दूर करने वाले, (अध्वर्यु)=[अध्वर्यु नाम से कहे गये] यजुर्वेद के कर्मकाण्ड के निपुण ज्ञाता, (युवम्) युवाम्=तुम दोनों, (समाने) एकस्मिन्=एक, (अहन्) अहनि दिने=दिन में, (मधुना) जलेन=जल के द्वारा, (यज्ञम्) ग्राह्यशिल्पादिसिद्धिकरम्=ग्रहण करने योग्य शिल्पादि विद्या सिद्धि करने वाले यज्ञ को, (त्रिः) त्रिवारम्=तीन-तीन बार, (मिमिक्षतम्) मेढुमिच्छतम्=सींचने की इच्छा करो, (अद्य) अस्मिन्नहनि=आज के ही दिन, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (दोषाः) रात्रिषु= रात्रि में, (उषसः) प्रापितप्रकाशेषु दिवसेषु=प्रकाश को प्राप्त हुए दिनों में, (त्रिः) त्रिवारम्=तीन-तीन बार, (यानानि)=यानों को, (पिन्वतम्) प्रीत्या सेवेथाम्=स्नेहपूर्वक सेवन करो, (वाजवती:) प्रशस्ता वाजा वेगादयो गुणा विद्यन्ते यासु नौकादिषु ताः=जिन नौकाओं में उत्तम-उत्तम वेग आदि के गुण हैं, ऐसी प्रशंसनीय नौकाओं की, (इषः) या इष्यन्ते ता इष्टसुखसाधिकाः=जो इच्छा करते हैं, उनकी सिद्धि के साधन, (च) समुच्चये=और, (त्रिः) त्रिवारम् वाजवतीः=नौकाओं में उत्तम-उत्तम गुण, वेग आदि वाली प्रशंसनीय नौकाओं की तीन-तीन बार, (पिन्वतम्) प्रीत्या सेवेथाम्=स्नेहपूर्वक सेवन करो, ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
शिल्पविद्या को जानने और कलायंत्रों से यान को चलानेवाले प्रति दिन शिल्पविद्या से यानों को सिद्ध कर तीन प्रकार अर्थात् शारीरिक आत्मिक और मानसिक सुख के लिये धन आदि अनेक उत्तम- उत्तम पदार्थों को इकट्ठा कर सब प्राणियों को सुखयुक्त करें जिससे दिन-रात में सब लोग अपने पुरुषार्थ से इस विद्या की उन्नति कर और आलस्य को छोड़के उत्साह से उसकी रक्षा में निरन्तर प्रयत्न करें ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अश्विनौ) अग्नि व जल के समान यानों को सिद्ध करके प्रेरणा करने और चलाने वाले अध्वर्यु, (अवद्यगोहना) निन्दित दुष्ट कर्मों का आच्छादन करने और उनको दूर करने वाले (अध्वर्यु) [अध्वर्यु नाम से कहे गये] जो यजुर्वेद के कर्मकाण्ड के निपुण ज्ञाता हैं। (युवम्) तुम दोनों (समाने) एक (अहन्) दिन में (मधुना) जल के द्वारा (यज्ञम्) ग्रहण करने योग्य शिल्पादि विद्या सिद्धि करने वाले यज्ञ को (त्रिः) तीन-तीन बार (मिमिक्षतम्) सींचने की इच्छा करो। (अद्य) आज के ही दिन (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (दोषाः) रात्रि में और (उषसः) सूर्य के प्रकाश को प्राप्त हुए दिनों में (त्रिः) तीन-तीन बार (यानानि) यानों का (पिन्वतम्) स्नेहपूर्वक सेवन करो। (वाजवती:) जिन नौकाओं में उत्तम-उत्तम वेग आदि के गुण हैं, ऐसी प्रशंसनीय नौकाओं की (इषः) जो इच्छा करते हैं, उनकी सिद्धि के साधन (च) और (त्रिः) तीन-तीन बार उत्तम-उत्तम गुण, वेग आदि वाली प्रशंसनीय नौकाओं का (पिन्वतम्) स्नेहपूर्वक सेवन करो ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (समाने) एकस्मिन् (अहन्) अहनि दिने (त्रिः) (त्रिवारम्) (अवद्यगोहना) अवद्यानि गर्ह्याणि निंदितानि दुःखानि गूहत आच्छादयतो दूरीकुरुतस्तौ। अवद्यपण्य० ३।१।१०१। इत्ययं निंदार्थे निपातः। ण्यन्ताद्गुहूसंवरण इत्यस्माद्धातोः। ण्यासश्रन्थो युच् अ० ३।३।१०७। इति युच्। ऊदुपधाया गोहः। अ० ६।४।८९। इत्यूदादेशे प्राप्ते। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ती इत्यस्य निषेधः। सुपां सुलुग् इत्याकारदेशश्च। (त्रिः) त्रिवारम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (यज्ञम्) ग्राह्यशिल्पादिसिद्धिकरम् (मधुना) जलेन। मध्वित्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (मिमिक्षतम्) मेदुमिच्छतम् (त्रिः) त्रिवारम् वाजवतीः प्रशस्ता वाजा वेगादयो गुणा विद्यन्ते यासु नौकादिषु ताः। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (इषः) या इष्यन्ते ता इष्टसुखसाधिकाः (अश्विना) वन्हिजलवद्यानसिद्धिं संपाद्य प्रेरकचालकावध्वर्यू। अश्विनावध्वर्यू। श० १।१।२।१७। (युवम्) युवाम्। प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्। अ० ७।२।८८। इत्याकारादेशनिषेधः। (दोषाः) रात्रिषु। अत्र सुपां सुलुग् इति सुब्व्यत्ययः। दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। अस्मभ्यम् शिल्पक्रियाकारिभ्यः (उषसः) प्रापितप्रकाशेषु दिवसेषु। अत्रापि सुब्व्यत्ययः। उष इति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।५। (च) समुच्चये (पिन्वतम्) प्रीत्या सेवेथाम् ॥३॥
विषयः- पुनस्ताभ्यां कृतैर्यानैः किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे अश्विनावद्यगोहनाध्वर्यू युवं युवां समानेऽहनि मधुना यज्ञं त्रिर्मिमिक्षतमद्यास्मभ्यं दोषा उषसः त्रिर्यानानि पिन्वतं वाजवतीरिषश्च त्रिः पिन्वतम् ॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- शिल्पविद्याविद्विद्वांसो यंत्रैर्यानं चालयिंताश्च प्रतिदिनं शिल्पविद्यया यानानि निष्पाद्य त्रिधा शरीरात्ममनः सुखाय धनाद्यनेकोत्तमान् पदार्थानर्जयित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तु। येनाहोरात्रे सर्वे पुरुषार्थेनेमां विद्यामुन्नीयालस्यं त्यक्तोत्साहेन तद्रक्षणे नित्यं प्रयतेरन्निति ॥३॥
विषय
माधुर्य - सेचन
पदार्थ
१. प्राणों की साधना के द्वारा सम्पूर्ण दिन ('समान') - [सम्यक् आनयति प्राणयति] उत्साह व प्राणशक्ति - सम्पन्न बीतता है, अतः कहते हैं कि हे (अश्विना) - प्राणापानो ! (समाने अहन्) - इस उत्साहसम्पन्न दिन में (त्रिः) - तीन बार व तीन प्रकार से इन्द्रियों, मन व बुद्धि में (अवद्यगोहना) - दोषों को संवृत करनेवाले, अर्थात् इनको दोषों से बचानेवाले तुम (त्रिः) - तीन बार ही (अद्य) - आज (यज्ञम्) - हमारे इस जीवन - यज्ञ को (मधुना) - माधुर्य से (मिमिक्षतम्) - खूब ही सींच दो । हमारी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सब मधुर - ही - मधुर हों - इनकी कोई भी क्रिया 'अ मधुर' न हो ।
२. हे प्राणापानो ! (युवम्) - आप दोनों (दोषा उषसः च) - रात्रि व दिन में [उषा दिन का प्रतीक है] (त्रिः) - तीन बार (वाजवतीः इषः) - शक्ति - सम्पन्न अन्नों को (अस्मभ्यम्) - हमारे लिए (पिन्वतम्) - [सिञ्चतं प्रयच्छतम् - सा०] सींचो, अर्थात् दो । प्राणापान ने ही अन्न का पाचन करना होता है, इनके ठीक कार्य करने पर ही भूख लगती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से [क] इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि के दोष दूर होते हैं, [ख] जीवन मधुर बनता है [ग] पौष्टिक अन्न का ठीक पाचन होकर शरीर की शक्ति बढ़ती हैं । यहाँ प्रसंगवश अधिक - से - अधिक तीन बार भोजन का भी संकेत है ।
विषय
स्त्री पुरुष, राजा मन्त्री रथी सारथी का वर्णन ।
भावार्थ
हे (अवद्यगोहना) एक दूसरे के दोषों, भौर निन्दनीय कार्यों को आच्छादित या गोपन करनेवाले स्त्री पुरुषो ! (समाने अहनि) एक ही दिन में आप दोनों (त्रिः त्रिः) तीन तीन वार, अर्थात् वार वार (मधुना) मधुर गुणवाले जल से, अन्न से, बल से और मधु के समान मधुर गुण से (यज्ञं) यज्ञ, आत्मा, शरीर और मन को (मिमिक्षतम्) नित्य सेचन करो। हे (अश्विना) ऐश्वर्यों के भोक्ता, परस्पर प्रेमी स्त्री पुरुषो! (यूयम्) तुम दोनों (अस्मभ्यम्) हमारे हित के लिए (दोषाः उषः च) दिन और रात (वाजवतीः इषः) बलयुक्त अन्न, वेगवती शुभ कामनाओं को और ज्ञान वाली प्रेरणाओं को (त्रिः) तीन वार, वार वार (पिन्वतम्) सेचन करो। उनको पूर्ण करो। राजा मन्त्री, रथी सारथि के पक्ष में—दोनों एक दूसरे के दोषों, मर्मों त्रुटियों को आघात होने से बचावें। वे (यज्ञं) प्रजापति पद या राज्यपद को मधुर सौम्यभाव से युक्त करें। (वाजवतीः इषः) बलवती सेनाओं को भीतर बाहर और सीमा पर रक्खें। शिल्पीगण यन्त्र के दोष या मर्म की रक्षा करें, शिल्प यन्त्र (मधुना) घृत या स्निग्ध पदार्थ तेल आदि से बार बार सींचें। वेग वाली (इषः) प्रेरणा देने वाली शक्तियों को लगायें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
शिल्पविद्या जाणणारा व कलायंत्राने यान चालविणारा या दोघांनी प्रत्येक दिवशी शिल्पविद्येने यानांना सिद्ध करून तीन प्रकारे शारीरिक, आत्मिक व मानसिक सुखासाठी धन इत्यादी अनेक उत्तम पदार्थांना एकत्र करावे व सर्व प्राण्यांना सुखयुक्त करावे, ज्यामुळे दिवसा व रात्री सर्व लोकांनी आळस सोडून आपल्या पुरुषार्थाने या विद्येची वाढ करून उत्साहाने तिच्या रक्षणासाठी सतत प्रयत्न करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, scholars of science and locomotion, covering your gaps and weaknesses, in one day complete the threefold yajna of science (in food, energy and speed of locomotion with fire and water). Both of you develop for us thrice powerful food and energy, and let the days and nights abound in food, energy, speed and progress.
Subject of the mantra
Then what should be accomplished by the vehicles that have been perfected by them, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (aśvinau) Adhvaryu, who inspires and steers by perfecting vehicles like fire and water, (avadyagohanā) =to cover up and remove condemned evil deeds (adhvaryu) [Called by the name Adhwaryu] mantrad in the rituals of Yajurveda, (yuvam)=both of you, (samāne)=one, (ahan)=in daytime, (madhunā)=by water,(yajñam)=acceptable Yajna by knowledge of craftsmanship etc. (triḥ)=thrice, (mimikṣatam)=wish to irrigate, (adya)=to day itself, (asmabhyam)=for us, (doṣāḥ)=at night, [aura]=and, (uṣasaḥ)=in the days having the sunlight, (triḥ)=thrice, (yānāni)=of vehicles, (pinvatam)=use lovingly, (vājavatī:)= The boats which have the qualities of excellent speed etc., are of praiseworthy boats, (iṣaḥ) =means of fulfillment of those who desire, (ca)=and, (triḥ)=thrice, praise-worthy boats of best quality, speed etc. (pinvatam)=service carefully.
English Translation (K.K.V.)
O Adhwaryu, who inspires and steers by perfecting vehicles like fire and water! The ones who cover up and remove the condemned evil deeds [called as Adhwaryu are those expert in the rituals of Yajurveda]. Both of you wish to irrigate, can accomplish knowledge of craftsmanship with water on this very day for us, at night and during the days received by the Sun; service the vehicles carefully thrice. Those who have the qualities of great speed, et cetera, such praiseworthy boats desire, the means of their accomplishment and service carefully thrice a day.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Knowing the craftsmanship and wielding the craft with the help of instruments, by perfecting the vehicles every day with the help of craftsmanship, make all the living beings happy by collecting three types, i.e. money for physical, spiritual and mental happiness, etc. Efforts should be made to protect this knowledge by making efforts and leaving laziness and zealously protecting it.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What all should be accomplished with these conveyances made by expert artisans is taught in the next Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O expert artisans, the manufacturers and conductors of the conveyances like the fire and water, you who are dispellers of all evils and miseries thrice every day, sprinkle thrice the Yajna (in the form of an industrial enterprise or undertaking beneficial to all) with water and other necessaries. Provide us thrice with suitable vehicles in day time and at night and provide us with speedy boats and steamers which give us desirable happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अवद्यगोहना) अवद्यानि गर्ह्याणि निन्दितानि दुःखानि गूहतः आच्छादयतः दूरीकुरुतः तौ । अवद्य पण्यवर्या गह्यं पणितव्यांनिरोधेषु (अष्टा० ३.१०१ ) इत्ययं निन्द्यार्थे निपात: च्यन्ताद् गुहू संवरणे इत्यस्माद् धातोः ण्यासश्रथोयुच् | (अष्टा० ३.३.१०७ ) इतियुच् ॥ = Removers of all evils and consequent miseries. ( यज्ञम् ) ग्राह्यशिल्पादिसिद्धिकरम् = Yajna— Accomplisher of art and industry etc. (इष:) या: इष्यन्ते ताः इष्टसुखसाधिकाः नौकादयः = Boats and steamers, givers of desirable happiness.( अश्विना ) वह्निजलवद् यानसिद्धं सम्पाद्य प्रेरक चालकौ अध्वर्यू | अश्विनावध्वर्यू । (शतपथे १.१.२.१७ ) । = The impellers and conductors of various vehicles with fire and water etc. (दोषा ) रात्रिषु । अत्र सुपां सुलुक (अष्टा० ७.१.३९) इति सुब् व्यत्ययः । दोषेति रात्रिनामसु (निघ० १.७) = At nights.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned artisans and conductors of vehicles with machines should manufacture various conveyances artistically for the happiness and pleasure of the body, mind and soul. They should earn money and make all beings happy, so that every one may learn this science and make progress in it day and night industriously, giving up indolence and endeavor to preserve it with zeal.
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