ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्विस्तारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अग्ने॒ पूर्वा॒ अनू॒षसो॑ विभावसो दी॒देथ॑ वि॒श्वद॑र्शतः । असि॒ ग्रामे॑ष्ववि॒ता पु॒रोहि॒तोऽसि॑ य॒ज्ञेषु॒ मानु॑षः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । पूर्वाः॑ । अनु॑ । उ॒षसः॑ । वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो । दी॒देथ॑ । वि॒श्वऽद॑र्शतः । असि॑ । ग्रामे॑षु । अ॒वि॒ता । पु॒रःऽहि॑तः । असि॑ । य॒ज्ञेषु॑ । मानु॑षः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः । असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । पूर्वाः । अनु । उषसः । विभावसो इति विभावसो । दीदेथ । विश्वदर्शतः । असि । ग्रामेषु । अविता । पुरःहितः । असि । यज्ञेषु । मानुषः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अग्ने) विद्याप्रकाशक विद्वन् (पूर्वाः) अतीताः (अनु) पश्चात् (उषसः) या वर्त्तमाना आगामिन्यश्च (विभावसो) विशिष्टां भां दीप्तिं वासयति तत्सम्बुद्धौ (दीदेथ) विजानीहि (विश्वदर्शतः) विश्वैः सर्वैः संप्रेक्षितुं योग्यः (असि) (ग्रामेषु) मनुष्यादिनिवासेषु (अविता) रक्षणादिकर्त्ता (पुरोहितः) सर्वसाधनसुखसम्पादयिता (असि) (यज्ञेषु) अश्वमेधादिशिल्पांतेषु (मानुषः) मनुष्याकृतिः ॥१०॥
अन्वयः
पुनः स कीदृशः किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे विभावसोऽग्ने विद्वन् ! विश्वदर्शतो यस्त्वं पूर्वा अनु पश्चादागामिनीर्वर्त्तमाना वोषसो दीदेथ ग्रामेष्ववितासि यज्ञेषु मानुषः पुरोहितोऽसि तस्मादस्माभिः पूज्यो भवसि ॥१०॥
भावार्थः
विद्वान् सर्वेषु दिनेष्वेकं क्षणमपि व्यर्थन्न नयेत् सर्वोत्तमकार्य्याऽनुष्ठानयुक्तानि सर्वाणि दिनानि जानीयादेवमेतानि ज्ञात्वा प्रजारक्षको यज्ञानुष्ठाता सततं भवेत् ॥१०॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (विभावसो) विशेष दीप्ति को बसानेवाले (अग्ने) विद्या को प्राप्त करनेहारे विद्वान् ! (विश्वदर्शतः) सभों को देखने योग्य आप (पूर्वाः) पहिले व्यतीत (अनु) फिर (उषसः) आने वाली और वर्त्तमान प्रभात और रात दिनों को (दीदेथ) जानकर एक क्षण भी व्यर्थ न खोवे आप ही (ग्रामेषु) मनुष्यों के निवास योग्य ग्रामों में (अविता) रक्षा करनेवाले (असि) हो और (यज्ञेषु) अश्वमेघ आदि शिल्प पर्य्यन्त क्रियाओं में (मानुषः) मनुष्य व्यक्ति (पुरोहितः) सब साधनों के द्वारा सब सुखों को सिद्ध करनेवाले (असि) हो ॥१०॥
भावार्थ
विद्वान् सब दिन एक क्षण भी व्यर्थ न खोवे सर्वथा बहुत उत्तम-२ कार्य्यों के अनुष्ठान ही के लिये सब दिनों को जानकर प्रजा की रक्षा वा यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला निरन्तर हो ॥१०॥
विषय
विश्वदर्शतः पुरोहितः
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (विभावसो) - ज्ञानदीप्तिरूप धनवाले प्रभो ! आप (पूर्वाः उषसः अनुदीदेथ) - प्राचीन उषः कालों की भाँति इन उषः कालों में भी चमकते हो । वस्तुतः प्रभु स्वयं तो सदा देदीप्यमान हैं, परन्तु हमारे हृदयों में प्रभु का प्रकाश इन शान्त उषः कालों में ही सम्भव है । इनका नाम ही 'ब्राह्ममुहूर्त' हो गया है ।
२. हे प्रभो ! आप (विश्वदर्शतः असि) - सबसे दर्शनीय हैं । जो भी अपने हृदय को निर्मल बनाता है, वही प्रभु का दर्शन कर पाता है । प्रभुदर्शन के लिए दिशा, काल अथवा देश, जाति आदि का भेद कोई महत्त्व नहीं रखता ।
३. (ग्रामेषु अविता) - नगरों में नगरों में रहनेवाले लोगों का रक्षण करनेवाले आप ही हैं ।
४. (पुरोहितः असि) - सब लोगों के सामने [पुरः] आप आदर्श के रूप में विद्यमान हैं [हितः] । आपके गुणों का स्तवन करते हुए हम अपने जीवन के आदर्श को देख पाते हैं ।
५. उन गुणों को धारण करते हुए जब हम (यज्ञेषु) - उत्तम कर्मों में व्याप्त होते हैं तब आप (मानुषः) - यज्ञों के होने पर मनुष्य का कल्याण व हित करते हैं । यज्ञों के द्वारा प्रभु मानवहित का साधन करते हैं । ये यज्ञ 'इष्ट कामधुक्' हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सदा दीप्त हैं । ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु का दर्शन होता है । प्रभु ही हमारे रक्षक हैं । यज्ञों के द्वारा मानवमात्र का कल्याण करनेवाले हैं ।
विषय
अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन
भावार्थ
हे (विभावसो) विशेष दीप्ति या प्रकाश से समस्त लोकों को आच्छादित करनेवाले (अग्ने) अग्नि और सूर्य के समान तेजस्विन्! तू (पूर्वाः उषसः अनु) पूर्व के उषाकालों या दिनों के समान ही (विश्वदर्शतः) समस्त संसार में दर्शनीय होकर (दीदेथ) प्रकाशित हो और विज्ञान और तेज का प्रकाश कर। तू (ग्रामेषु) जनसंघों और प्रजा के निवास योग्य स्थानों और संग्रामों में (अविता असि) ज्ञानदाता और रक्षक हो। (यज्ञेषु) यज्ञों में, प्रजापालन आदि के उत्तम कार्यों में (मानुषः) सब मनुष्यों का हितकारी होकर (पुरः हितः असि) प्रदीप्त अग्नि के समान ज्ञान प्रकाश और सत्यासत्य के विवेक के लिए साक्षीरूप से आगे उत्तम पद पर स्थापित (असि) किया जाय। इत्येकोनत्रिंशद् वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विराड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विभावसः अग्ने विद्वन् ! विश्वदर्शतः यः त्वं पूर्वा अनु पश्चात् आगामिनीः वर्त्तमाना वा उषसः दीदेथ ग्रामेषु अविता असि यज्ञेषु मानुषः पुरोहितःअसि तस्मात् अस्माभिः पूज्यः भवसि ॥१०॥
पदार्थ
हे (विभावसो) विशिष्टां भां दीप्तिं वासयति तत्सम्बुद्धौ= विशिष्ट दीप्तिवाले, (अग्ने) विद्याप्रकाशक विद्वन्= विद्या के प्रकाशक विद्वान् ! (विश्वदर्शतः) विश्वैः सर्वैः संप्रेक्षितुं योग्यः=सबकी छानबीन करने योग्य, (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (पूर्वाः) अतीताः= अतीत के और (अनु) पश्चात्=आगामिनीः=आनेवाले समय में, (वर्त्तमाना)=विद्यमान, (वा)=और, (उषसः) या वर्त्तमाना आगामिन्यश्च=जो उषायें विद्यमान हैं और आगमी हैं, उन्हें (दीदेथ) विजानीहि=हम जानें, (ग्रामेषु) मनुष्यादिनिवासेषु =मनुष्य आदि के निवास स्थान ग्रामों में, (अविता) रक्षणादिकर्त्ता= रक्षण आदि करनेवाले, (असि)= तुम हो, (यज्ञेषु) अश्वमेधादिशिल्पांतेषु= अश्व, मेध, आदि यज्ञों की विद्याओं में, (मानुषः) मनुष्याकृतिः= मनुष्य के रूप में, (पुरोहितः) सर्वसाधनसुखसम्पादयिता= सबके साधनों और सुखों को प्राप्त करानेवाले, (असि)= तुम हो, (तस्मात्)=इसलिये, (अस्माभिः)=हमारे, (पूज्यः)=पूजनीय, (भवसि)=होओ ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
विद्वान् सदैव एक क्षण भी व्यर्थ न खोवे, सर्वोत्तम कार्यों का अनुष्ठान के साथ ही करे, सब दिनों को जान करके प्रजा का रक्षक और यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला निरन्तर होवे ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विभावसो) विशिष्ट दीप्तिवाले [और] (अग्ने) विद्या के प्रकाशक विद्वान् ! (यः) जो (विश्वदर्शतः) सबकी छानबीन करने योग्य (त्वम्) तुम (पूर्वाः) अतीत के [और] (अनु) आगामी समय में (वर्त्तमाना) विद्यमान होनेवाली (उषसः) उषायें अर्थात् प्रातःकाल से पूर्व की बेला यें हैं, [उन्हें] (दीदेथ) हम जानें। (ग्रामेषु) मनुष्य आदि के निवास स्थान ग्रामों में (अविता) रक्षण आदि करनेवाले (असि) तुम हो। (यज्ञेषु) अश्वमेध आदि यज्ञों की विद्याओं में (मानुषः) मनुष्य के रूप में (पुरोहितः) सबके साधन और सुखों को प्राप्त करानेवाले (असि) तुम हो। (तस्मात्) इसलिये [तुम] (अस्माभिः) हमारे (पूज्यः) पूजनीय (भवसि) होओ ॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (अग्ने) विद्याप्रकाशक विद्वन् (पूर्वाः) अतीताः (अनु) पश्चात् (उषसः) या वर्त्तमाना आगामिन्यश्च (विभावसो) विशिष्टां भां दीप्तिं वासयति तत्सम्बुद्धौ (दीदेथ) विजानीहि (विश्वदर्शतः) विश्वैः सर्वैः संप्रेक्षितुं योग्यः (असि) (ग्रामेषु) मनुष्यादिनिवासेषु (अविता) रक्षणादिकर्त्ता (पुरोहितः) सर्वसाधनसुखसम्पादयिता (असि) (यज्ञेषु) अश्वमेधादिशिल्पांतेषु (मानुषः) मनुष्याकृतिः ॥१०॥ विषयः- पुनः स कीदृशः किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे विभावसोऽग्ने विद्वन् ! विश्वदर्शतो यस्त्वं पूर्वा अनु पश्चादागामिनीर्वर्त्तमाना वोषसो दीदेथ ग्रामेष्ववितासि यज्ञेषु मानुषः पुरोहितोऽसि तस्मादस्माभिः पूज्यो भवसि ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वान् सर्वेषु दिनेष्वेकं क्षणमपि व्यर्थन्न नयेत् सर्वोत्तमकार्य्याऽनुष्ठानयुक्तानि सर्वाणि दिनानि जानीयादेवमेतानि ज्ञात्वा प्रजारक्षको यज्ञानुष्ठाता सततं भवेत् ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी नेहमी एक क्षणही वाया घालवू नये. सदैव उत्तम कार्याचे अनुष्ठान करून सतत प्रजेचे रक्षण व यज्ञाचे अनुष्ठान करावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, blazing lord of light and knowledge, you are the leading light of the world. You shine before, with, and after the dawns. You are the protector of life in human habitations. You are the image and life of the people and the leader and high-priest in their yajnas from the family yajna upto the world programmes of creation, so human, sacred and divine.
Subject of the mantra
Then how should that scholar be and what should he do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vibhāvaso) =distinguished and brilliant, [aura]=and, (agne)=illuminator of special knowledge, (yaḥ) =that, (viśvadarśataḥ)=able to scrutinize all, (tvam)=you, (pūrvāḥ)=of the past, [aura]=and, (anu)=in future, (varttamānā)=to exist, (uṣasaḥ)=dawns means the time before mornings, [unheṃ]=to them, (dīdetha)=we shoul know, (grāmeṣu)=villages where people live, (avitā)=protectors etc., (asi)=you are, (yajñeṣu)= in the knowledge of Ashwamedh etc. yajnas, (mānuṣaḥ)=as a human, (purohitaḥ)=one who gets everyone's resources and happiness, (asi)=you are, (tasmāt)=therefore,[tuma]=you, (asmābhiḥ) =our, (pūjyaḥ)=honourable, (bhavasi)=be.
English Translation (K.K.V.)
O distinguished scholar and illuminator of knowledge! Let us know those who are worthy of investigation by all of you, the dawns of the past and those exist in the future, i.e. the pre-dawn hours. You are the ones who protects the villages etc., the abode of human beings et cetera. You are the one who gets everyone's resources and happiness in the form of a human being in the knowledge of aśvamedha etc. yajnas. Therefore you be honourable to us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
A scholar should never waste even a single moment, should perform the best tasks with proper rituals, should know all the days and should be a protector of the people and a constant performer of yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O resplendent illuminator of knowledge, worthy of being seen by all, you know and shine forth in all the dawns coming after one another. You are the protector of people in villages. You are a priest in Yajnas, being well-wisher of all people and a true man.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने) विद्याप्रकाशक विद्वन् = A learned man-illuminator of knowledge. (दीदेथ) विजानीहि = Know well.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A learned person should not waste even a single moment. He should know all days to be full of the noblest deeds. Knowing the days as such, he should be the protector of the people and performer of the Yajnas (non-violent noble sacrifices).
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