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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 14
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    शृ॒ण्वन्तु॒ स्तोमं॑ म॒रुतः॑ सु॒दान॑वोऽग्निजि॒ह्वा ऋ॑ता॒वृधः॑ । पिब॑तु॒ सोमं॒ वरु॑णो धृ॒तव्र॑तो॒ऽश्विभ्या॑मु॒षसा॑ स॒जूः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृ॒ण्वन्तु॑ । सोम॑म् । म॒रुतः॑ । सु॒ऽदान॑वः । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । पिब॑तु । सोम॑म् । वरु॑णः । धृ॒तऽव्र॑तः । अ॒श्विऽभ्या॑म् । उ॒षसा॑ । स॒ऽजूः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः । पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शृण्वन्तु । सोमम् । मरुतः । सुदानवः । अग्निजिह्वाः । ऋतवृधः । पिबतु । सोमम् । वरुणः । धृतव्रतः । अश्विभ्याम् । उषसा । सजूः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (शृण्वन्तु) (स्तोमम्) स्तुतिविषयं न्यायप्रज्ञापनम् (मरुतः) विद्वांस ऋत्विजः सुखप्राप्त्यर्हाः सर्वे प्रजास्थाः मनुष्याः। मरुत इत्यृत्विङ्ना०। निघं० ३।१८। पदना० निघं० ५।५। (सुदानवः) शोभनानि दानवो दानानि येषान्ते (अग्निजिह्वाः) अग्निवद्विद्याशब्द प्रकाशिका जिह्वा येषान्ते (ऋतावृधः) ऋतेन सत्येन वर्द्धन्ते ते। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (पिबतु) (सोमम्) पदार्थसमूहजं रसम् (वरुणः) श्रेष्ठः (धृतव्रतः) धृतं सत्यं व्रतं येन सः (अश्विभ्याम्) व्याप्तिशीलाभ्यां सभासेनाधर्माध्यक्षाभ्यामध्वर्युभ्यां (उषसा) प्रकाशेन (सजूः) यः समानं जुषते सः ॥१४॥

    अन्वयः

    पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! अग्निजिह्वा ऋतावृधः सुदानवो मरुतो भवन्तोऽस्माकं स्तोमं शृण्वन्तु। एवं प्रतिजनः सजूर्वरुणो धृतव्रतः सन्नुषसाश्विभ्यां सह सोमं पिबत ॥१४॥॥

    भावार्थः

    या धर्मराजसभानां सकाशादाज्ञाः प्रकाश्यन्ते ताः सर्वैर्मनुष्यैः श्रुत्वा यथावदनुष्ठातव्याः। ये च तत्रस्थाः सभासदो भवेयुस्तेऽपि पक्षपातं विहाय प्रतिदिनं सर्वहिताय सर्वे मिलित्वा यथाऽविद्याऽधर्माऽन्यायनाशो भवेत् तथैव प्रयतेरन्निति ॥१४॥ अस्मिन्सूक्ते धर्मप्राप्तिकरणं दूतत्वसम्पादनं सर्वविद्याश्रवणं परश्रीसंप्रापणं श्रेष्ठपुरुषसम्पादनमुत्तमपुरुषस्तवनसत्कारौ सर्वाभिः प्रजाभिरुत्तमपुरुषपदार्थप्रकाशनं विद्वद्भिः पदार्थविद्यानां सम्पादनं सभाध्यक्षदूतकृत्यं यज्ञानुष्ठानं मित्रतादिसंग्रहणमुत्तमव्यवहारे स्थितिः परस्परं विद्याधर्मराजसभाज्ञाः श्रुत्वाऽनुष्ठानमुक्तमतोऽस्य सूक्तार्थस्य त्रयश्चत्वारिंशत्तमसूक्तोक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति त्रिंशो वर्गः चतुश्चत्वारिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३०॥४४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे होवें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (अग्निजिह्वाः) जिनकी अग्नि के समान शब्द विद्या से प्रकाशित हुई जिह्वा है (ऋतावृधः) सत्य के बढ़ानेवाले (सुदानवः) उत्तम दानशील (मरुतः) विद्वानों ! तुम लोग हम लोगों के (स्तोमम्) स्तुति वा न्याय प्रकाश को (शृण्वन्तु) श्रवण करो, इसी प्रकार प्रतिजन (सजूः) तुल्य सेवने (वरुणः) श्रेष्ठ (धृतव्रतः) सत्य व्रत का धारण करनेहारे सब मनुष्यजन (उषसा) प्रभात (अश्विभ्याम्) व्याप्तिशील सभा सेना शाला धर्माध्यक्ष अध्वर्युओं के साथ (सोमम्) पदार्थविद्या से उत्पन्न हुए आनन्दरूपी रस को (पिबतु) पिओ ॥१४॥

    भावार्थ

    जो विद्या धर्म वा राजसभाओं से आज्ञा प्रकाशित हो सब मनुष्य उनका श्रवण तथा अनुष्ठान करें, जो सभासद् हों वे भी पक्षपात को छोड़कर प्रतिदिन सबके हित के लिये सब मिलकर जैसे अविद्या, अधर्म, अन्याय को नाश होवे वैसा यत्न करें ॥१४॥ इस सूक्त में धर्म की प्राप्ति दूत का करना सब विद्याओं का श्रवण उत्तम श्री की प्राप्ति श्रेष्ठ सङ्ग स्तुति और सत्कार पदार्थ विद्याओं सभाध्यक्ष दूत और यज्ञ का अनुष्ठान मित्रादिकों का ग्रहण परस्पर मिलकर सब कार्य्यों की सिद्धि उत्तम व्यवहारों में स्थिति परस्पर विद्या धर्म राजसभाओं को सुनकर अनुष्ठान करना कहा है इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। यह तीसवां वर्ग और चवालीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३०॥४४॥

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    विषय

    मरुत्, सुदानु, अग्निजिह्व, ऋतावृध्

    पदार्थ

    १.(स्तोमं शृण्वन्तु) - प्रभु के स्तुतिसमूहों को सुनें ! प्रभुगुणों के प्रतिपादक वचनों को सुनकर उनके अनुसार अपने जीवनों को बनाएँ ! ऐसा करने में ही जीवन की सार्थकता है । मैं प्रभु का कीर्तन दयालु नाम से करूँ, और व्यवहार में क्रूर बनूं तो सब कोई यही कहेगा कि इसने क्या कीर्तन सुना व किया ? 
    २. वास्तव में प्रभु - कीर्तन को सुननेवाले ये व्यक्ति [क] (मरुतः) - [मितराविणः , महद् द्रवन्ति, निरु० ११/१३] मितरावी - कम बोलनेवाले और खूब क्रियाशील होते हैं [ख] (सुदानवः) - उत्तम दानशील, वासनाओं का लवण करनेवाले [दाप् लवणे] और अपना शोधन करनेवाले [दैप शोधने] होते हैं [ग] (अग्निजिह्वाः) - [अग्निवद् विद्याशब्दप्रकाशिका जिह्वा येषां ते - द०] अग्नि के समान ज्ञानप्रकाश देनेवाली वाणीवाले होते हैं [घ] (ऋतावृधः) - अपने जीवन में ऋत - यज्ञ व उत्तम कर्मों का वर्धन करनेवाले होते हैं । 
    ३. इस प्रकार सच्चे रूप में प्रभुस्तवन का श्रवण करने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह (वरुणः) - ईर्ष्या - द्वेष आदि का निवारण करनेवाला (धृतवतः) - व्रतों का धारण करनेवाला बनकर (अश्विभ्याम्) - प्राणापानों तथा (उषसा सजूः) - उषः काल के साथ (सोमं पिबतु) - सोम का पान करे, शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति करनेवाला बने । शक्ति की ऊर्ध्वगति के लिए चार बातों का यहाँ संकेत है - [क] हम वरुण बनें, द्वेषादि से बचें, [ख] व्रती जीवनवाले हों, [ग] प्राणापान का संयम करने के लिए प्रतिदिन प्राणायाम करें, [घ] प्रातः जागरण की वृत्तिवाले हों । 
    ४. वस्तुतः सोमरक्षण करनेवाला व्यक्ति ही स्तोमों का ठीक प्रकार से श्रवण कर पाता है । यह 'मरुत्, सुदानु, अग्निजिह्व और ऋतावृध' बनता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के स्तवन का श्रवण करते हुए 'मरुत्, सुदानु, अग्निजिह्व व ऋतावृध' बनें । वरुण व धृतव्रत होकर प्राण - साधना व प्रातः जागरण के अभ्यासी बनकर सोम का पान करें, शक्ति का शरीर में ही रक्षण करें । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ सत्सङ्ग द्वारा ज्ञान व धन की प्रार्थना से होता है [१] । ज्ञानवर्धन के लिए सात्त्विक अन्न का ही सेवन करें [२] । प्रभु 'धूमकेतु' हैं - हमारी कामवासनाओं को दूर करके हमें यज्ञशील बनाते हैं [३] । इसलिए हमारा प्रत्येक प्रातः काल प्रभुस्तवन से ही प्रारम्भ हो [४] । प्रभु - स्तवन का हम दृढ़ निश्चय करें [५] । वे प्रभु 'सुशंस, मधुजिह्व और स्वाहुत हैं [६] । 'होता तथा विश्ववेदस्' हैं [७] । मेधावी व सशक्त बनकर हम प्रभु के स्वागत की तैयारी करें [८] । वे प्रभु ही सब यज्ञों के रक्षक हैं [९] । प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में हम इस प्रभु का दर्शन करने के लिए तैयार हों [१०] । ज्ञान - साधना करते हुए प्रभु को हृदय में धारण करें [११] । उस प्रभु के शान्त व दीप्त ज्ञान को सिद्ध करें [१२] । प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनें, इसके लिए हम प्रातः से ही यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त हो जाएँ [१३] । मरुत्, सुदानु, अग्निजिह्व व ऋतावृध्' बनें [१४] । ऐसा बनने के लिए 'वसु, रुद्र व आदित्य' लोगों के सम्पर्क में आएँ - 
     

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    विषय

    धृतव्रत वरुण के सोमपान का रहस्य ।

    भावार्थ

    (सुदानव) उत्तम व्यवस्थित रीति से देने वाले (ऋताधः) सत्य के बढ़ाने और सत्य के बल से बढ़ने वाले (अग्निजिह्वाः) विद्वान् पुरुषों को अपनी वाणी या मुख बनाने वाले (मरुतः) प्रजा के मनुष्य (स्तोमम्) न्यायपूर्वक कहे आज्ञा वचनों को (शृण्वन्तु) श्रवण करें। वे और (वरुणः) स्वयं प्रजाओं द्वारा वरण किया गया, सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश, (घृतव्रतः) समस्त व्रतों नियमों को धारण करने वाला, (अश्विभ्याम्) दो मुख्य विद्वानों और (उषसा) दुष्ट पापी पुरुषों की संताप देने वाली पोलिस अथवा तत्वप्रकाश करने वाली न्यायसभा के (सजूः) साथ मिल कर (सोमम्) कूट पीस कर निकले ओषधि रस के समान वादविवाद द्वारा निर्णय किये तत्व को (पिबतु) ग्रहण करे। अर्थात् प्रजाजन विद्वान् वकील को प्रमुख करें, सत्य से बढ़ें, उत्तम रीति से फीस शुल्क दें और न्याय प्राप्त करें। न्यायाधीश दो विद्वानों तथा न्यायसभा या ज्यूरी से मिल कर तत्व को ग्रहण करे। सेनापति और सैनिकों के पक्ष में—(मरुतः) वीर सैनिक वायु के समान तीव्र (सुदानवः) उत्तम रीति से शत्रु को काटने और प्रजा के पालक और उत्तम वेतन दिये जाकर (ऋतावृधः) बल और राष्ट्र को बढ़ाते हुए (स्तोमं) आज्ञा वचन सुनें। (वरुणः) राजा, नियम पालक होकर विद्वानों और चतुरंग सेना और राजसभा से मिल कर (सोमं) राष्ट्र को वश करे, भोग करे। इति त्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वे विद्वान् कैसे होवें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! अग्निजिह्वा ऋतावृधः सुदानवः मरुतः भवन्तः अस्माकं स्तोमं शृण्वन्तु। एवं प्रतिजनः सजूः वरुणः धृतव्रतः सन् उषसा अश्विभ्यां सह सोमं पिबत ॥१४॥॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)=मनुष्यों (अग्निजिह्वाः) अग्निवद्विद्याशब्द प्रकाशिका जिह्वा येषान्ते= अग्नि के समान विद्या के शब्दों को प्रकाशित करनेवाली जिह्वावाले, (ऋतावृधः) ऋतेन सत्येन वर्द्धन्ते ते=ऋत और सत्य से बढ़नेवाले, (सुदानवः) शोभनानि दानवो दानानि येषान्ते=शोभनीय दान करनेवाले, (मरुतः) विद्वांस ऋत्विजः सुखप्राप्त्यर्हाः सर्वे प्रजास्थाः मनुष्याः=सुख प्राप्ति के योग्य समस्त प्रजा में स्थित विद्वान् ऋत्विज! (भवन्तः)=आप सब, (अस्माकम्)=हमारे, (स्तोमम्) स्तुतिविषयं न्यायप्रज्ञापनम्= स्तुति सम्बन्धी न्याय का विवरण, (शृण्वन्तु)=सुनो, (एवम्)=ऐसे ही, (प्रतिजनः)=हर किसी के साथ, (सजूः) यः समानं जुषते सः=समान मिलकर चलन्वाले, (वरुणः) श्रेष्ठः= श्रेष्ठ, (धृतव्रतः+सन्) धृतं सत्यं व्रतं येन सः= सत्य का व्रत करते हुए, (उषसा) प्रकाशेन= प्रकाश से, (अश्विभ्याम्) व्याप्तिशीलाभ्यां सभासेनाधर्माध्यक्षाभ्यामध्वर्युभ्यां= व्याप्त होने के स्वभाव के सभा, सेना, धर्म और हिंसारहित यज्ञों के, (सह)=साथ, (सोमम्) पदार्थसमूहजं रसम्= पदार्थों के समूह से निकाले गये रस को, (पिबत) पिबतु= पिओ ॥१४॥॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो धर्म और राज सभाओं की समीपता से आज्ञा प्रकाशित होती हैं, उनको सब मनुष्य सुनकर यथावत् पालन करें। जो वहां उपस्थित सभासद् हों, वे भी पक्षपात को छोड़कर प्रतिदिन सबके हित के लिये सब मिलकर जैसे अविद्या, अधर्म, अन्याय को नाश होवे वैसा प्रयत्न करें ॥१४॥

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में धर्म की प्राप्ति करने के लिये, दूत का कार्य करने के लिये, का सब विद्याओं के ज्ञान को सुनना, दूसरों के सौभाग्य को प्राप्त करने के लिये, श्रेष्ठ पुरुषों के कार्य को सम्पादन करने के लिये, उत्तम पुरुषों की स्तुति और सत्कार करना चाहिए। समस्त प्रजाओं के द्वारा उत्तम पुरुषों के पदार्थों को प्रकाशित करने के लिये, विद्वानों के द्वारा पदार्थ विद्या के सम्पादन के लिये सभाध्यक्ष को दूत बनाकर यज्ञ का अनुष्ठान, मित्र आदि को इकट्ठे करने के कार्य की स्थिति व्यवहार में लाते हुए परस्पर विद्या, धर्म और राज, सभाओं की आज्ञाओं को सुनकर अनुष्ठान करने को कहा गया है। इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों (अग्निजिह्वाः) अग्नि के समान विद्या के शब्दों को प्रकाशित करनेवाली जिह्वावाले (ऋतावृधः) ऋत व सत्य से बढ़नेवाले, (सुदानवः) शोभनीय दान करनेवाले [और] (मरुतः) सुख प्राप्ति के योग्य समस्त प्रजा में स्थित विद्वान् ऋत्विज! (भवन्तः) आप सब (अस्माकम्) हमारे (स्तोमम्) स्तुति सम्बन्धी न्याय का विवरण, (शृण्वन्तु) सुनो। (एवम्) ऐसे ही (प्रतिजनः) हर किसी के साथ (सजूः) समान रूप से मिलकर चलनेवाले, (वरुणः) श्रेष्ठ [और] (धृतव्रतः+सन्) सत्य का व्रत करते हुए, (उषसा) प्रकाश से (अश्विभ्याम्+सह) व्याप्त होने के स्वभाव के सभा, सेना, धर्म और हिंसारहित यज्ञों के साथ (सोमम्) पदार्थों के समूह से निकाले गये रस को (पिबत) पीओ ॥१४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (शृण्वन्तु) (स्तोमम्) स्तुतिविषयं न्यायप्रज्ञापनम् (मरुतः) विद्वांस ऋत्विजः सुखप्राप्त्यर्हाः सर्वे प्रजास्थाः मनुष्याः। मरुत इत्यृत्विङ्ना०। निघं० ३।१८। पदना० निघं० ५।५। (सुदानवः) शोभनानि दानवो दानानि येषान्ते (अग्निजिह्वाः) अग्निवद्विद्याशब्द प्रकाशिका जिह्वा येषान्ते (ऋतावृधः) ऋतेन सत्येन वर्द्धन्ते ते। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (पिबतु) (सोमम्) पदार्थसमूहजं रसम् (वरुणः) श्रेष्ठः (धृतव्रतः) धृतं सत्यं व्रतं येन सः (अश्विभ्याम्) व्याप्तिशीलाभ्यां सभासेनाधर्माध्यक्षाभ्यामध्वर्युभ्यां (उषसा) प्रकाशेन (सजूः) यः समानं जुषते सः ॥१४॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे मनुष्याः ! अग्निजिह्वा ऋतावृधः सुदानवो मरुतो भवन्तोऽस्माकं स्तोमं शृण्वन्तु। एवं प्रतिजनः सजूर्वरुणो धृतव्रतः सन्नुषसाश्विभ्यां सह सोमं पिबत ॥१४॥॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- या धर्मराजसभानां सकाशादाज्ञाः प्रकाश्यन्ते ताः सर्वैर्मनुष्यैः श्रुत्वा यथावदनुष्ठातव्याः। ये च तत्रस्थाः सभासदो भवेयुस्तेऽपि पक्षपातं विहाय प्रतिदिनं सर्वहिताय सर्वे मिलित्वा यथाऽविद्याऽधर्माऽन्यायनाशो भवेत् तथैव प्रयतेरन्निति ॥१४॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन्सूक्ते धर्मप्राप्तिकरणं दूतत्वसम्पादनं सर्वविद्याश्रवणं परश्रीसंप्रापणं श्रेष्ठपुरुषसम्पादनमुत्तमपुरुषस्तवनसत्कारौ सर्वाभिः प्रजाभिरुत्तमपुरुषपदार्थप्रकाशनं विद्वद्भिः पदार्थविद्यानां सम्पादनं सभाध्यक्षदूतकृत्यं यज्ञानुष्ठानं मित्रतादिसंग्रहणमुत्तमव्यवहारे स्थितिः परस्परं विद्याधर्मराजसभाज्ञाः श्रुत्वाऽनुष्ठानमुक्तमतोऽस्य सूक्तार्थस्य त्रयश्चत्वारिंशत्तमसूक्तोक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति त्रिंशो वर्गः चतुश्चत्वारिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्या धर्म किंवा राजसभेकडून ज्या आज्ञा दिलेल्या असतील त्यांचे सर्व माणसांनी श्रवण व अनुष्ठान करावे. सभासदांनीही भेदभाव न करता प्रत्येक दिवशी सर्वांनी मिळून सर्वांच्या हितासाठी अविद्या, अधर्म, अन्यायाचा नाश होईल असा प्रयत्न करावा. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Listen to the songs of celebration, Maruts, heroes of the human nation moving at the speed of winds, generous, brilliant as flames of fire and rising in the realms of universal yajna of the divine laws of life and truth. Let Varuna, highest powers of nature and humanity, committed to universal laws, come with the lovely dawn and the Ashvins, complementary currents of life’s energy, and participate in the joys of yajna.

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    Subject of the mantra

    Then how they should become scholars, this topic has been preached in the next mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ)=humans, (agnijihvāḥ)=one with a tongue like fire that illuminates the words of wisdom, (ṛtāvṛdhaḥ)= growing with ṛta and truth, (sudānavaḥ) =those donating splendidly, [aura]=and, (marutaḥ)= Ritvij, the scholar who is present in all the subjects, worthy of happiness, (bhavantaḥ) =all of you, (asmākam) =our, (stomam)=description of praiseworthy justice, (śṛṇvantu) =listen, (evam) =in the same way, (pratijanaḥ)= with everyone, (sajūḥ)=going hand in hand, (varuṇaḥ)= best, [aura]=and, (dhṛtavrataḥ+san) =taking a vow for truth,, (uṣasā)=by the light, (aśvibhyām+ saha)= with the nature of pervading of gathering, army, righteousness and non-violent sacrifices, (somam)= juice extracted from a group of substances, (pibata) =drink.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar ṛtvija, who has a tongue that illuminates the words of knowledge like fire, who grows by virtue and truth, who is admirable in charity and who is worthy of happiness among all the subjects! All of you listen to the description of our praise-related justice. In the same way drink the juice extracted from the group of substances with gathering, army, righteousness and non-violence sacrifices of the nature of being pervaded with light while walking equally with everyone, taking vow for the best and truth.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The underlying order of righteousness and royal assemblies is notified, it is followed by all human beings. The councilors present there should leave aside any partiality and try to destroy ignorance, unrighteousness and injustice every day for the benefit of all.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In this hymn, for the attainment of Dharma, for doing the work of a messenger, for listening to the knowledge of all vidyas; for achieving the good fortune of others; for editing the work of the best men, praise and felicitation of the best men should be done. In order to manifest the substances of the best men by all the subjects; for the editing of material education by the scholars; by making the head of the assembly as the messenger; the rituals of the yajna; the gathering of friends, etc.; bringing mutual knowledge, righteousness and secrets in practice, listening to the orders of the meetings, the above rituals should be performed.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the learned persons be is taught in the fourteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men, may you whose tongue expresses wisdom like the fire, who are strengtheners of eternal law, truth and Yajna, who are munificent, listen to our just requests. May a noble person who has taken vows of truth and justice, drink this juice of various substances along with the Adhvaryus (performers of Yajna) in the form of the President of the Assembly or the Commander-in-chief of the army and President of the Religious Council.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्निजिह्वाः) अग्निवद विद्याशब्द्प्रकाशिका जिह्वा येषां ते = Those whose tongue expresses the words of wisdom. (अश्विभ्याम् ) व्याप्तिशीलाभ्याम् सभासेनाधर्माध्यक्षाभ्याम् अध्वर्युभ्याम् = Adhvaryus in the form of the President of the Assembly or commander-in-chief of the Army and the Dharma Sabha (Religious Council).

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those commands that are issued by the Dharma Sabha and the Raja Sabha (Religious and Royal assemblies) should be obeyed by all people after listening to them attentively. The members of these assemblies also should give up all prejudice or partiality and should put forth their united efforts in such a way as to bring about the destruction of all ignorance un-righteousness and injustice for the welfare of all beings.

    Translator's Notes

    अश्विभ्याम् has been interpreted by Rishi Dayananda as अध्वय्युर्भ्याम् व्याप्तिशींलाभ्यां सभासेनाधर्माध्यक्षाभ्याम् For this meaning, there is the authority of the Brahmanas. अश्विनावध्वर्यू ( ऐतरेय० १.१८ ) शतपथ १.१.२.७ तैत्ति० ३.२.२.१ गोपथ उ० २.६. This hymn is connected with the previous hymn as subjects like the duties of an ambassador or messenger honoring the learned persons, the duties of the President of the Assembly, the performance of Yajna, friendship with all etc. have been dealt with in continuation of the previous hymn. Here ends the Commentary on the forty-fourth hymn or 30th Verga of the first Mandala of the Rigveda.

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