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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    श्रेष्ठं॒ यवि॑ष्ठ॒मति॑थिं॒ स्वा॑हुतं॒ जुष्टं॒ जना॑य दा॒शुषे॑ । दे॒वाँ अच्छा॒ यात॑वे जा॒तवे॑दसम॒ग्निमी॑ळे॒ व्यु॑ष्टिषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रेष्ठ॑म् । यवि॑ष्ठम् । अति॑थिम् । सुऽआ॑हुतम् । जुष्टम् । जना॑य । दा॒शुषे॑ । दे॒वान् । अच्छ॑ । यात॑वे । जा॒तऽवे॑दसम् । अ॒ग्निम् । ई॒ळे॒ । विऽउ॑ष्टिषु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे । देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रेष्ठम् । यविष्ठम् । अतिथिम् । सुआहुतम् । जुष्टम् । जनाय । दाशुषे । देवान् । अच्छ । यातवे । जातवेदसम् । अग्निम् । ईळे । विउष्टिषु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (श्रेष्ठम्) अत्युत्तमम् (यविष्ठम्) बलवत्तरम् (अतिथिम्) नित्यं भ्रमणशीलं सेवितुमर्हम् (स्वाहुतम्) यः सुष्ठु आहूयते तम् (जुष्टम्) विद्वद्भिः प्रीतं सेवितं वा (जनाय) धार्मिकाय विदुषे मनुष्याय (दाशुषे) दात्रे (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान्वा (अच्छ) उत्तमेन प्रकारेण। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (यातवे) यातुं प्राप्तुम्। अत्र तुमर्थे से० इति तवेन् प्रत्ययः। (जातवेदसम्) जातेषु पदार्थेषु विद्यमानमिव व्याप्तविद्यम् (अग्निम्) वह्निवद्वर्त्तमानं विद्वांसम् (ईडे) सत्कुर्याम् (व्युष्टिषु) विशिष्टासु कामनास्वध्येषितासु सतीषु ॥४॥

    अन्वयः

    पुनस्तं कीदृशं गृह्णीयुरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    अहं व्युष्टिषु यातवे दाशुषे जनाय श्रेष्ठं यविष्ठं जुष्टं स्वाहुतं जातवेदसमतिथिमग्निमिव प्रकाशमानं विद्वांसं दूतमन्यान्देवान्वाऽच्छेडे ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैः श्रेष्ठानां धर्मबलानां सर्वैर्विद्वद्भिः सत्कृतानां प्रसन्नस्वभावानां सर्वोपकारकाणां विदुषामतिथीनामेव सत्कारः कर्त्तव्यः यतः सर्वहितं स्यात् ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर किस प्रकार के विद्वान् को ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    मैं (व्युष्टिषु) विशिष्ट पढ़ने के योग्य कामनाओं में (यातवे) प्राप्ति के लिये (दाशुषे) दाता (जनाय) धार्मिक विद्वान् मनुष्य के अर्थ (श्रेष्ठम्) अति उत्तम (यविष्ठम्) परम बलवान् (जुष्टम्) विद्वान् से प्रसन्न वा सेवित (स्वाहुतम्) अच्छे प्रकार बुलाके सत्कार के योग्य (जातवेदसम्) सब पदार्थों में व्याप्त (अतिथिम्) सेवा करने के योग्य (अग्निम्) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान सज्जन अतिथि और (देवान्) दिव्य गुण वाले विद्वानों को (अच्छे) अच्छे प्रकार सत्कार करूं ॥४॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को अति योग्य है कि उत्तम धर्म बल वाले प्रसन्न स्वभाव सहित सब के उपकारक विद्वान् और अतिथियों का सत्कार करें जिससे सब जनों का हित हो ॥४॥

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    विषय

    प्रातःकाल की प्रारम्भिक क्रिया [प्रभुस्तवन]

    पदार्थ

    १. (व्युष्टिषु) - उषः कालों में, अर्थात् प्रतिदिन दिन के आरम्भ में (देवान् अच्छ) - देवों की ओर (यातवे) - प्राप्त होने के लिए अर्थात् दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए, उस (जातवेदसम्) - सर्वज्ञ व सर्वधन (अग्निम्) - अग्रणी प्रभु को (ईळे) - मैं उपासित करता हूँ जो प्रभु 
    २. (श्रेष्ठम्) - प्रशस्यतम हैं, सब देवों में श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता की चरमसीमा है, (यविष्ठम्) - हम उपासकों को भी दुर्गुणों से असम्पृक्त तथा सद्गुणों से सम्पृक्त करनेवाले हैं, (अतिथिम्) - हमारे हित के लिए निरन्तर क्रियाशील हैं [अत सातत्यगमने], (स्वाहुतम्) - सब उत्तम वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले हैं [सु आ हुतं यस्मात्] । 
    ३. उस प्रभु का स्तवन करते हैं जो कि (दाशुषे जनाय) - अपना समर्पण करनेवाले मनुष्य के लिए (जुष्टम्) - [प्रीतिम्] प्रीतिवाले होते हैं । 
    ४. वस्तुतः प्रभुस्तवन हममें दिव्यगुणों का वर्धन करता है । प्रभु की स्तुति से हम वासनाओं से बचकर अच्छाइयों का अपने से मेल करनेवाले बनते हैं । प्रभुस्मरण ही हमें इस प्रलोभनमय संसार में बचानेवाला है । हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हैं । प्रभु हमसे प्रसन्न होते हैं और हमें दुर्गुणों से दूर करके सद्गुणों से अलंकृत करते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए हम प्रतिदिन प्रातः काल को प्रभुस्तवन से प्रारम्भ करें । 
     

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    (व्युष्टिषु) प्रातःकाल के अवसरों में जिस प्रकार (अग्निम् ईळे) हम लोग अग्नि को प्रदीप्त कर परमेश्वर की यज्ञों में उपासना करते हैं। उसी प्रकार हम लोग (श्रेष्ठम् ) सबसे श्रेष्ठ, उत्तम (यविष्ठम्) सब से अधिक बलशाली (अतिथिम्) अतिथि के समान पूजनीय, (जुष्टम्) सबके प्रेमपात्र और सेवा करने योग्य (स्वाहुतम्) अच्छी प्रकार आदर से बुलाये जाने योग्य (दाशुषे जनाय) वेतन, भृति आज्ञा आदि के देनेवाले राजा के हित के लिए (देवान्) विजीगीषु राजाओं, विद्वानों और वीर पुरुषों के प्रति (यातवे) जाने के योग्य (जातवेदसम्) समस्त उपस्थित या वर्तमान कार्यों और व्यवस्थाओं को भली प्रकार जाननेवाले (अग्निम्) ज्ञानी पुरुष का (व्युष्टिषु) नाना प्रकार की इच्छा और कामनाओं की पूर्त्ति के निमित्त (अच्छ ईळे) मैं प्रधान पुरुष नियुक्त करूँ, भेजूँ। उसको अपने अधीन रक्खूँ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर किस प्रकार के विद्वान् को ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहं व्युष्टिषु यातवे दाशुषे जनाय श्रेष्ठं यविष्ठं जुष्टं स्वाहुतं जातवेदसम् अतिथिम् अग्निम् इव प्रकाशमानं विद्वांसं दूतम् अन्यान् देवान् वा अच्छ ईडे ॥४॥

    पदार्थ

    (अहम्)=मैं, (व्युष्टिषु) विशिष्टासु कामनास्वध्येषितासु सतीषु=विशिष्ट कामनाओं में विद्या का अध्ययन करते हुओं में, (यातवे) यातुं प्राप्तुम्=प्राप्त करने के लिये, (दाशुषे) दात्रे=देनेवाले, (जनाय) धार्मिकाय विदुषे मनुष्याय=धार्मिक विद्वान् मनुष्य में, (श्रेष्ठम्) अत्युत्तमम्=अति उत्तम, (यविष्ठम्) बलवत्तरम्=सबसे अधिक बलवान्, (जुष्टम्) विद्वद्भिः प्रीतं सेवितं वा=विद्वानों के द्वारा प्रीतिपूर्वक सेवन किया हुआ, (स्वाहुतम्) यः सुष्ठु आहूयते तम्=जो उत्तम रूप से बुलाया जाता है, उसको (जातवेदसम्) जातेषु पदार्थेषु विद्यमानमिव व्याप्तविद्यम्= जो उत्पन्न होते ही सभी पदार्थों में विद्यमान जैसा विद्या मे व्याप्त है, (अतिथिम्) नित्यं भ्रमणशीलं सेवितुमर्हम्= नित्य भ्रमण करने के स्वभाववाला सेवा करने के योग्य, (अग्निम्) वह्निवद्वर्त्तमानं विद्वांसम्=अग्नि के समान विद्यमान विद्वान्, (इव)=जैसे, (प्रकाशमानम्)= प्रकाशमान, (विद्वांसम्)=विद्वान् को, (दूतम्)=जो पदार्थों को अन्य स्थानों में पहुँचाता है, और (अन्यान्)=अन्यों को, (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान्वा= विद्वान् या दिव्य गुणवालों का, (अच्छ) उत्तमेन प्रकारेण=उत्तम प्रकार से, (ईडे) सत्कुर्याम्=हम सत्कार करें ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों के द्वारा श्रेष्ठ धर्म और बलवाले समस्त विद्वानों के उत्तम कार्यों के द्वारा प्रसन्न स्वभावों से, सबके उपकारों से विद्वान् अतिथियों का ही सत्कार करना चाहिए, क्योंकि इसी में सबका हित होता है ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्) मैं (व्युष्टिषु) विशिष्ट कामनाओं में विद्या का अध्ययन करते हुओं में, (यातवे) प्राप्त करने के लिये, (दाशुषे) देनेवाले (जनाय) धार्मिक विद्वान् मनुष्यों में (श्रेष्ठम्) अति उत्तम और (यविष्ठम्) सबसे अधिक बलवान् (जुष्टम्) विद्वानों के द्वारा प्रीतिपूर्वक सेवन किया हुआ, (स्वाहुतम्) उत्तम रूप से बुलाया जाता हूँ। उसको, (जातवेदसम्) जो उत्पन्न होते ही सभी पदार्थों में विद्यमान जैसा विद्या मे व्याप्त है, (अतिथिम्) नित्य भ्रमण करने के स्वभाववाले सेवा करने के योग्य, (अग्निम्) अग्नि के समान विद्यमान विद्वान् (इव) जैसे (प्रकाशमानम्) प्रकाशमान (विद्वांसम्) विद्वान्, (दूतम्) पदार्थों को दूर पहुँचानेवाले दूत को और (अन्यान्) अन्यों को, (देवान्) जो विद्वान् या दिव्य गुणवाले हैं, उनका (अच्छ) उत्तम प्रकार से (ईडे) हम सत्कार करें ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (श्रेष्ठम्) अत्युत्तमम् (यविष्ठम्) बलवत्तरम् (अतिथिम्) नित्यं भ्रमणशीलं सेवितुमर्हम् (स्वाहुतम्) यः सुष्ठु आहूयते तम् (जुष्टम्) विद्वद्भिः प्रीतं सेवितं वा (जनाय) धार्मिकाय विदुषे मनुष्याय (दाशुषे) दात्रे (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान्वा (अच्छ) उत्तमेन प्रकारेण। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (यातवे) यातुं प्राप्तुम्। अत्र तुमर्थे से० इति तवेन् प्रत्ययः। (जातवेदसम्) जातेषु पदार्थेषु विद्यमानमिव व्याप्तविद्यम् (अग्निम्) वह्निवद्वर्त्तमानं विद्वांसम् (ईडे) सत्कुर्याम् (व्युष्टिषु) विशिष्टासु कामनास्वध्येषितासु सतीषु ॥४॥ विषयः- पुनस्तं कीदृशं गृह्णीयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- अहं व्युष्टिषु यातवे दाशुषे जनाय श्रेष्ठं यविष्ठं जुष्टं स्वाहुतं जातवेदसमतिथिमग्निमिव प्रकाशमानं विद्वांसं दूतमन्यान्देवान्वाऽच्छेडे ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैः श्रेष्ठानां धर्मबलानां सर्वैर्विद्वद्भिः सत्कृतानां प्रसन्नस्वभावानां सर्वोपकारकाणां विदुषामतिथीनामेव सत्कारः कर्त्तव्यः यतः सर्वहितं स्यात् ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी उत्तम धर्मबलयुक्त, सर्वात विद्वान, प्रसन्न स्वभावी, सर्वांचा उपकारक अशा विद्वान अतिथींचा सत्कार करावा. ज्यामुळे सर्व लोकांचे कल्याण होईल. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    In the lights of the dawn of desire and to reach the holy splendours of Divinity, I invoke, worship and serve Agni, lord of light and life and universal knowledge, best and youngest holy light, loving, burning and ever on the move as a blessing for the man of faith and charity with surrender to the Lord.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of scholar should be accepted, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham)=I, (vyuṣṭiṣu)=In the study of knowledge in specific desires, (yātave)=for obtaining, (dāśuṣe)=giver, (janāya)=in righteous scholars, (śreṣṭham)=excellent and, (yaviṣṭham) =most learned among all, (juṣṭam)=fondly served by the learned, (svāhutam)= best called. For him, (jātavedasam)=Which is present in all things as soon as it is born, as pervaded in knowledge, (atithim)=those who have the nature of traveling regularly, capable of serving, (agnim)=scholar like fire, (iva)=like, (prakāśamānam)=radiant, (vidvāṃsam)=scholar, (dūtam)=to the messenger who takes things away and, (anyān)=to others, (devān) hose who are learned or of divine qualities, their, (accha)=in the best way, (īḍe)=we welcome.

    English Translation (K.K.V.)

    I am fondly called by the most excellent and most powerful of scholars, the most excellent and most powerful of righteous scholars who give, in order to obtain, in the study of knowledge in special desires. Let us honour him in the best way, who is present in all things as soon as he is born, who is pervaded in knowledge, who has the nature of ever-travelling, who is capable of being served, who is like fire, who is the messenger who takes things away, and to others who are learned or have divine qualities.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as figurative in this mantra. Only the learned guests should be welcomed by human beings with happy dispositions and with everyone's kindness, by the good deeds of all the scholars having the best righteousness and strength, because this is in everyone's interest.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I praise a learned person who is well-versed in various sciences, is purifier like the fire, the noblest and most youthful (energetic), going from place to place like a guest, well-invited, loved and served by enlightened persons for the fulfilment of noble desires, that he may bring well other truthful learned men to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (व्युष्टिषु) विशिष्टासु कामनासु अध्येषितासु सतीषु = On the occasion of or fulfilment of particular desires ( जातवेदसम्) जातेषु पदार्थेषु विद्यमानमिव व्याप्त विद्यम् =Pervading in or well-versed in various sciences.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should honor such learned guests as are righteous, respected by all learned persons, of cheerful disposition and benevolent.

    Translator's Notes

    Many of the adjectives used in the Mantra for Agni are quite clear to show that here, it is not material fire that is meant, but learned person who is purifier like the fire as explained by Rishi Dayananda. Passages in the Brahmanas like... तस्मात् अनूचानमाहु रग्निकल्प इति ( शत. ६.१.१.१० ) अग्ने महां असि ब्राह्मण भारत (कोषी० ३.२ शत० १.४.२.२) एष वा अग्निवैश्वानरः । यद् ब्राह्मणः ( तैत्तिरीय ब्रा० २.१.४५ ) Fully substantiate Rishi Dayananda's interpretation, Even Wilson translates जातवेदसम् as “who knows all that are born, "following Sayanacharya who explains the word as जातानां वेदितारम् = Knower of all things. Is it applicable to inanimate fire ?

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