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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड् बृहती स्वरः - मध्यमः

    स्त॒वि॒ष्यामि॒ त्वाम॒हं विश्व॑स्यामृत भोजन । अग्ने॑ त्रा॒तार॑म॒मृतं॑ मियेध्य॒ यजि॑ष्ठं हव्यवाहन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्त॒वि॒ष्यामि॑ । त्वाम् । अ॒हम् । विश्व॑स्य । अ॒मृ॒त॒ । भो॒ज॒न॒ । अग्ने॑ । त्रा॒तार॑म् । अ॒मृत॑म् । मि॒ये॒ध्य॒ । यजि॑ष्ठम् । ह॒व्य॒ऽवा॒ह॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन । अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तविष्यामि । त्वाम् । अहम् । विश्वस्य । अमृत । भोजन । अग्ने । त्रातारम् । अमृतम् । मियेध्य । यजिष्ठम् । हव्यवाहन॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तं कीदृशं स्वीकुर्य्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे अमृत भोजन मियेध्य हव्यवाहनाऽग्ने ! जगदीश्वराऽहं विश्वस्य त्रातारं यजिष्ठममृतं त्वां स्तविष्यामि स्तोष्यामि नान्यं कदाचित् ॥५॥

    पदार्थः

    (स्तविष्यामि) स्तोष्यामि (त्वाम्) जगदीश्वरम् (अहम्) (विश्वस्य) समस्तस्य संसारस्य (अमृत) अविनाशिन् (भोजन) पालक (अग्ने) स्वप्रकाशेश्वर (त्रातारम्) अभिरक्षितारम् (अमृतम्) नाशरहितं सदा मुक्तम् (मियेध्य) दुःखानां प्रक्षेप्तः (यजिष्ठम्) सुखानामतिशयितं दातारम् (हव्यवाहन) यो हव्यानि होतुं दातुमर्हाणि द्रव्याणि सुखसाधकानि वहति प्रापयति तत्सम्बुद्धौ ॥५॥

    भावार्थः

    नहि विद्वद्भिरस्य सर्वस्य रक्षकं मोक्षदातारं विद्याकामानन्दप्रदं सेवनीयं परमेश्वरं हित्वा कस्यापीश्वरत्वेनाऽऽश्रयः स्तुतिर्वा कदापि कर्त्तव्या ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर कैसे को ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    (अमृत) अविनाशिस्वरूप (भोजन) पालनकर्त्ता (मियेध्य) प्रमाण करने (हव्यवाहन) लेने देने योग्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (अग्ने) परमेश्वर (अहम्) मैं (विश्वस्य) सब जगत् के (त्रातारम्) रक्षा (यजिष्ठम्) अत्यन्त यजन करनेवाले (अमृतम्) नित्य स्वरूप (त्वा) तुझ ही की (स्तविष्यामि) स्तुति करूंगा ॥५॥

    भावार्थ

    विद्वानों को योग्य है कि इस सब जगत् के रक्षक मोक्ष देने, विद्या काम आनन्द के देने वा वा उपासना करने योग्य परमेश्वर को छोड़ अन्य किसी का भी ईश्वरभाव से आश्रय न करें ॥५॥

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    विषय

    प्रभु - स्तवन का निश्चय

    पदार्थ

    १. हे (अमृत) - कभी भी नष्ट न होनेवाले ! (अग्ने) - अग्रस्थान को प्राप्त करानेवाले ! (विश्वस्य भोजन) - [भुज पालने] सबके पालन करनेवाले ! (मियेध्य) - [मेध्य] संगतिकरण योग्य व उपास्य ! (हव्यवाहन) - हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (अहम्) - मैं (त्वाम्) - आपका ही (स्तविष्यामि) - स्तवन करूंगा । 
    २. आप (त्रातारम्) - सबके रक्षक हैं, रोगादि से बचानेवाले हैं, (अमृतम्) - वासनाओं के कारण हमें कभी भी विषयों के पीछे न मरने देनेवाले हैं, (यजिष्ठम्) - सर्वाधिक पूज्य, संगतिकरण के योग्य व आवश्यक वस्तुओं के देनेवाले हैं [यज - देवपूजा - संगतिकरण - दान] । 
    ३. प्रभुस्तवन से हम बहुत - कुछ प्रभु के अनुरूप बनते हैं, हमारे सामने एक लक्ष्यदृष्टि पैदा होती है और उसकी ओर बढ़ते हुए हम विषयों की चमक से आकृष्ट होकर बीच में ही रुक नहीं जाते । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें प्रभु की उपासना करते हुए प्रभु - जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए । 
     

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन्! विद्वन्! हे (अमृत) अविनाशिन्! हे (भोजन) सबके पालक! हे (मियेध्य) दुःखों के नाशक! हे (हव्यवाहन) ग्रहण करने योग्य अन्न, रत्न आदि पदार्थों और बलों और ज्ञानों को धारण करने वाले! (त्रातारम्) सबको त्राण करने वाले (अमृतं) कभी न मरनेहारे, या न मारने योग्य, अबध्य, (यजिष्ठं) उपासना योग्य, एवं आदर सत्कार करनेयोग्य (त्रातारम्) विपत्तियों से बचानेवाले, (त्वाम्) तेरी (अहम्) मैं (स्तविष्यामि) स्तुति करूँगा। परमेश्वर अमर होने से ‘अमृत’ है। दूत अबध्य होने से ‘अमृत’ है। राजा बल में अदम्य होने से ‘अमृत’ है। आत्मा नित्य होने से ‘अमृत’ है। परमेश्वर पालक होने से, आत्मा भोक्ता होने से राजा भोक्ता और पालक दोनों होने से ‘भोजन’ है। दूत भेंट, उपायन, संदेश आदि ले जाने से ‘हव्यवाहन’ है। ईश्वर स्तोतव्य गुण और जगत् के लोकधारक होने से ‘हव्यवाहन’ है। इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर कैसे (परमेश्वर) को ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अमृत भोजन मियेध्य हव्यवाहन अग्ने ! जगदीश्वरः अहं विश्वस्य त्रातारं यजिष्ठम् अमृतं त्वां स्तविष्यामि स्तोष्यामि न अन्यं कदाचित् ॥५॥

    पदार्थ

    हे (अमृत) अविनाशिन्=अविनाशी, (भोजन) पालक= पालन करनेवाले, (मियेध्य) दुःखानां प्रक्षेप्तः=दुःखों को दूर करनेवाले, (हव्यवाहन) यो हव्यानि होतुं दातुमर्हाणि द्रव्याणि सुखसाधकानि वहति प्रापयति तत्सम्बुद्धौ=जो हव्यों को हवन करने और देने योग्य पदार्थों और सुख के साधनों को प्राप्त कराता है, ऐसा (अग्ने) स्वप्रकाशेश्वर=अपने प्रकाश से प्रकाशित, (जगदीश्वरः)=परमेश्वर ! (अहम्)=मैं, (विश्वस्य) समस्तस्य संसारस्य= समस्त संसार के, (त्रातारम्) अभिरक्षितारम्=हर ओर से रक्षा के लिये, (यजिष्ठम्) सुखानामतिशयितं दातारम्=सुखों को अतिशय रूप से देनेवाले के लिये, (अमृतम्) नाशरहितम्=नाशरहित, (त्वाम्) जगदीश्वरम्=तुम परमेश्वर की, (स्तविष्यामि) स्तोष्यामि=स्तुति करता हूँ, (न)=नहीं, (अन्यम्)= अन्य किसी की, (कदाचित्)=कभी॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वानों के द्वारा इस सकल जगत् के रक्षक मोक्ष देनेवाले, विद्या, कामनाओं और आनन्द के देनेवाले और उपासना करने योग्य परमेश्वर को छोड़कर अन्य किसी का भी ईश्वरभाव से कभी आश्रय नहीं लेना चाहिए और कभी स्तुति नहीं करनी चाहिए ॥५॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- अग्नि में आहुति के रूप में कुछ विशेष पदार्थ और घी मिलाकर हव्य के रूप में भेंट करने की क्रिया।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अमृत) अविनाशी, (भोजन) पालन करनेवाले, (भियेध्य) दुःखों को दूर करनेवाले, (हव्यवाहन) हव्यों को हवन करने और देने योग्य पदार्थों और सुख के साधनों को प्राप्त करानेवाले, (अग्ने) अपने प्रकाश से प्रकाशित (जगदीश्वरः) परमेश्वर ! (अहम्) मैं (विश्वस्य) समस्त संसार की (त्रातारम्) हर ओर से रक्षा के लिये [और] (यजिष्ठम्) सुखों को अतिशय रूप से देनेवाले, (अमृतम्) नाशरहित (त्वाम्) तुम परमेश्वर की (स्तविष्यामि) स्तुति करता हूँ। (अन्यम्) अन्य किसी की [स्तुति] (न+कदाचित्) कभी नहीं [करता हूँ]॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (स्तविष्यामि) स्तोष्यामि (त्वाम्) जगदीश्वरम् (अहम्) (विश्वस्य) समस्तस्य संसारस्य (अमृत) अविनाशिन् (भोजन) पालक (अग्ने) स्वप्रकाशेश्वर (त्रातारम्) अभिरक्षितारम् (अमृतम्) नाशरहितं सदा मुक्तम् (मियेध्य) दुःखानां प्रक्षेप्तः (यजिष्ठम्) सुखानामतिशयितं दातारम् (हव्यवाहन) यो हव्यानि होतुं दातुमर्हाणि द्रव्याणि सुखसाधकानि वहति प्रापयति तत्सम्बुद्धौ ॥५॥ विषयः- पुनस्तं कीदृशं स्वीकुर्य्युरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अमृत भोजन मियेध्य हव्यवाहनाऽग्ने ! जगदीश्वराऽहं विश्वस्य त्रातारं यजिष्ठममृतं त्वां स्तविष्यामि स्तोष्यामि नान्यं कदाचित् ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)-नहि विद्वद्भिरस्य सर्वस्य रक्षकं मोक्षदातारं विद्याकामानन्दप्रदं सेवनीयं परमेश्वरं हित्वा कस्यापीश्वरत्वेनाऽऽश्रयः स्तुतिर्वा कदापि कर्त्तव्या ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी या जगाचा रक्षक, मोक्षदायक, विद्या, कामना आनंद यांचा दाता, उपासना करण्यायोग्य परमेश्वराला सोडून इतर कुणाचाही ईश्वर समजून आश्रय घेऊ नये. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, self-refulgent lord of creation, eternal and imperishable, sustainer of the universe, holiest of the holy and giver of highest gifts of yajna, I shall ever sing in celebration of your glory as the eternal saviour and protector of the world and the worthiest object of worship in yajna.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of God is to be accepted, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (amṛta)=imperishable, (bhojana)=maintainer, (bhiyedhya)=remover of sorrows, (havyavāhana)=the ones who performs havana with the substances of havana and get the things that are worth giving and the means of happiness, (agne)=self effulgent, (jagadīśvaraḥ)=God, (aham)=I, (viśvasya)=of the whole universe, (trātāram) =for protection from all sides, [aura]=and (yajiṣṭham)=giver of pleasures excessively, (amṛtam)=imperishable, (tvām)=of you God, (staviṣyāmi)=praise, (anyam)=of someone else, [stuti] (na+kadācit)=never, [karatā hūṁ]=do.

    English Translation (K.K.V.)

    O the imperishable, the maintainer, the remover of sorrows, the ones who performs havana with the substances of havana and get the things that are worth giving and the means of happiness and the self effulgent ! I praise You, the imperishable God, for the protection of the whole world from all sides and the giver of happiness in abundance. I never praise anyone else.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Scholars should never take refuge in the sense of God and should never praise anyone other than God, the protector of this entire world, the giver of salvation, the giver of knowledge, desires and happiness and who is worthy of worship.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The act of offering some special substances and ghee in the form of offering in the form of oblations in the fire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God Immortal, Nourisher of the universe, Destroyer of all miseries, or bringer of all happiness, I will always glorify Thee the Protector of the world, the Best Giver of all joys and Deathless and none else.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भोजन) पालक = Nourisher or Sustainer. (भुज-पालनाभ्यवहारयोः) Tr. (मियेध्य) दुःखानां प्रक्षेप्तः डुमिञ्-प्रक्षेपणे = Thrower or Destroyer of all miseries.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Learned persons should never glorify and take shelter in any one as God except the Lord who is the Preserver of the world, the Giver of emancipation, Giver of Knowledge, fulfiller of noble desires and bliss and worthy of worship or adoration.

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