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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 11
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती स्वरः - मध्यमः

    नि त्वा॑ य॒ज्ञस्य॒ साध॑न॒मग्ने॒ होता॑रमृ॒त्विज॑म् । म॒नु॒ष्वद्दे॑व धीमहि॒ प्रचे॑तसं जी॒रं दू॒तमम॑र्त्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । त्वा॒ । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् । अग्ने॑ । होता॑रम् । ऋ॒त्विज॑म् । म॒नु॒ष्वत् । दे॒व॒ । धी॒म॒हि॒ । प्रऽचे॑तसम् । जी॒रम् । दू॒तम् । अम॑र्त्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् । मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । त्वा । यज्ञस्य । साधनम् । अग्ने । होतारम् । ऋत्विजम् । मनुष्वत् । देव । धीमहि । प्रचेतसम् । जीरम् । दूतम् । अमर्त्यम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (नि) नितराम् (त्वा) त्वाम् (यज्ञस्य) त्रिविधस्य (साधनम्) साध्नोति येन तत् (अग्ने) विद्वन् (होतारम्) हवनकर्त्तारम् (ऋत्विजम्) यज्ञसंपादकम् (मनुष्वत्) मननशीलेन मनुष्येण तुल्यम् (देवम्)# दिव्यविद्यासम्पन्नम् (धीमहि) धरेमहि (प्रचेतसम्) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य यस्माद्वा तम् (जीरम्) विद्यावन्तम्। अत्र जोरी च। उ० २।२३। अनेनायं सिद्धः। (दूरम्) प्रशस्तबुद्धिमन्तम् (अमर्त्यम्) साधारणमनुष्यस्वभावरहितं स्वस्वरूपेण नित्यम् ॥११॥ #[मूलमन्त्रानुसारेण (देव) हे दिव्यविद्यासम्पन्न। सं०]

    अन्वयः

    पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे देवाग्ने ! सुतसोमाः कण्वासो वयं यज्ञस्य साधनं होतारमृत्विजं प्रचेतसं जीरममर्त्यं दूतं त्वा मनुष्वद्धीमहि ॥११॥

    भावार्थः

    अष्टमान्मंत्रात् (सुतसोमाः) (कण्वासः) इति पदद्वयमनुवर्त्तते नहि विदुषा द्रव्यसामग्र्या च विना यज्ञसिद्धिं कर्त्तुं शक्यते ॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह किस प्रकार का हो, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (देव) दिव्यविद्यासम्पन्न (अग्ने) भौतिक अग्नि के सदृश उत्तम पदार्थों को सम्पादन करनेवाले मेधावी विद्वान् ! हम लोग (यज्ञस्य) तीन प्रकार के यज्ञ के (साधनम्) मुख्य साधक (होतारम्) हवन करने वा ग्रहण करनेवाले (ऋत्विजम्) यज्ञ साधक (प्रचेतसम्) उत्तम विज्ञान युक्त (जीरम्) वेगवान् (अमर्त्यम्) साधारण मनुष्यस्वभाव से रहित वा स्वरूप से नित्य (दूतम्) प्रशंसनीय बुद्धियुक्त वा पदार्थों को देशान्तर में प्राप्त करनेवाले (त्वा) आपको (मनुष्वत्) मननशील मनुष्य के समान (निधीमहि) निरन्तर धारण करें ॥११॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालंकार है। और आठवें मंत्र से (सुतसोमाः) (कण्वासः) इन दो पदों की अनुवृत्ति है। विद्वान् अग्नि आदि साधन और द्रव्य आदि सामग्री के विना यज्ञ की सिद्धि नहीं कर सकता ॥११॥

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    विषय

    प्रचेतस - जीर

    पदार्थ

    १. (अग्ने) - अग्नणी परमात्मन् ! (देव) - दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभो ! आपको मनुष्यवत् विचारशील पुरुष की भांति (निधीमहि) - हम हृदयों में धारण करते हैं । जो आप (यज्ञस्य साधनम्) - सब यज्ञों के सिद्ध करनेवाले हैं, (होतारम्) - सब आवश्यक पदार्थों को देनेवाले हैं, (ऋत्विजम्) - समय - समय पर उपासना के योग्य हैं, (प्रचेतसम्) - प्रकृष्टज्ञानवाले हैं, (जीरम्) - हमारी सब बुराइयों को जीर्ण - शीर्ण करनेवाले हैं , (दूतम्) - ज्ञान का सन्देश देनेवाले हैं और (अमर्त्यम्) - हमें विषय - वासनाओं के पीछे मरने से बचानेवाले हैं । 
    २. [क] यज्ञों के साधन के लिए सब पदार्थों के देनेवाले हैं, [ख] उपासित होने पर प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त कराते हैं, 
    [ग] विषय - वासनाओं को जीर्ण करके ज्ञान देते हैं और हमें मोक्ष - प्राप्ति के योग्य बनाते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारे जीवनों में यज्ञों को सिद्ध करते हैं, ज्ञान देते हैं और हमें मोक्ष - प्राप्ति के योग्य बनाते हैं । 
     

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! परमेश्वर! (त्वा) तुझको हम लोग (यज्ञस्य साधनम्) सुप्रबद्ध, सुसंगत ब्रह्माण्ड, जगत् के (साधनम्) बनाने, पालने और आश्रय देनेहारा, (होतारम्) समस्त सुखों के देनेहारा, या समस्त जगत् को अपने भीतर ले लेनेहारा (ऋत्विजम्) शरीर में प्राणों को स्थापन करनेवाला, सूर्य के समान ऋतुवत् कल्पों २ में प्रलय और सृष्टि करनेवाला, (प्रचेतसम्) उत्कृष्ट ज्ञान वाला, (अमर्त्यम्) अविनाशी, नित्य, (जीरम्) सबको संहार करनेवाला, कालस्वरूप (दूतम्) सर्वोपास्य (मनुष्वत्) ज्ञान, सामर्थ्य से सम्पन्न (नि धीमहि ) करके जानते और मानते हैं और स्थिर करते हैं। विद्वान् राजा के पक्ष में—प्रजापालन के साधक, सुखों के दाता, प्रति ऋतु यज्ञ के कर्ता, अथवा—ऋतु अर्थात् सदस्यों से सम्बद्ध, उत्तम विद्वान् शत्रुओं को नाशकारी, प्रतापी, दूतके समान अबध्य प्रबल जान कर (मनुष्वत्) मानवों से युक्त तुझको राष्ट्र के परम पद पर स्थापित करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह किस विद्वान् प्रकार का हो, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे देव अग्ने ! सुतसोमाः कण्वासः वयं यज्ञस्य साधनं होतारम् ऋत्विजं प्रचेतसं जीरम् अमर्त्यं दूतं नि त्वा मनुष्वत् धीमहि ॥११॥

    पदार्थ

    हे (देव) दिव्यविद्यासम्पन्न=दिव्य विद्या से सम्पन्न (अग्ने) विद्वन्=विद्वान्! (सुतसोमाः)= सुताः सम्पादिता उत्तमाः पदार्था यैस्ते=जो उत्तम पदार्थ बनाये गये हैं, (कण्वासः) मेधाविनः=बुद्धिमानों की, (वयम्) =हम, (यज्ञस्य) त्रिविधस्य= तीन प्रकार के यज्ञ के, (साधनम्) साध्नोति येन तत्=साधन करनेवाले, (होतारम्) हवनकर्त्तारम्=हवन करनेवाले, (ऋत्विजम्) यज्ञसंपादकम्= यज्ञ का संपादन करनेवाले, (प्रचेतसम्) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य यस्माद्वा तम्=जिसका प्रकृष्ट चित्त और विशेष ज्ञान है, (जीरम्) विद्यावन्तम्=विद्यावान, (अमर्त्यम्) साधारणमनुष्यस्वभावरहितं स्वस्वरूपेण नित्यम्= साधारण मनुष्य के स्वभाव से रहित और अपने स्वरूप से नित्य, (दूरम्) प्रशस्तबुद्धिमन्तम्= प्रशसनीय बुद्धिवाला, (नि) नितराम् =नित्य, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (मनुष्वत्) मननशीलेन मनुष्येण तुल्यम्=मननशील मनुष्य के समान, (धीमहि) धरेमहि=हम धारण करें॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में आठवें मंत्र से ‘सुतसोमाः’ और ‘कण्वासः’ इन दो पदों की अनुवृत्ति है। विद्वान अग्नि आदि साधन और द्रव्य आदि सामग्री के विना यज्ञ की सिद्धि नहीं की जा सकती है ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थन्वयः(म.द.स.)- हे (देव) दिव्य विद्या से सम्पन्न (अग्ने) विद्वान् ! (सुतसोमाः) जो उत्तम पदार्थ बनाये गये हैं, [उनसे] (कण्वासः) बुद्धिमान (वयम्) हम (यज्ञस्य) तीन प्रकार के यज्ञ के (साधनम्) साधन करनेवाले, (होतारम्) हवन करने और ग्रहण करनेवाले, (ऋत्विजम्) यज्ञ का संपादन करनेवाले, (प्रचेतसम्) प्रकृष्ट चित्त और विशेष ज्ञानवाले, (जीरम्) विद्यावान, (अमर्त्यम्) साधारण मनुष्य के स्वभाव से रहित अपने स्वरूप से नित्य और (दूरम्) प्रशसनीय बुद्धिवाले (नि) नित्य (त्वा) तुमको (मनुष्वत्) मननशील मनुष्य के समान (धीमहि) हम धारण करें॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (नि) नितराम् (त्वा) त्वाम् (यज्ञस्य) त्रिविधस्य (साधनम्) साध्नोति येन तत् (अग्ने) विद्वन् (होतारम्) हवनकर्त्तारम् (ऋत्विजम्) यज्ञसंपादकम् (मनुष्वत्) मननशीलेन मनुष्येण तुल्यम् (देवम्)# दिव्यविद्यासम्पन्नम् (धीमहि) धरेमहि (प्रचेतसम्) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य यस्माद्वा तम् (जीरम्) विद्यावन्तम्। अत्र जोरी च। उ० २।२३। अनेनायं सिद्धः। (दूरम्) प्रशस्तबुद्धिमन्तम् (अमर्त्यम्) साधारणमनुष्यस्वभावरहितं स्वस्वरूपेण नित्यम् ॥११॥ #[मूलमन्त्रानुसारेण (देव) हे दिव्यविद्यासम्पन्न। सं०] विषयः- पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे देवाग्ने ! सुतसोमाः कण्वासो वयं यज्ञस्य साधनं होतारमृत्विजं प्रचेतसं जीरममर्त्यं दूतं नि त्वा मनुष्वद्धीमहि ॥११॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अष्टमान्मंत्रात् (सुतसोमाः) (कण्वासः) इति पदद्वयमनुवर्त्तते नहि विदुषा द्रव्यसामग्र्या च विना यज्ञसिद्धिं कर्त्तुं शक्यते ॥११॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे व आठव्या मंत्राने (सुतसोमाः) (कण्वासः) या दोन पदांची अनुवृत्ती होते. विद्वान अग्नी इत्यादी साधन व द्रव्य इत्यादी सामग्रीशिवाय यज्ञाची सिद्धी करू शकत नाही. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, you are the ultimate cause, means and end of universal yajna, the high-priest and the yajaka. Lord of brilliance, we constantly perceive, reflect, and meditate on you, worship and internalise you as a very human presence, inspiring, dynamic, illuminating and imperishable.

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    Subject of the mantra

    Then what type of scholar he should be, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (deva)=endowed with divine knowledge, (agne)=scholar, (sutasomāḥ)=the best things which are made, [unase]=by them, (vayam)=we, (kaṇvāsaḥ)=intelligent, (vayam)=we, (yajñasya)=of three types of yajnas, (sādhanam)=performing, (hotāram)=those who perform Havan, (ṛtvijam)=the one who conducts the yajna, (pracetasam)=of great mind and special knowledge, (jīram)=knowledgeable, (amartyam)=devoid of the nature of an ordinary man and eternal in His own form, (dūram)=of admirable intellect, (tvā)=to you, (ni) =perpetually, (manuṣvat) =like contemplator, (dhīmahi) =let us adopt.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar full of divine knowledge! From the best substances that have been made, we are intelligent, the one who performs the three types of yajna, performing the yajna; with great mind and special knowledge; the scholar without the nature of an ordinary person and perpetual in our nature, with praiseworthy intelligence, Let us perpetually adopt like a contemplative man.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, the two terms ' sutasomāḥ ' and ' kaṇvāsaḥ ' are followed from the eighth mantra. Without scholar, fire etc. means and liquid etc. material, the success of yajna cannot be accomplished.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How else should he (Agni) be is taught further in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person full of divine wisdom, we place or appoint you as an Ambassador You who accomplish three kinds of Yajnas, are the performer of the daily homa (non-violent sacrifice ) a ministering priest, very wise, full of true knowledge, highly intelligent like a reflective person, immortal by nature and different from ordinary persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मनुष्वत् ) मननशीलेन मनुष्येण तुल्यम् = Like a reflective person. ( प्रचेतसम् ) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य यस्माद् वा = Full of sublime knowledge. ( अमर्त्यम् ) साधारणमनुष्यस्वभावरहितं स्वस्वरूपेण नित्यम् = Different from the nature of an ordinary person or immortal by nature as soul.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is not possible to perform a Yajna (non-violent sacrifice and philanthropic work) without the help of a learned person and suitable articles.

    Translator's Notes

    By त्रिविधयज्ञ or three kinds of Yajna are meant देवपूजा, संगतिकरण and दान i e honoring the learned, association with the enlightened people and charity as denoted by the root यज्ञ from which the word Yajna ( यज्ञ ) is derived. The adjectives used in the Mantra for अग्नि like होतारम्, ऋत्विजम्, प्रचेतसम्, दूतम् clearly show that the word Agni here stands not for material fire as interpreted by Sayanacharya, Wilson, Griffith and others, but for a highly learned and wise person as explained by Rishi Dayananda. Even Sayanacharya has interpreted प्रचेतसम् as प्रकृष्टज्ञानयुक्तम् or full of sublime knowledge. Prof. Wilson has rightly translated it as “ very wise" and Griffith also as “exceeding wise." Is it applicable to inanimate material fire ? ऋत्विजम् has been translated by Sayanacharya as ऋतौ वसन्तादिके यष्टारम् which has been rendered into English both by Prof. Wilson and Griffith as ministering priest, According to Sayanacharya and others means वेगवन्तम् or swift.

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