ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
होता॑रं वि॒श्ववे॑दसं॒ सं हि त्वा॒ विश॑ इ॒न्धते॑ । स आ व॑ह पुरुहूत॒ प्रचे॑त॒सोऽग्ने॑ दे॒वाँ इ॒ह द्र॒वत् ॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑रम् । वि॒श्वऽवे॑दसम् । सम् । हि । त्वा॒ । विशः॑ । इ॒न्धते॑ । सः । आ । व॒ह॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । प्रऽचे॑तसः । अग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । द्र॒वत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते । स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥
स्वर रहित पद पाठहोतारम् । विश्ववेदसम् । सम् । हि । त्वा । विशः । इन्धते । सः । आ । वह । पुरुहूत । प्रचेतसः । अग्ने । देवान् । इह । द्रवत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(होतारम्) हवनस्य कर्त्तारम् (विश्ववेदसम्) विश्वानि सर्वाणि सुखानि विन्दति यस्मात्तम् (सम्) सम्यगर्थे (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (विशः) प्रजाः (इन्धते) प्रदीप्यन्ते (सः) (आ) अभितः (वह) प्राप्नुहि (पुरुहूत) यः पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिर्हूयते स्तूयते तस्तम्बुद्धौ (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यासां ताः (अग्ने) विशिष्टज्ञानयुक्त (देवान्) वीरान्विदुषो दिव्यगुणान् वा (इह) अस्मिन् युद्धादिव्यवहारे (द्रवत्) द्रवतु ॥७॥
अन्वयः
पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे पुरुहूताग्ने विद्वन् ! प्रचेतसो विशो यं होतारं विश्ववेदसं त्वां हि खलु समिंधते ताः प्रति भवान् द्रवत् ॥७॥
भावार्थः
नहि विद्वत्सहायेन विना प्रजासुखं दिव्यगुणप्राप्तिः शत्रुविजयश्च जायते तस्मादेतत्सर्वैः प्रयत्नेन संसाधनीयमिति ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (पुरुहूत) बहुत विद्वानों ने बुलाये हुए (अग्ने) विशिष्ट ज्ञानयुक्त विद्वन् ! (प्रचेतसः) उत्तम ज्ञानयुक्त (विशः) प्रजा जिस (होतारम्) हवन के कर्त्ता (विश्ववेदसम्) सब सुख प्राप्त (त्वा) आपको (हि) निश्चय करके (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रकाश करती हैं (सः) सो आप (इह) इस युद्ध आदि कर्मों में उत्तम ज्ञान वाले (देवान्) शूरवीर विद्वानों को (आवह) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥७॥
भावार्थ
विद्वानों के सहाय के विना प्रजा के सुख को वा दिव्य गुणों की प्राप्ति और शत्रुओं से विजय नहीं हो सकता इससे यह सब मनुष्यों को प्रयत्न के साथ सिद्ध करना चाहिये ॥७॥
विषय
होता - विश्ववेदस्
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (होतारम्) - सब पदार्थों के देनेवाले, (विश्ववेदसम्) - सर्वज्ञ व सर्वधन (त्वा) - आपको (हि) - निश्चय से (विशः) - सब प्रजाएँ, संसार में प्रवेश करनेवाले व्यक्ति (समिन्धते) - अपने हृदयों में दीप्त करते हैं । वस्तुतः प्रभु को अपने हृदय में दीप्त करने की साधना 'होतारं व विश्ववेदसम्' इन शब्दों से ही सूचित हो रही है । हम होता - देनेवाले, देकर यज्ञशेष को खानेवाले बनें तथा (विश्ववेदस्) - सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करें । २. हे (पुरुहूत) - बहुतों से पुकारे गये अथवा जिनको पुकारना हमारा पूरक व पालक है, ऐसे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (सः) - वे आप (प्रेचतसः देवान्) - प्रकृष्ट चेतनावाले विद्वानों को (द्रवत्) - शीघ्र (इह) - इस हमारे जीवन में (आवह) - प्राप्त कराइए । इनके सम्पर्क में आकर हम भी प्रचेतस् बनें और दिव्य गुणों को प्राप्त करने के लिए सदा यत्नशील हों ।
भावार्थ
भावार्थ - वे प्रभु होता हैं, विश्वेदस् है । उनकी कृपा से हमारा दिव्य गुणोंवाले विद्वानों से सम्पर्क हो और हम भी देव बनें ।
विषय
अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन
भावार्थ
हे (अन्ने) ज्ञानवन्! तेजस्विन्! राजन्! परमेश्वर! (विश्ववेदसं) समस्त ऐश्वर्य के स्वामी (होतारम्) सब सुखों और ऐश्वर्य के दाता, (त्वा) तुझको (हि) ही (विशः) समस्त प्रजाएँ (सम् इन्धते) अच्छी प्रकार प्रदीप्त करतीं, हृदय में चेतातीं, एवं बलवान् तेजस्वी बनाती हैं। हे (पुरुहूत) बहुतसी प्रजाओं से स्तुति योग्य! तू (प्रचेतसः) उत्कृष्ट ज्ञानवाले (देवान्) विद्वानों और विजयेच्छु पुरुषों को (इह) इस राष्ट्र में (द्रवत्) अतिशीघ्र (आवह) प्राप्त करा। स्वयं उनको प्राप्त हो। प्रजाएँ राजा को तेजस्वी बनाती हैं। वह विद्वानों, विजयी सैनिकों को शीघ्र प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विराड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह अग्नि किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे पुरुहूत अग्ने विद्वन् ! प्रचेतसः विशः यं होतारं विश्ववेदसं त्वां हि खलु सम् इन्धते ताः प्रति भवान् द्रवत् ॥७॥
पदार्थ
हे (पुरुहूत) यः पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिर्हूयते स्तूयते तस्तम्बुद्धौ=जो बहुत से विद्वानों के द्वारा बुलाया जाता है और जिसकी स्तुति की जाती है, (अग्ने) विशिष्टज्ञानयुक्त= विशिष्ट ज्ञान से युक्त, (विद्वन्)= विद्वान् ! (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यासां ताः=जिसका प्रकृष्ट चित्त और विशेष ज्ञान है, (विशः) प्रजाः= पीढ़ियां, (यम्)=जिसको, (होतारम्) हवनस्य कर्त्तारम्=हवन के कर्ता, (विश्ववेदसम्) विश्वानि सर्वाणि सुखानि विन्दति यस्मात्तम्=सब सुखों को जानते हैं, (त्वाम्)=तुम अग्नि को, (हि) खलु=निश्चय से, (सम्) सम्यगर्थे=सम्यक् रूप से, (इन्धते) प्रदीप्यन्ते= प्रज्वलित करते हैं, (ताः) =उसके, (प्रति)=प्रति, (भवान्)=आप, (द्रवत्) द्रवतु=शीघ्र जाइये॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
विद्वानों की सहायता के विना प्रजा के सुख, दिव्य गुणों की प्राप्ति और शत्रुओं पर विजय नहीं हो सकता, इसलिये इसे सबके द्वारा प्रयत्नों से और अच्छी तरह से सिद्ध करने चाहिये ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (पुरुहूत) बहुत से विद्वानों के द्वारा बुलाये जानेवाले और जिसकी स्तुति की जाती है, [ऐसे] (अग्ने) विशिष्ट ज्ञान से युक्त (विद्वन्) विद्वान् ! (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चित्त और विशेष ज्ञानवाले, (विशः) पीढ़ियों से (यम्) जिस (होतारम्) हवन करनेवाले के (विश्ववेदसम्) सब सुखों को जानते हैं। (त्वाम्) तुम [अग्नि] को (हि) निश्चय से ही [और] (सम्) सम्यक् रूप से (इन्धते) प्रज्वलित करते हैं। (ताः) उसके (प्रति) प्रति (भवान्) आप (द्रवत्) शीघ्रता से जाइये॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (होतारम्) हवनस्य कर्त्तारम् (विश्ववेदसम्) विश्वानि सर्वाणि सुखानि विन्दति यस्मात्तम् (सम्) सम्यगर्थे (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (विशः) प्रजाः (इन्धते) प्रदीप्यन्ते (सः) (आ) अभितः (वह) प्राप्नुहि (पुरुहूत) यः पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिर्हूयते स्तूयते तस्तम्बुद्धौ (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यासां ताः (अग्ने) विशिष्टज्ञानयुक्त (देवान्) वीरान्विदुषो दिव्यगुणान् वा (इह) अस्मिन् युद्धादिव्यवहारे (द्रवत्) द्रवतु ॥७॥ विषयः- पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे पुरुहूताग्ने विद्वन् ! प्रचेतसो विशो यं होतारं विश्ववेदसं त्वां हि खलु समिंधते ताः प्रति भवान् द्रवत् ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- नहि विद्वत्सहायेन विना प्रजासुखं दिव्यगुणप्राप्तिः शत्रुविजयश्च जायते तस्मादेतत्सर्वैः प्रयत्नेन संसाधनीयमिति ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांच्या साह्याशिवाय प्रजेला सुख, दिव्य गुणांची प्राप्ती व शत्रूंवर विजय प्राप्त होऊ शकत नाही. त्यामुळे हे सर्व माणसांनी प्रयत्नपूर्वक सिद्ध केले पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and life, ruler of the world, the people invoke, kindle and honour you, lord omniscient and high-priest of cosmic yajna. Lord universally celebrated, let the brilliancies of nature and humanity come and bless us here straight at the earliest and fastest. Let the wise scholars come and bless us.
Subject of the mantra
Then what kind of Agni (fire) is that, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (puruhūta)=called upon and praised by many scholars, [aise]=such, (agne)=having specific knowledge, (vidvan)=scholar, (pracetasaḥ)=of great mind and special knowledge, (viśaḥ)=for generations, (yam)==whose, (hotāram)=of those who perform Havan, (viśvavedasam)=know all happinesses, (tvām)=you, [agni]=to fire, (hi)=certainly, [aura]=and, (sam)=duly, (indhate)=ignite, (tāḥ)=its, (prati)=towards, (bhavān)=you, (dravat)=Go quickly.
English Translation (K.K.V.)
O one who is called upon by many scholars and who is praised, the scholar of such special knowledge! The one with great mind and special knowledge, knows all the happiness of the one who has been performing Havan for generations. You kindle the fire with determination and with due diligence. You go quickly towards him.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
appiness of the subjects, attainment of divine qualities and victory over the enemies cannot be achieved without the help of scholars, therefore all these should be accomplished by efforts.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Agni) is taught in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person, invoked and remembered by many, the people possessing good knowledge you invite (literally kindle)you who are doer of Yajnas-a noble sacrificer. Quickly bring hither other excellently wise divine persons and virtues and to help them in all good dealings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने) विशिष्टज्ञानयुक्त = Highly educated person or leader. ( प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यासां ताः (विशः) = The people possessing good knowledge. ( देवान्) वीरान् विदुषो दिव्यगुणान् वा = Brave learned persons or divine attributes.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible to bring about the happiness of the subjects, the attainment of divine virtues without much effort and victory over the enemies. Therefore all should accomplish it with great endeavor.
Translator's Notes
The word Agni ( अग्नि ) is derived from अगि गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: or ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Taking the first meaning ज्ञान knowledge and basing on the etymology of the word as given by Yaskacharya in Nirukta अग्नि: कस्मादग्रणीर्भबति ( निरुक्ल ७.१ ) Rishi Dayananda has interpreted it as विशिष्ट ज्ञान युक्त which is certainly and clearly corroborated by the adjectives used in the Mantra होतारम्-विश्ववेदसम् which Sayanacharya interprets as होमनिष्पादकम् -सर्वज्ञम् Prof. Wilson translates these words as sacrificer and Omniscient. Are these adjectives applicable to inanimate fire. ?
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