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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒द्या दू॒तं वृ॑णीमहे॒ वसु॑म॒ग्निं पु॑रुप्रि॒यम् । धू॒मके॑तुं॒ भाऋ॑जीकं॒ व्यु॑ष्टिषु य॒ज्ञाना॑मध्वर॒श्रिय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द्य । दू॒तम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ । वसु॑म् । अ॒ग्निम् । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् । धू॒मऽके॑तुम् । भाःऽऋ॑जीकम् । विऽउ॑ष्टिषु । य॒ज्ञाना॑म् । अ॒ध्व॒र॒ऽश्रिय॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् । धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्य । दूतम् । वृणीमहे । वसुम् । अग्निम् । पुरुप्रियम् । धूमकेतुम् । भाःऋजीकम् । विउष्टिषु । यज्ञानाम् । अध्वरश्रियम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अद्य) अस्मिन् दिने। निपातस्य च इति दीर्घः। (दूतम्) यो दुनोति पदार्थान् देशांतरं प्रापयति तम् (वृणीमहे) स्वीकुर्वीमहि (वसुम्) सकलविद्यानिवासम् (अग्निम्) पावकमिव विद्वांसम् (पुरुप्रियम्) यः पुरूणां बहूनां प्रियस्तम् (धूमकेतुम्) धूमकेतुर्ध्वजो यस्य तम् (भाऋजीकम्) भाति प्रकाशयति सा भा भा कान्तिर्वा तां योऽर्जयते तम् (व्युष्टिषु) विविधा उष्टयः कामनाश्च तासु (यज्ञानाम्) अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां योगज्ञानशिल्पोपासनाज्ञानानां वा मध्ये (अध्वरश्रियम्) याऽध्वराणामहिंसनीयानां यज्ञानां श्रीः शोभा ताम् ॥३॥

    अन्वयः

    पुनस्तं कथंभूतं स्वीकुर्य्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    वयमद्य मनुष्यजन्मविद्याप्राप्तिसमयं प्राप्याऽस्मिन् दिने व्युष्टिषु भाऋजीकं यज्ञानां मध्येऽध्वरश्रियं धूमकेतुं वसुं पुरुप्रियं दूतमग्निमिव वर्त्तमानं विद्वांसं दूतं वृणीमहे ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैर्विद्याराज्यसुखप्राप्त्यर्थमनूचानं विद्वांसं दूतं कृत्वा बहुगुणयोगेन बहुकार्य्यप्रापिकां विद्युतं स्वीकृत्य सर्वाणि कार्य्याणि संसाधनीयानि ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर कैसे मनुष्य को स्वीकार करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हम लोग (अद्य) आज मनुष्य जन्म वा विद्या के प्राप्ति समय को प्राप्त होकर (व्युष्टिषु) अनेक प्रकार की कामनाओं में (भाऋजीकम्) कामनाओं के प्रकाश (यज्ञानाम्) अग्निहोत्र आदि अश्वमेघ पर्यन्त वा योग उपासना ज्ञान शिल्पविद्यारूप यज्ञों के मध्य (अध्वरश्रियम्) अहिंसनीय यज्ञों की श्री शोभारूप (धूमकेतुम्) जिसका धूम ही ध्वजा है (वसुम्) सब विद्याओं का घर वा बहुत धन की प्राप्ति का हेतु (पुरुप्रियम्) बहुतों को प्रिय (दूतम्) पदार्थों को दूर पहुंचानेवाले (अग्निम्) भौतिक अग्नि के सदृश विद्वान् दूत को (वृणीमहे) अंगीकार करें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि विद्या वा राज्य की प्राप्ति के लिये सब विद्याओं के कथन करने वा सब बातों का उत्तर देनेवाले विद्वान् को दूत करें और बहुत गुणों के योग से बहुत कार्य्यों को प्राप्त करानेवाली बिजुली को स्वीकार करके सब कार्य्यों को सिद्ध करें ॥३॥

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    विषय

    धूमकेतु [भाऋजीक] अध्वरश्रीः

    पदार्थ

    १. (अद्य) - आज हम उस (दूतम्) - ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले प्रभु को (वृणीमहे) - वरते हैं जो 
    २. वरण किये जाने पर (वसुम्) - हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले हैं, (अग्निम्) - हमें आगे ले - चलनेवाले हैं, (पुरुप्रियम्) - पालक व पूरक हैं और उत्तमोत्तम जीवन में उन्नति की साधनभूत वस्तुओं को प्राप्त कराके प्रीणित करनेवाले हैं, (धूमकेतुम्) - वासनाओं के कम्पित करनेवाले प्रज्ञान को प्राप्त करानेवाले हैं और (भाऋजीकम्) - [प्रार्जयितारम्] दीप्ति का अर्जन करानेवाले हैं । 
    ३. उस प्रभु का हम वरण करते हैं जो (व्युष्टिषु) - उषः कालों में (यज्ञानाम्) - यज्ञों की (अध्वरश्रियम्) - हिंसारहित श्री - [शोभा] - वाले हैं, अर्थात् प्रभु की कृपा से ही हम प्रत्येक उषः काल में यज्ञ की वृत्तिवाले होते हैं और प्रभुकृपा से ही यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । प्रभु ही उन यज्ञों को वह शोभा प्राप्त कराते हैं जो नष्ट नहीं होती । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ज्ञान देकर हमारे जीवन को उत्तम बनाते हैं, प्रभुकृपा से ही हमारे जीवन यज्ञों से विभूषित होते हैं । 
     

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    (अद्य) आज, अब, सदा हम लोग (पुरुप्रियम्) बहुतों को प्रसन्न संतुष्ट करने और प्रिय लगनेवाले, सर्वप्रिय (वसुम्) सकल विद्या और उत्तम गुणों के आश्रय, (अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी, (धूमकेतुम्) अग्नि के धूम के समान शत्रुको कम्पित करनेवाले एवं प्रभावशाली ज्ञान और कर्म सामर्थ्य से युक्त (व्युष्टिषु) प्रातःकाल की वेलाओं में जिस प्रकार अग्नि और सूर्य विशेष दीप्तियों से युक्त होकर क्रम से उत्तरोत्तर दीप्तियों में बढ़ता ही जाता है उसी प्रकार (व्युष्टिषु) अपने राष्ट्र की विविध कामना और तेजस्विताओं के अवसर पर विशेष सौम्य एवं उत्तरोत्तर बढ़नेवाली कान्ति को प्राप्त करनेवाले, अथवा सभा को अपने वश करने में समर्थ (यज्ञानां) यज्ञों में (अध्वरश्रियम्) अश्वमेध आदि यज्ञों के विशेष आश्रयरूप अग्नि के समान ही (यज्ञानां) समस्त प्रजा के एक हुए संघों और प्रजापालक राजाओं के बीच में (अध्वरश्रियम्) अहिंस्य, या अबध्य होने के पद को विशेषरूप से प्राप्त होनेवाले (दूतम्) उत्तम संदेशों तथा उपासना आदि पदार्थों के ले जानेहारे पुरुषरूप से (वृणीमहे) हम चुनें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर कैसे मनुष्य को स्वीकार करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयम् अद्य मनुष्यजन्म विद्याप्राप्ति समयं प्राप्या अस्मिन् दिने व्युष्टिषु भाऋजीकं यज्ञानां मध्ये अध्वरश्रियं धूमकेतुं वसुं पुरुप्रियं दूतम् अग्निम् इव वर्त्तमानं विद्वांसं दूतं वृणीमहे ॥३॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम लोग, (अद्य) अस्मिन् दिने=आज के ही दिन, (मनुष्यजन्म)= मनुष्य जन्म में, (विद्याप्राप्ति)= विद्या प्राप्ति के, (समयम्)=समय को, (प्राप्या)= प्राप्त करके, (अस्मिन्)=इस, (दिने)=दिन, (व्युष्टिषु) विविधा उष्टयः कामनाश्च तासु= विविध कामनाओं में, (भाऋजीकम्) भाति प्रकाशयति सा भा भा कान्तिर्वा तां योऽर्जयते तम्=जो प्रकाशित करती है अथवा जो दीप्ति को अर्जित करती है, (यज्ञानां)=यज्ञों में, (अध्वरश्रियम्) याऽध्वराणामहिंसनीयानां यज्ञानां श्रीः शोभा ताम्=जो हिंसा रहित यज्ञों में शोभा है, उसके (मध्ये)= मध्य में, (धूमकेतुम्) धूमकेतुर्ध्वजो यस्य तम्= जिसका धुआँ ही ध्वज है, (वसुम्) सकलविद्यानिवासम्= समस्त विद्याओं के निवास को, (पुरुप्रियम्) यः पुरूणां बहूनां प्रियस्तम्=जो बहुतों में सबसे प्रिय है, (दूतम्) यो दुनोति पदार्थान् देशांतरं प्रापयति तम्=पदार्थों को अन्य स्थानों में पहुँचाता है, उस (अग्निम्) पावकमिव विद्वांसम्=पवित्र करनेवाले के समान, (वर्त्तमानम्)=विद्यमान, (विद्वांसम्)= विद्वान् को, (दूतम्) यो दुनोति पदार्थान् देशांतरं प्रापयति तम्=पदार्थों को अन्य स्थानों में पहुँचाता है, उसे, (वृणीमहे) स्वीकुर्वीमहि=हम स्वीकार करते हैं ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों के लिये उचित है कि विद्या और राज्य के सुख की प्राप्ति के लिये सब विद्याओं और वेद तथा वेदांग के ज्ञाता विद्वान् को संदेश वाहक बना करके, बहुत गुणों के योग से, बहुत कार्यों को सम्पन्न करानेवाली बिजली को स्वीकार करके सब कार्यों को सिद्ध करना चाहिये ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम लोग (अद्य) आज के ही दिन (मनुष्यजन्म) मनुष्य जन्म में (विद्याप्राप्ति) विद्या प्राप्ति के (समयम्) समय को (प्राप्या) प्राप्त करके (अस्मिन्) इस (दिने) दिन [में ही] (व्युष्टिषु) विविध कामनाओं में (भाऋजीकम्) जो प्रकाशित करती है अथवा जो दीप्ति को अर्जित करती है, जो (यज्ञानां) यज्ञों (मध्ये) में (अध्वरश्रियम्) जो हिंसा रहित यज्ञों में शोभा है, उसका (धूमकेतुम्) धुआँ ही ध्वज है। (वसुम्) समस्त विद्याओं के निवास को, (पुरुप्रियम्) जो बहुतों में सबसे प्रिय है [और] (दूतम्) पदार्थों को अन्य स्थानों में पहुँचाता है, उस (अग्निम्) पवित्र करनेवाले के समान (वर्त्तमानम्) विद्यमान (विद्वांसम्) विद्वान् (दूतम्) पदार्थों को अन्य स्थानों में पहुँचाता है, उसे (वृणीमहे) हम स्वीकार करते हैं ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (अद्य) अस्मिन् दिने। निपातस्य च इति दीर्घः। (दूतम्) यो दुनोति पदार्थान् देशांतरं प्रापयति तम् (वृणीमहे) स्वीकुर्वीमहि (वसुम्) सकलविद्यानिवासम् (अग्निम्) पावकमिव विद्वांसम् (पुरुप्रियम्) यः पुरूणां बहूनां प्रियस्तम् (धूमकेतुम्) धूमकेतुर्ध्वजो यस्य तम् (भाऋजीकम्) भाति प्रकाशयति सा भा भा कान्तिर्वा तां योऽर्जयते तम् (व्युष्टिषु) विविधा उष्टयः कामनाश्च तासु (यज्ञानाम्) अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां योगज्ञानशिल्पोपासनाज्ञानानां वा मध्ये (अध्वरश्रियम्) याऽध्वराणामहिंसनीयानां यज्ञानां श्रीः शोभा ताम् ॥३॥ विषयः- पुनस्तं कथंभूतं स्वीकुर्य्युरित्युपदिश्यते। अन्वयः-वयमद्य मनुष्यजन्मविद्याप्राप्तिसमयं प्राप्याऽस्मिन् दिने व्युष्टिषु भाऋजीकं यज्ञानां मध्येऽध्वरश्रियं धूमकेतुं वसुं पुरुप्रियं दूतमग्निमिव वर्त्तमानं विद्वांसं दूतं वृणीमहे ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैर्विद्याराज्यसुखप्राप्त्यर्थमनूचानं विद्वांसं दूतं कृत्वा बहुगुणयोगेन बहुकार्य्यप्रापिकां विद्युतं स्वीकृत्य सर्वाणि कार्य्याणि संसाधनीयानि ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्या व राज्यसुखाच्या प्राप्तीसाठी सर्व विद्या शिकविणाऱ्या बहुगुणी विद्वानाला दूत नेमावे. अनेक गुण असलेल्या अनेक कार्य प्राप्त करविणाऱ्या विद्युतचा अंगीकार करून सर्व कार्य सिद्ध करावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Today we choose to invoke, invite and light up Agni, lord of light and life and knowledge, leader of the dynamics of existence, homely sustainer of all and giver of wealth, darling of everybody, moving with the flag of smoke in dazzling flames of light, and giving us brilliant success and glory in the holy yajnas of our heart’s desire.

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    Subject of the mantra

    Then how to accept man, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam)=We, (adya)=today itself, (manuṣyajanma)=in human birth, (vidyāprāpti)=of attaining vidya (knowledge), (samayam)=the time, (prāpyā)=made available, (asmin)=on this, (dine)=day, [meṃ hī]=itself, (vyuṣṭiṣu)=in various wishes, (bhāṛjīkam That which illumines or that which acquires lustre, [jo]=those, (yajñānāṃ)=yajñam, (madhye)=in, (adhvaraśriyam Who is beautiful in non-violence sacrifices, his (dhūmaketum)=the smoke is the flag, (vasum)=to the abode of all learning, (purupriyam)=the most beloved of man,y [aura]=and, (dūtam) transports substances to other places, that (agnim)=like a sanctifier, (varttamānam)=present, (vidvāṃsam)=scholar, (dūtam)=transports substances to other places, that (vṛṇīmahe) =we accept.

    English Translation (K.K.V.)

    On this very day, we have made available the time of attaining knowledge in our human birth, in this day itself, the smoke which illumines or earns the effulgence, which adorns the yajnams without violence, its smoke is the flag. We accept the abode of all learning, which is the most beloved of many and transports things to other places, the scholar who is present as the sanctifier, we accept him.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as figurative in this mantra. It is appropriate for human beings for the attainment of knowledge and the happiness of the state, all the works should be accomplished by appointing the scholar of all the knowledge and having the knowledge of Vedas and Vedāṃga as the messenger and by the combination of many qualities and by accepting the electricity that does multifarious works, all works must be accomplished.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We select to-day (having acquired human life and at the time of gaining knowledge) as messenger a good popular learned person, who shines like fire in assemblies and on the occasion of the fulfilment of noble desires; who is also like the fire among the non-violent Yajnas from Agnihotra to Ashwa Medha or consisting of Yoga, Shilpa (Industries) Upasana (communion with God) and knowledge, bearing the glory of the Yajnas of inviolable various kinds and fire-bannered spreader of the light.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्निम् ) पावकमिव विद्वांसम् = A learned person who is purifier like the fire. (भा ऋऋजीकम् ) भाति प्रकाशयति सा भा सभा कान्तिर्वा तां योऽर्जयते तम् = Illustrious as an orator in the assemblies. ( यज्ञानाम् ) अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां योगज्ञानशिल्पोपासनाज्ञानानां वा मध्ये = Of the Yajnas (non-violent sacrifices ) consisting of Agnihotra to Ashvamedha or Yoga, industries, communion with God and knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should accomplish all works having appointed a learned person well-versed in the Vedic lore as a messenger or ambassador, for the attainment of knowledge, kingdom and happiness. They should also accept the utility of electricity which accomplishes many works.

    Translator's Notes

    In the Vedic terminology, Yajna is a very comprehensive term which is used for all good deeds and philanthropic acts. This Vedic idea has been corroborated in the Bhagavad Gita in the fourth chap. द्रव्ययज्ञास्तपो यज्ञाः, योगयज्ञास्तथा परे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥२८ एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान्, एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥३२ (गीता ४) Here Yoga, tapa ( austerity) Svadhyaya (study of the Vedas) knowledge etc. have been enumerated among the Yajnas.

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