ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पति॒र्ह्य॑ध्व॒राणा॒मग्ने॑ दू॒तो वि॒शामसि॑ । उ॒ष॒र्बुध॒ आ व॑ह॒ सोम॑पीतये दे॒वाँ अ॒द्य स्व॒र्दृशः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपतिः॑ । हि । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अग्ने॑ । दू॒तः । वि॒शाम् । असि॑ । उ॒षः॒ऽबुधः॑ । आ । व॒ह॒ । सोम॑ऽपीतये । दे॒वान् । अ॒द्य । स्वः॒ऽदृशः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि । उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥
स्वर रहित पद पाठपतिः । हि । अध्वराणाम् । अग्ने । दूतः । विशाम् । असि । उषःबुधः । आ । वह । सोमपीतये । देवान् । अद्य । स्वःदृशः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(पतिः) पालयिता (हि) खलु (अध्वराणाम्) यज्ञानाम् (अग्ने) नीतिज्ञ विद्वन् (दूतः) यो दुनोति शत्रून् भेत्तुं जानाति सः (विशाम्) प्रजानाम् (असि) (उषर्बुधः) य उषसि बुध्यन्ते तान् (आ) आभिमुख्ये (वह) प्राप्नुहि (सोमपीतये) सोमानाममृतरसानां पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सह#सुपा इति समासः। (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान्वा (अद्य) अस्मिन्दिने (स्वर्दृशः) ये सुखेन विद्यानन्दं पश्यन्ति तान् ॥९॥ #[अ० २।१।४।]
अन्वयः
पुनरयं विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे अग्ने विद्वन् ! यस्त्वमध्वराणां विशां पतिरसि तस्मात्तमद्य हि सोमपीतय उषर्बुधः स्वर्दृशो देवानावह ॥९॥
भावार्थः
सभासेनाद्यध्यक्षादयो विद्वांसो विद्यापाठन प्रजापालनादियज्ञानां रक्षायै प्रजासु दिव्यगुणान्नित्यं प्रकाशयेयुः ॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर यह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन ! जो तू (हि) निश्चय करके (अध्वराणाम्) यज्ञ और (विशाम्) प्रज्ञाओं के (पतिः) पालक (असि) हो इससे आप (अद्य) आज (सोमपीतये) अमृतरूपी रसों के पीने रूप व्यवहार के लिये (उषर्बुधः) प्रातःकाल में जागनेवाले (स्वर्दृशः) विद्यारूपी सूर्य्य के प्रकाश से यथावत् देखने वाले (देवान्) विद्वान् वा दिव्यगुणों को (आवह) प्राप्त हूजिये ॥९॥
भावार्थ
सभासेनाध्यक्षादि विद्वान् लोग विद्या पढ़के प्रजा पालनादि यज्ञों की रक्षा के लिये प्रजा में दिव्य गुणों का प्रकाश नित्य किया करें ॥९॥
विषय
अध्वराणां पतिः
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! आप (अध्वराणाम्) - सब हिंसारहित कर्मों के, यज्ञों के (पतिः) - रक्षक (असि) - हैं । आपकी कृपा से ही सब यज्ञ पूरे हुआ करते हैं ।
२. हे अग्ने ! आप ही (विशाम्) - सब प्रजाओं को (दूतः) - ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले हैं ।
३. आप ही (उषर्बुधः) - प्रातः काल में जागनेवाले (स्वः दृशः) - ज्ञान के सूर्य को देखनेवाले, अर्थात् प्रातः काल उठकर स्वाध्यायशील (देवान्) - देववृत्ति के लोगों को (अद्य) - आज (सोमपीतये) - सोम के रक्षण व शरीर में पीने व व्याप्त करने के लिए (आवह) - प्राप्त कराइए । वस्तुतः शरीर में सोम - वीर्य के रक्षण के लिए आवश्यक है कि [क] हम प्रातः काल जागें, [ख] स्वाध्यायशील हों [ग] देववृत्ति को अपनाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - उषः जागरण, स्वाध्याय व देववृत्ति को अपनाने पर हम शरीर में सोम का रक्षण कर पाते हैं । इस सोम का रक्षण होने पर हमारे जीवन में यज्ञात्मक कर्म चलते हैं और हम प्रभु के ज्ञान - सन्देश को सुन पाते हैं ।
विषय
अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन्! विद्वन्! राजन्! तू (अध्वराणाम्) यज्ञों के पालक अग्नि के समान हिंसादि से रहित प्रजापालन के कार्यों में और शत्रु से न मारे जाने वाले वीर पुरुषों के बीच उन सबका (पतिः) स्वामी और (विशाम्) समस्त अधीन प्रजाओं का (दूतः) आदर योग्य एवं संदेशहर या प्रमुख (असि) है। तू (सोमपीतये) राष्ट्र के ऐश्वर्यों को आनन्दप्रद अन्न आदि ओषधि-रसों के समान पान करने या उपभोग करने के लिए (स्वर्दृशः) सुख ज्ञान और मोक्षानन्द के देखनेवाले (उषर्बुधः ) प्रातःकाल अग्नि और सूर्य के समान चेतनेवाले तेजस्वी, अप्रमादी, ज्ञानी (देवान्) विद्वान् और वीर पुरुषों को (अद्य) आज सदा (आवह) धारण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विराड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय(भाषा)- फिर यह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अग्ने विद्वन् दूतः ! यः त्वम् अध्वराणां विशां पतिः असि तस्मात् तम् अद्य हि सोमपीतय उषर्बुधः स्वर्दृशः देवान् आवह ॥९॥
पदार्थ
हे (अग्ने) नीतिज्ञ=नीति को जाननेवाले, (विद्वन्)= विद्वान् (दूतः) यो दुनोति शत्रून् भेत्तुं जानाति सः= संदेशवाहक ! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (अध्वराणाम्) यज्ञानाम्=हिंसारहित यज्ञों के, [और] (विशाम्) प्रजानाम्=प्रजाओं के, (पतिः) पालयिता=रक्षण करनेवाले, (असि)=हो, (तस्मात्)=इसलिये, (तम्)=उसको, (अद्य)=आज, (हि) खलु=ही, (सोमपीतये) सोमानाममृतरसानां पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै=अमृत रूपी सोम का रसपान करने के लिये, (उषर्बुधः) य उषसि बुध्यन्ते तान्=उषा काल में जागनेवाला, (स्वर्दृशः) ये सुखेन विद्यानन्दं पश्यन्ति तान्=सुख से विद्या का आनन्द देखनेवाला, (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान्वा=दिव्य गुणोवाला और विद्वान् के रूप में, (आवह)=प्राप्त कीजिये अर्थात् विद्वान् बनाइये ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सभा व सेनाध्यक्ष आदि विद्वान् लोग विद्या पढ़ा करके, प्रजा के पालन आदि और यज्ञों की रक्षा के लिये प्रजा में दिव्य गुणों का नित्य प्रकाश किया करें ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अग्ने) नीति को जाननेवाले (दूतः) संदेशवाहक (विद्वन्) विद्वान्! (यः) जो (त्वम्) तुम (अध्वराणाम्) हिंसारहित यज्ञों के [और] (विशाम्) प्रजाओं के (पतिः) रक्षण करनेवाले (असि) हो। (तस्मात्) इसलिये (तम्) उस [साधक] को (अद्य) आज (हि) ही (सोमपीतये) अमृत रूपी सोम का रसपान करने के लिये (उषर्बुधः) उषाकाल में जागनेवाला, (स्वर्दृशः) सुख से विद्या का आनन्द देखनेवाला, (देवान्) दिव्य गुणोवाला और विद्वान् के रूप में, (आवह) प्राप्त कराइये अर्थात् [दिव्य गुणों का प्रकाश नित्य करनेवाला विद्वान् बनाइये] ॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (पतिः) पालयिता (हि) खलु (अध्वराणाम्) यज्ञानाम् (अग्ने) नीतिज्ञ विद्वन् (दूतः) यो दुनोति शत्रून् भेत्तुं जानाति सः (विशाम्) प्रजानाम् (असि) (उषर्बुधः) य उषसि बुध्यन्ते तान् (आ) आभिमुख्ये (वह) प्राप्नुहि (सोमपीतये) सोमानाममृतरसानां पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सह#सुपा इति समासः। (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान्वा (अद्य) अस्मिन्दिने (स्वर्दृशः) ये सुखेन विद्यानन्दं पश्यन्ति तान् ॥९॥ #[अ० २।१।४।] विषयः- पुनरयं विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अग्ने विद्वन् दूतः ! यस्त्वमध्वराणां विशां पतिरसि तस्मात्तमद्य हि सोमपीतय उषर्बुधः स्वर्दृशो देवानावह ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभासेनाद्यध्यक्षादयो विद्वांसो विद्यापाठन प्रजापालनादियज्ञानां रक्षायै प्रजासु दिव्यगुणान्नित्यं प्रकाशयेयुः ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभासेनाध्यक्ष इत्यादी विद्वान लोकांनी विद्या शिकून प्रजापालनरूपी यज्ञाच्या रक्षणासाठी प्रजेमध्ये दिव्य गुण नित्य प्रकट करावेत. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, protector and promoter of the noblest yajnic acts of humanity, you are the conscience of the people and harbinger of joy for them. Bring here the brilliancies of nature and humanity who wake up with the dawn. They have the vision of light and heaven. Let them come for partici pation in the celebration of soma-success of the yajna.
Subject of the mantra
Then what kind of this scholar is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)=moralist, (dūtaḥ)=messenger, (vidvan) =scholar! (yaḥ)=that, (tvam)=you, (adhvarāṇām)=of non-violence sacrifices, [aura]=and, (viśām) =of prople, (patiḥ)=protector, (asi)=are, (tasmāt)=therefore, (tam) =to that, [sādhaka]=seeker, (adya)=today, (hi)=only, (somapītaye)=to drink nectar like Soma, (uṣarbudhaḥ)=dawn riser, (svardṛśaḥ)=One who enjoys knowledge with pleasure, (devān)=as divinely virtuous and learned, (āvaha)=get obtained i.e. [divya guṇoṃ kā prakāśa nitya karanevālā vidvān banāiye]=make a scholar who always illuminates divine qualities.
English Translation (K.K.V.)
O moralist messenger scholar! You, who are the protector of non-violence yajnams and the peoples. Therefore, why get that seeker today itself as one who wakes up early in the dawn to drink nectar in the form of Soma, one who enjoys knowledge with pleasure, one with divine qualities and as a scholar, i.e. make him a scholar who always illuminates divine qualities.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The learned people of the Assembly and the army chiefs, after studying vidya (knowledge), should always illuminate the divine qualities in the people for their welfare and for the protection of the yajnas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is this learned person is further taught in the ninth mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person well-versed in Politics, you are protector of the Yajnas (non-violent sacrifices) and the people. You know how to destroy enemies. Therefore bring here learned persons who happily see the joy of knowledge or divine virtues and get up early in the morning, to drink the invigorating juice of various kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने) नीतिज्ञ विद्वन् = o learned person well-versed in Politics. (स्वदृश:) ये सुखेन विद्यानन्दं पश्यन्ति तान् = To them who happily see the bliss or joy of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the assembly, the Commander-in-Chief of the Army and other learned persons should always manifest divine virtues among the people for the protection of knowledge, the preservation of the subjects and other Yajnas.
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