ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - पथ्यावृहती
स्वरः - मध्यमः
श्रु॒धि श्रु॑त्कर्ण॒ वह्नि॑भिर्दे॒वैर॑ग्ने स॒याव॑भिः । आ सी॑दन्तु ब॒र्हिषि॑ मि॒त्रो अ॑र्य॒मा प्रा॑त॒र्यावा॑णो अध्व॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒धि । श्रु॒त्ऽक॒र्ण॒ । वह्नि॑ऽभिः । दे॒वैः । अ॒ग्ने॒ । स॒याव॑ऽभिः । आ । सी॒द॒न्तु॒ । ब॒र्हिषि॑ । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । प्रा॒तः॒ऽयावा॑नः । अ॒ध्व॒रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुधि । श्रुत्कर्ण । वह्निभिः । देवैः । अग्ने । सयावभिः । आ । सीदन्तु । बर्हिषि । मित्रः । अर्यमा । प्रातःयावानः । अध्वरम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(श्रुधि) शृणु (श्रुत्कर्ण) यः शृणोति कर्णाभ्यां तत्संबुद्धौ (वन्हिभिः) वहनसमर्थैः (देवैः) विद्वद्भिः (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त (सयावभिः) ये समानं यान्ति ते सयावानस्तैः (आ) आभिमुख्ये (सीदन्तु) (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे स्थाने वा (मित्रः) सर्वहितकारी न्ययाधीशः (प्रातर्यावाणः) ये प्रातः प्रतिदिनं पुरुषार्थं यान्ति ते (अध्वरम्) अहिंसनीयं पूर्वोक्तयज्ञम् ॥१३॥
अन्वयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे श्रुत्कर्णाऽग्ने ! विद्वँस्त्वं संप्रीत्या सयावभिर्वन्हिभिर्देवैः सहास्माकं वार्त्ताः श्रुधि शृणु मित्रोऽर्य्यमा प्रातर्यावाणस्सर्वेऽध्वरमनुष्ठाय बर्हिष्यासीदन्तु ॥१३॥
भावार्थः
मनुष्याः श्रुतसर्वविद्यान्धार्मिकान्मनुष्यान् राजकार्य्येषु नियुंजीरन् विद्वांसस्तु खलु सुशिक्षितैर्भृत्यैः सर्वाणि कार्याणि साधयेयुः सर्वदाऽऽलस्यं विहाय सततं पुरुषार्थे प्रयतेरन् नह्येवं विना खलु व्यवहारपरमार्थौ सिध्येते, इति ॥१३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (श्रुत्कर्ण) श्रवण करनेवाले (अग्ने) विद्याप्रकाशक विद्वन् ! आप प्रीति के साथ (सयावभिः) तुल्य जाननेवाले (वन्हिभिः) सत्याचार के भार धरनेहारे मनुष्य आदि (देवैः) विद्वान् और दिव्यगुणों के साथ (अस्माकम्) हम लोगों की वर्त्ताओं को (श्रुधि) सुनो, तुम और हम लोग (मित्रः) सबके हितकारी (अर्य्यमा) न्यायाधीश (प्रातर्य्यावाणः) प्रतिदिन पुरुषार्थ से युक्त (सर्वे) सब (अध्वरम्) अहिंसनीय पहिले कहे हुए यज्ञ को प्राप्त होकर (बर्हिषि) उत्तम व्यवहार में (आसीदन्तु) ज्ञान को प्राप्त हों वा स्थित हों ॥१३॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि सब विद्याओं को श्रवण किये हुए धार्मिक मनुष्यों को राज्यव्यवहार में विशेष करके युक्त विद्वान् लोग शिक्षा से युक्त भृत्यों से सब कार्य्यों को सिद्ध और सर्वदा आलस्य को छोड़ निरन्तर पुरुषार्थ में यत्न करें। निदान इसके विना निश्चय है कि, व्यवहार वा परमार्थ कभी सिद्ध नहीं होते ॥१३॥ सं० भा० के अनुसार करें, और। सं०
विषय
श्रुत् - कर्ण
पदार्थ
१. हे (श्रुत्कर्ण) - हमारी प्रार्थनाओं को सुननेवाले तथा हमारे कष्टों को विकीर्ण [कॄ विक्षेपे] करनेवाले (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (श्रुधि) - आप हमारी प्रार्थना को सुनिए ।
२. आपकी कृपा से (वह्निभिः) - हमें मोक्षरूप लक्ष्य तक पहुँचानेवाले (सयावभिः) - सदा साथ प्राप्त होनेवाले, अर्थात् जो सदा इकट्ठे ही रहते हैं, एक के प्राप्त होने पर दूसरे भी प्राप्त हो ही जाते हैं, उन (देवैः) - दिव्यगुणों के साथ (बर्हिषि) - हमारे हदयान्तरिक्षों में (मित्रः) - स्नेह का भाव (अर्यमा) - दान का भाव [अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति अथवा अरीन् नियच्छति] या संयम की भावना - ये सब (आसीदन्तु) - आसीन हों । प्रभुकृपा से हमारे हृदय दिव्य गुणों के अधिष्ठान बनें ।
३. हम सब (अध्वरम्) - यज्ञों के प्रति (प्रातर्यावाणः) - प्रातः से जानेवाले हों । हमारा प्रतिदिन का प्रारम्भ यज्ञात्मक कर्मों से ही हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनते हैं, हमें दिव्यगुणों को प्राप्त कराते हैं । हम प्रातः से ही यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं ।
विषय
सिन्धु के दृष्टान्त से वर्णन
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन्! हे (श्रुत्कर्ण) कानों से उत्तम रीति से ध्यानपूर्वक श्रवण करने वाले विद्वन्! राजन्! तू (सयावभिः) तेरे साथ सदा प्रयाण करने और जाने वाले सदा सहयोगी, (वह्निभिः) राज्य के कार्यों को अपने ऊपर धारण करने वाले, (देवैः) विद्वानों और विजयेच्छु और व्यवहारज्ञ पुरुषों के साथ (श्रुधि) प्रजा के धर्म, व्यवहारों को श्रवण कर। (अध्वरम्) अबध्य, एवं अहिंसनीय, तिरस्कार न करने योग्य, उच्च आदरणीय पदको प्राप्त होकर (मित्रः) सबका स्नेही, (अर्यमा) न्यायाधीश और (प्रातर्यावाणः) प्रातःकाल ही अपने कार्य पर दत्त चित्त होकर सबसे पूर्व उपस्थित होने वाले विद्वान् जन (बर्हिषि) आदर योग्य बड़े २ पदों और आसनों पर (आसीदन्तु) विराजें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विराड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश इसमंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे श्रुत्कर्ण अग्ने ! विद्वन् त्वं संप्रीत्या सयावभिः वन्हिभिः देवैः सह अस्माकं वार्त्ताः श्रुधि शृणु मित्रः अर्य्यमा प्रातर्यावाणः सर्वे अध्वरम् अनुष्ठाय बर्हिषि आ सीदन्तु ॥१३॥
पदार्थ
हे (श्रुत्कर्ण) यः शृणोति कर्णाभ्यां तत्संबुद्धौ=जो कानों से सुननेवाले और (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त= विद्या के प्रकाश से युक्त, (विद्वन्)= विद्वान् ! (त्वम्)=तुम, (संप्रीत्या)=स्नेह के साथ, (सयावभिः) ये समानं यान्ति ते सयावानस्तैः=संगति से चलनेवाले, और (वन्हिभिः) वहनसमर्थैः= अपने ऊपर धारण करने में समर्थ, (देवैः) विद्वद्भिः=विद्वानों के, (सह) =साथ, (अस्माकम्)=हमारी, (वार्त्ताः)=बात, (श्रुधि) शृणु =सुनो, (मित्रः) सर्वहितकारी= सब के हितकारी, (अर्य्यमा) न्ययाधीशः=न्यायाधीश, (प्रातर्यावाणः) ये प्रातः प्रतिदिनं पुरुषार्थं यान्ति ते= प्रतिदिन प्रातः पुरुषार्थ से चलनेवाले, (सर्वे)=समस्त, (अध्वरम्) अहिंसनीयं पूर्वोक्तयज्ञम्= हिंसारहित यज्ञों का, (अनुष्ठाय)= अनुष्ठान करके, (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे स्थाने वा=उत्तम व्यवहार या स्थान में, (आ) आभिमुख्ये=सामने से, (सीदन्तु)= स्थित होवें॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा सब विद्याओं का श्रवण करके, धार्मिक मनुष्यों को राज्य के कार्यों में नियुक्त करके, निश्चित रूप से विद्वान लोग तो शिक्षा से युक्त भृत्यों से सब कार्यों को सिद्ध करायें। सर्वदा आलस्य को छोड़ कर लगातार पुरुषार्थ से प्रयत्न के विना निश्चय है कि व्यवहार या परमार्थ कभी सिद्ध नहीं होते हैं ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (श्रुत्कर्ण) कानों से सुननेवाले [और] (अग्ने) विद्या के प्रकाश से युक्त (विद्वन्) विद्वान् ! (त्वम्) तुम (संप्रीत्या) स्नेह के साथ, (सयावभिः) संगति से चलनेवाले और (वन्हिभिः) अपने ऊपर धारण करने में समर्थ (देवैः) विद्वानों के (सह) साथ (अस्माकम्) हमारी (वार्त्ताः) बात (श्रुधि) सुनो। (मित्रः) सब के हितकारी (अर्य्यमा) न्यायाधीश, (प्रातर्यावाणः) प्रतिदिन प्रातः पुरुषार्थ से चलनेवाले (सर्वे) समस्त (अध्वरम्) हिंसारहित यज्ञों का (अनुष्ठाय) अनुष्ठान करके (बर्हिषि) उत्तम व्यवहार या स्थान में (आ) सामने से (सीदन्तु) स्थित होवें॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (श्रुधि) शृणु (श्रुत्कर्ण) यः शृणोति कर्णाभ्यां तत्संबुद्धौ (वन्हिभिः) वहनसमर्थैः (देवैः) विद्वद्भिः (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त (सयावभिः) ये समानं यान्ति ते सयावानस्तैः (आ) आभिमुख्ये (सीदन्तु) (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे स्थाने वा (मित्रः) सर्वहितकारी न्ययाधीशः (प्रातर्यावाणः) ये प्रातः प्रतिदिनं पुरुषार्थं यान्ति ते (अध्वरम्) अहिंसनीयं पूर्वोक्तयज्ञम् ॥१३॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे श्रुत्कर्णाऽग्ने ! विद्वँस्त्वं संप्रीत्या सयावभिर्वन्हिभिर्देवैः सहास्माकं वार्त्ताः श्रुधि शृणु मित्रोऽर्य्यमा प्रातर्यावाणस्सर्वेऽध्वरमनुष्ठाय बर्हिष्यासीदन्तु ॥१३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्याः श्रुतसर्वविद्यान्धार्मिकान्मनुष्यान् राजकार्य्येषु नियुंजीरन् विद्वांसस्तु खलु सुशिक्षितैर्भृत्यैः सर्वाणि कार्याणि साधयेयुः सर्वदाऽऽलस्यं विहाय सततं पुरुषार्थे प्रयतेरन् नह्येवं विना खलु व्यवहारपरमार्थौ सिध्येते, इति ॥१३॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व विद्यांचे श्रवण केलेल्या धार्मिक माणसांना राज्यव्यवहारात विशेष करून युक्त करावे. विद्वान लोकांनी शिक्षणाने युक्त सेवकांकडून सर्व कार्य सिद्ध करावे व सदैव आळस सोडून सतत पुरुषार्थ करावा. माणसांनी हे निश्चित जाणावे की याशिवाय व्यवहार किंवा परमार्थ कधी सिद्ध होऊ शकत नाही. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Listen lord, you have the ear, listen to the constant crackle of the blazing flames of fire within. Come Mitra, friends of humanity, come Aryama, powers of justice, come moving travellers to the house of yajna, join the sacred cause of love and non-violence and sit on the holy grass around the vedi-fire.
Subject of the mantra
Then how is that scholar, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śrutkarṇa)=those who hear by ear, [aura]=and, (agne)=enlighted, (vidvan)=scholar, (tvam)=you, (saṃprītyā)=with affection, (sayāvabhiḥ)=compatible, [aura[=and, (vanhibhiḥ)=able to hold, (devaiḥ) =of scholars, (saha)=with, (asmākam) =our, (vārttāḥ)=words, (śrudhi)=listen, (mitraḥ)=beneficial to all, (aryyamā)=judge, (prātaryāvāṇaḥ)=those who walk every morning with effort, (sarve)=all, (adhvaram) =of non-violent yajnas, (anuṣṭhāya)=ritually, (barhiṣi)=in good manners or place, (ā) =from front, (sīdantu) =be located.
English Translation (K.K.V.)
O those who listen by ear and are enlightened! You listen to us with affection, with scholars who walk in company and are able to hold on themselves. Benefactor of all, judge, walking every morning with effort, having performed rituals of all non-violence yajnas, should be located from front in good behaviour or place.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By listening to all the knowledge humans, by appointing righteous people in the works of the state, certainly the learned people should get all the works accomplished by educated servants. It is sure that behaviour or ultimate goal will never be accomplished without continuous efforts, leaving laziness aside.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person full of the light of knowledge, who possesses the power of hearing, listen lovingly to our requests along with other enlightened persons who are able to carry on the work. May the dispenser of justice who is friendly to all along with other learned persons who go to their work daily in the morning and take their seats suitable after performing non-violent and inviolable Yajna.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे स्थाने वा = In proper place and dealing. ( प्रातर्यावाण:) ये प्रातः प्रतिदिनं पुरुषार्थं यान्ति ते = Those who go to work daily in the morning.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should appoint righteous persons well-versed in all sciences in the various works of the State. The learned should accomplish all works with the assistance of well-trained attendants. Men should give up all indolence and always be engaged in doing good deeds. Without doing so, it is not possible to accomplish all works whether secular or spiritual.
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