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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - पञ्चमः

    सु॒शंसो॑ बोधि गृण॒ते य॑विष्ठ्य॒ मधु॑जिह्वः॒ स्वा॑हुतः । प्रस्क॑ण्वस्य प्रति॒रन्नायु॑र्जी॒वसे॑ नम॒स्या दैव्यं॒ जन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒शंसः॑ । बो॒धि॒ । गृ॒ण॒ते । य॒वि॒ष्ठ्य॒ । मधु॑ऽजिह्वः । सुऽआ॑हुतः । प्रस्क॑ण्वस्य । प्र॒ऽति॒रन् । आयुः॑ । जी॒वसे॑ । न॒म॒स्य । दैव्य॑म् । जन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः । प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुशंसः । बोधि । गृणते । यविष्ठ्य । मधुजिह्वः । सुआहुतः । प्रस्कण्वस्य । प्रतिरन् । आयुः । जीवसे । नमस्य । दैव्यम् । जनम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशः कस्मै किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे यविष्ठ्य ! नमस्य विद्वन् मधुजिह्वः सुशंसः स्वाहुतः प्रस्कण्वस्य जीवस आयुः प्रतिरन्त्सँस्त्वं गृणते शास्त्राणि बोध्यनेन दैव्यं जनं रक्षसि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥६॥

    पदार्थः

    (सुशंसः) शोभना शंसाः स्तुतयो यस्य विदुषः सः (बोधि) बुध्येत। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (गृणते) स्तुतिं कुर्वते (यविष्ठ्य) अतिशयेन युवा यविष्ठो यविष्ठ एव यविष्ठ्यस्तत्सम्बुद्धौ (मधुजिह्वः) मधुरगुणयुक्ता जिह्वा यस्य। अत्र फलिपाटिनमि०। उ० १।१८। अनेन मनधातो रुः प्रत्ययो नस्य धकारादेशश्च। (स्वाहुतः) यः सुखेनाहूयते (प्रस्कण्वस्य) प्रकृष्टश्चासौ कण्वो मेधावी च तस्य (प्रतिरन्) दुःखात्तरन्। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (आयुः) जीवनम् (जीवसे) जीवितुम् (नमस्य) पूजितुं योग्य। अत्र नमस् धातोर्ण्यत्। अन्येषामपि० इति दीर्घश्च (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु भवम् (जनम्) मनुष्यम् ॥६॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैः सर्वोत्कृष्टत्वान्नमस्करणीयो विद्वाँश्च सत्कर्त्तव्यः। एवमेतं समाश्रित्य सर्वे आयुर्विद्ये प्राप्तव्ये इति ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, किसके लिये क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ्य) अत्यन्त बलवान् (नमस्य) पूजने योग्य विद्वान् (मधुजिह्वः) मधुर ज्ञानरूप जिह्वा युक्त (सुशंसः) उत्तम स्तुति से प्रशंसित (स्वाहुतः) सुख से आह्वान बोलने योग्य (प्रस्कण्वस्य) उत्तम मेधावी विद्वान् के (जीवसे) जीवन के लिये (आयुः) जीवन को (प्रतिरन्) दुःखों से पार करते जो आप (गृणते) सत्य की स्तुति करते हुए मनुष्य के लिये शास्त्रों का (बोधि) बोध कीजिये और जिससे (दैव्यम्) विद्वानों में उत्पन्न हुए (जनम्) मनुष्य की रक्षा करते हो इससे सत्कार के योग्य हो ॥६॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को उचित है कि जो सबसे उत्कृष्ट विद्वान् है उसीका सत्कार करें ऐसे ही इसका अच्छे प्रकार आश्रय लेकर सब उमर और विद्या को प्राप्त करें ॥६॥

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    विषय

    सुशंस, मधुजिह्व, स्वाहुत

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! आप (गृणते) - स्तुति करनेवाले के लिए (सशंसः) - उत्तम शंसन व उपदेश करनेवाले (बोधि) - जाने जाते हो । स्तोता के लिए आप उत्तम ज्ञान देते हैं । २. (यविष्ठ्य) - गुणों को प्राप्त कराने तथा अवगुणों को दूर करने में सर्वोत्तम प्रभो ! आप अपने स्तोता के लिए (मधुजिह्वः) - माधुर्यमय जिह्वावाले, अर्थात् अत्यन्त मधुर शब्दोंवाले तथा (स्वाहुतः) - [सु आहुतः] उत्तमोत्तम हव्य पदार्थों को देनेवाले हो । ३. आप (प्रस्कण्वस्य) - इस मेधावी पुरुष की (आयुः) - आयु को (प्रतिरन्) - बढ़ाते हुए (जीवसे) - उत्तम जीवन के लिए (दैव्यं जनम्) - दैव्य लोगों को, अर्थात् प्रभुप्रवण पुरुषों को (नमस्या) - [परिचरणकर्मा नमस्यति] पूजित कराइए । आपकी कृपा से यह अध्यात्मवृत्तिवाले लोगों के सम्पर्क में आये और उनकी सेवा - शुश्रूषा [परिचरण] करता हुआ उनके उपदेशों से जीवन - निर्माण की प्रेरणा लेता हुआ जीवन को उन्नत बनाए । उत्तम जीवन यही है कि मनुष्य [क] प्रभु के उत्तम उपदेशों को सुने, [ख] माधुर्यमयी जिह्वावाला हो, [ग] उत्तम सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करे, [घ] दैव्य लोगों के सम्पर्क में आकर जीवन को उत्तम बनाते हुए दीर्घ जीवनवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम जीवन का परिचय प्रस्तुत मन्त्र में 'सुशंसः, मधुजिह्वः, स्वाहुतः ' - इन शब्दों में दिया गया है । इस जीवन के निर्माण को लिए यत्नशील होना चाहिए तथा दीर्घजीवन प्राप्त करना चाहिए ।

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    हे (यविष्ट्य) अति युवा पुरुष के समान कभी क्षीण न होने वाले बलवीर्य से युक्त, अतिप्रिय! मनोहर! हे (नमस्य) नमस्कार करने योग्य पूज्य! परमेश्वर और राजन्! तू (सुशंसः) उत्तम स्तुतियों से युक्त एवं उत्तम अनुशासनों, शिक्षाओं से युक्त (मधुजिह्नः) मधुर, मनन करने योग्य ज्ञानों और वचनों को जिह्वा पर धारण करनेवाला, मधुर वाणी से बोलने वाला, (स्वाहुतः) उत्तम आदर सत्कार से सत्कृत होकर तू (प्रस्कण्वस्य) उत्तम मेधावी या भली प्रकार शत्रुओं के नाश करने वाले पुरुष को (जीवसे) जीवन के लिए (आयुः) दीर्घायु (प्र तिरन्) बढ़ाता हुआ (देव्यं) दिव्य, विद्वानों में श्रेष्ठ, एवं वीर पुरुषों में उत्तम जन की रक्षा कर और (गृणते) स्तुति करने वाले को (बोधि) ज्ञान प्रदान कर। (गृणते बोधि) उपदेश करने वाले के वचनों का श्रवण कर उनको समझा। (गृणते बोधि) प्रार्थना करने वाले का अभिप्राय जान। अथवा हे पुरुष! तू (दैव्यं जनं नमस्य) राजा, विद्वान् एवं ईश्वर के भक्तजन को नमस्कार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह अग्नि कैसा है, किसके लिये क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे यविष्ठ्य ! नमस्य विद्वन् मधुजिह्वः सुशंसः स्वाहुतः प्रस्कण्वस्य जीवस आयुः प्रतिरन् तु त्वं गृणते शास्त्राणि बोधि अनेन दैव्यं जनं रक्षसि तस्मात् सत्कर्त्तव्यः असि ॥६॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ्य) अतिशयेन युवा यविष्ठो यविष्ठ एव यविष्ठ्यस्तत्सम्बुद्धौ=अतिशय युवा [के समान], (नमस्य) पूजितुं योग्य=(नमस्य) पूजा के योग्य, (विद्वन्)=विद्वान् ! (मधुजिह्वः) मधुरगुणयुक्ता जिह्वा यस्य=मधुरगुणवाली जिह्वावाले, (सुशंसः) शोभना शंसाः स्तुतयो यस्य विदुषः सः=जिसकी विद्वान् शोभनीय प्रशंसा और स्तुतियां करते हैं, (स्वाहुतः) यः सुखेनाहूयते=सुखपूर्वक बुलाये जानेवाले, (प्रस्कण्वस्य) प्रकृष्टश्चासौ कण्वो मेधावी च तस्य=जिसकी स्तुति करनेवाले बुद्धिमान हैं, (जीवसे) जीवितुम्=जीवित रहने के लिये, (आयुः) जीवनम्=जीवन में, (प्रतिरन्) दुःखात्तरन्= दुःख से पार होने के लिये, (तु)=तो, (त्वम्)=तुम, (गृणते) स्तुतिं कुर्वते= स्तुति को करते हुए, (शास्त्राणि)= शास्त्रों को, (बोधि) बुध्येत=जानो, (अनेन)=इसके द्वारा, (दैव्यम्)=देव, (जनम्)=लोगों की, (रक्षसि)=रक्षा करते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (सत्कर्त्तव्यः)=सत्कर्मों को करनेवाले, (असि) भवेत्=होओ ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सब मनुष्यों के द्वारा सर्वोत्कृष्टता से नमस्कार करना चाहिए और विद्वानों कासत्कार करना चाहये। ऐसे ही इसका अच्छी तरह से आश्रय लेकर आयु और विद्या को प्राप्त करना चाहिए ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (यविष्ठ्य) अतिशय युवा [के समान] (नमस्य) पूजा के योग्य (विद्वन्) विद्वान् ! (मधुजिह्वः) मधुर गुणवाली जिह्वावाले, (सुशंसः) विद्वानों द्वारा शोभनीय प्रशंसा और स्तुतियों से प्रशंसनीय, (स्वाहुतः) सुखपूर्वक बुलाये जानेवाले, (प्रस्कण्वस्य) बुद्धिमानों द्वारा स्तुति किये जानेवाले, (आयुः) जीवन में (जीवसे) जीवित रहने के लिये [और] (प्रतिरन्) दुःख से पार होने के लिये (तु) तो (त्वम्) तुम (गृणते) स्तुति को करते हुए, [तुम] (शास्त्राणि) शास्त्रों को (बोधि) जानो। (अनेन) इसके द्वारा (दैव्यम्) देव (जनम्) लोगों की (रक्षसि) रक्षा करते हो, (तस्मात्) इसलिये (सत्कर्त्तव्यः) सत्कर्मों को करनेवाले (असि) होओ ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (सुशंसः) शोभना शंसाः स्तुतयो यस्य विदुषः सः (बोधि) बुध्येत। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (गृणते) स्तुतिं कुर्वते (यविष्ठ्य) अतिशयेन युवा यविष्ठो यविष्ठ एव यविष्ठ्यस्तत्सम्बुद्धौ (मधुजिह्वः) मधुरगुणयुक्ता जिह्वा यस्य। अत्र फलिपाटिनमि०। उ० १।१८। अनेन मनधातो रुः प्रत्ययो नस्य धकारादेशश्च। (स्वाहुतः) यः सुखेनाहूयते (प्रस्कण्वस्य) प्रकृष्टश्चासौ कण्वो मेधावी च तस्य (प्रतिरन्) दुःखात्तरन्। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (आयुः) जीवनम् (जीवसे) जीवितुम् (नमस्य) पूजितुं योग्य। अत्र नमस् धातोर्ण्यत्। अन्येषामपि० इति दीर्घश्च (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु भवम् (जनम्) मनुष्यम् ॥६॥ विषयः- पुनः स कीदृशः कस्मै किं करोतीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे यविष्ठ्य ! नमस्य विद्वन् मधुजिह्वः सुशंसः स्वाहुतः प्रस्कण्वस्य जीवस आयुः प्रतिरन्त्सँस्त्वं गृणते शास्त्राणि बोध्यनेन दैव्यं जनं रक्षसि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वैर्मनुष्यैः सर्वोत्कृष्टत्वान्नमस्करणीयो विद्वाँश्च सत्कर्त्तव्यः। एवमेतं समाश्रित्य सर्वे आयुर्विद्ये प्राप्तव्ये इति ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सर्वात उत्कृष्ट विद्वान आहे. त्याचाच सर्व माणसांनी सत्कार करावा व त्याच्या आश्रयाने आयुष्यभर विद्या प्राप्त करावी. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and universal knowledge, youngest ever young, universally celebrated you are, honey tongued, invoked and deeply honoured, protecting the life of the wise for the joy of living, worthy of obedience and obeisance, save the man of divinity and bless the celebrant with enlightenment.

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    Subject of the mantra

    Then how is that Agni (fire), for whom what does it do, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (yaviṣṭhya)=very young, [ke samāna]=similar to, (namasya)=worthy of worship, (vidvan)=scholar, (madhujihvaḥ)=sweet-tongued, (suśaṃsaḥ)=appreciated by praises worthy of the learned, (svāhutaḥ)=fondly called, (praskaṇvasya)=praised by the wise, (āyuḥ)=in the life, (jīvase) =to live, [aura]=and, (pratiran)=to get over grief, (tu)=certainly, (tvam)=you, (gṛṇate)=while praising, [tuma}=you, (śāstrāṇi)=to the scriptures, (bodhi)=know, (anena)=by this, (daivyam+ janam)=deities, (janam)=of people, (rakṣasi)=protect, (tasmāt)=therefore, (satkarttavyaḥ)=doers of the rightful karmas, (asi) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar worthy of worship like a very young man! Sweet-tongued, praiseworthy by the scholars and good praises, called upon with pleasure, praised by the wise, in order to survive in life and get over sorrow, you know the scriptures while praising. You protect people through this, so be a doer of good deeds.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- All human beings should offer obeisance with excellence and scholars should do good deeds. In the same way, by taking shelter of it well, one should get age and knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Agni) and what does he do is taught in the 6th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O most youthful (energetic) respectable learned person, you who are honey-tongued, universally praised, invited with pleasure, teach Shastras to the man who praises you, cast aside the misery of noble highly intelligent person, lengthening his life thereby and protect a divine man. It is for doing such noble deeds that you are honored by all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( प्रस्कण्वस्य) प्रकृष्टश्चासौ कण्वो मेधावी च तस्य = Of a highly intelligent person or genius.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A learned person should be honored and respected on account of his sublime virtues. Thus taking shelter in him and his guidance, all should acquire knowledge and long life.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted प्रस्कण्व as a highly intelligent person or genius, for which there is the clear authority of the Vedic Lexicon Nighantu 3.15 कएव इति मेघाविनाम ( निघ० ३.१५. ) It was wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Praskanva as the name of the son of a seer named Kanva. According to the Vedic Lexicon Nighantu 3.15 Kanva means an intelligent person and by the use of should mean a very highly intelligent person. Kapali Shastri ji has hinted at this meaning in his commentary saying." ज्ञानार्थक कण्व प्रभवस्य प्रकृष्टज्ञानस्येत्यवयवार्थानुगमादुपपत्तिरन्तर्यागे द्रष्टव्या ( श्री कपालिशास्त्रिकृते सिद्धांजनभाष्ये द्वितीयखण्डे पृ० ४२३,)

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