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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒नात्सनी॑ळा अ॒वनी॑रवा॒ता व्र॒ता र॑क्षन्ते अ॒मृताः॒ सहो॑भिः। पु॒रू स॒हस्रा॒ जन॑यो॒ न पत्नी॑र्दुव॒स्यन्ति॒ स्वसा॑रो॒ अह्र॑याणम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒नात् । सऽनी॑ळाः । अ॒वनीः॑ । अ॒वा॒ताः । व्र॒ता । र॒क्ष॒न्ते॒ । अ॒मृताः॑ । सहः॑ऽभिः । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । जन॑यः । न । पत्नीः॑ । दु॒व॒स्यन्ति॑ । स्वसा॑रः । अह्र॑याणम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनात्सनीळा अवनीरवाता व्रता रक्षन्ते अमृताः सहोभिः। पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीर्दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनात्। सऽनीळाः। अवनीः। अवाताः। व्रता। रक्षन्ते। अमृताः। सहःऽभिः। पुरु। सहस्रा। जनयः। न। पत्नीः। दुवस्यन्ति। स्वसारः। अह्रयाणम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    अवाता अवनीरिव पुरु सहस्रा जनयः पत्नीर्न ये सनीडा अमृताः सहोभिः सनाद् व्रता स्वसारोऽह्रयाणं बन्धुं दुवस्यन्तीव विद्याधर्मौ सेवन्ते ते मुक्तिमाप्नुवन्ति ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (सनात्) सनातनात्कारणात् (सनीडाः) समीपे वर्त्तमानाः (अवनीः) पृथिवीः (अवाताः) वायुकम्पादिरहिताः (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि। अत्र शेश्छन्दसि० इति शेर्लोपः। (रक्षन्ते) पालयन्ति। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (अमृताः) स्वरूपेण नित्याः (सहोभिः) बलैः (पुरु) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (जनयः) ये जनयन्ति ते पतयः (नः) इव (पत्नीः) भार्य्याः (दुवस्यन्ति) परिचरन्ति (स्वसारः) भगिन्यः (अह्रयाणम्) विगतलज्जं प्रकाशितम्। अत्र नञ्पूर्वाद्ध्रीधातोर्बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा पतयः स्वस्त्री-भगिनी-भ्रातॄन् विद्यार्थिन आचार्य्यांश्च सेवित्वा सुखानि विद्याश्च प्राप्नुवन्ति तथा धर्मारूढा धार्मिका विद्वांसः स्त्रीपुरुषा गृहे वसन्तोऽपि मुक्तिमाप्नुवन्ति ॥ १० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जैसे (अवाताः) हिंसारहित (अवनीः) भूमि सबकी रक्षा करती है (पुरुसहस्रा) बहुत हजारह (जनयः) उत्पन्न करनेहारे पति (पत्नीः) (न) जैसे अपनी स्त्रियों की रक्षा करते हैं, वैसे (सनीडाः) समीप में वर्त्तमान (अमृताः) नाशरहित विद्वान् लोग (सहोभिः) विद्या योग धर्मवालों से (सनात्) सनातन (व्रता) सत्य धर्म के आचरणों की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं, और जैसे (स्वसारः) बहिनें (अह्रयाणम्) लज्जा को अप्राप्त अपने भाई की (दुवस्यन्ति) सेवा करती हैं, वैसे विद्या और धर्म ही को सेवते हैं, वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पति लोग अपनी स्त्रियों, बहिनों और भाइयों तथा विद्यार्थी लोग आचार्य्यों की सेवा से सुख और विद्याओं को प्राप्त होते हैं, वैसे धर्मात्मा विद्वान् स्त्री-पुरुष लोग घर में बसते हुए मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥

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    विषय

    कर्म - व्यापृत अंगुलियाँ

    पदार्थ

    १. (सनात्) = सनातन काल से (सनीळाः) = एक ही हाथरूप आश्रय में रहनेवाली (अवाताः) = [वातः A faithless lover] जो अविश्वसनीय प्रेमी के समान नहीं हैं, अर्थात् सदा विश्वसनीय रूप से साथ देनेवाली हैं अथवा [वायति to be dried up, to be extinguished] जिनकी शक्ति शुष्क नहीं हो जाती, जो बुझी हुई अग्नि के समान नहीं हो जाती । (अमृताः) = जो कार्य करने में कभी मृत नहीं होती, सदा सजीव होकर कार्य में लगी रहती है, ऐसी (अवनीः) = ये अंगुलियाँ (सहोभिः) = अपनी शक्तियों से (व्रता रक्षन्ते) = व्रतों का रक्षण करती हैं । इन अंगुलियों का नाम 'दीधिति' भी हैं । ये 'धीयन्ते कर्मसु' कर्मों में नियुक्त की जाती हैं । अंगुलियाँ सदा व्रतों - पुण्यकार्यों में लगी रहती हैं, इसीलिए तो इनका नाम यहाँ 'अवनि' - रक्षा करनेवाली दिया गया है । क्रियाशीलता के द्वारा ये सदा रक्षण - कार्य में व्याप्त रहती हैं । २. ये (स्वसारः) = [स्वयं सरन्ति] सदा स्वयं कार्य में व्याप्त रहनेवाली अंगुलियाँ (अह्रयाणम्) = [अह्रीतयानम्] प्रशस्त गति व कर्मोंवाले पुरुष का उसी प्रकार (पुरू दुवस्यन्ति) = खूब उपासन करती हैं (न) = जैसेकि (सहस्त्रा) = सदा प्रसन्न रहनेवाली, Smiling face वाली (जनयः) = उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली (पत्नीः) = पत्नियाँ पतियों की सेवा करती हैं । पत्नी पति की पूरिका होती है । इसी प्रकार ये कर्मशील अंगुलियाँ हमारी पूरक हैं, हमारी न्यूनताओं को दूर कर ये हमारा रक्षण करती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ने हाथों में अंगुलियों की स्थापना इसलिए की है कि इनके द्वारा निरन्तर कार्य होते रहें और हमारे जीवन में किसी प्रकार की कमी न आये ।

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    विषय

    अंगुलियों के समान प्रजाओं और सेनाओं का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सनीडाः ) एकही आश्रय में रहने वाली (अवनीः) भूमिवासिनी प्रजाएं भी (अवनीः) अंगुलियों के समान रहकर (सहोभिः) शत्रु पराजयकारी बलों से युक्त होकर ( अमृताः ) कभी नाश को प्राप्त नहीं होतीं। और वे (अवाताः) प्रति पक्ष या प्रबल शत्रु रूप प्रचण्ड वायु से रहित होकर (व्रता) अपने २ कर्त्तव्यों और नियम धर्मों का (रक्षन्ते) पालन करती हैं। इसी प्रकार (सहोभिः अमृताः) बलों से नाश को न प्राप्त होने वाले विद्वान् और रक्षक भूपति गण (सनीडाः) एक ही देश में रहनेवाले (सनात्) सदा ही (व्रतार क्षन्ते) आपस में स्थिर धर्मों, कर्त्तव्यों का पालन करें। (जनयः) पुत्रोत्पादक, समर्थ पुरुष ( पत्नीः न ) जिस प्रकार अपनी स्त्रियों की रक्षा करते हैं उसी प्रकार वे भूपति लोक ( पुरु सहस्रा अवनीः ) सहस्रों भूमियों की रक्षा करें । ( स्वसारः ) बहिनें जिस प्रकार (अह्रयाणम्) बिना संकोच के आने जाने वाले बन्धु भाई की (दुवस्यन्ति) सेवा सत्कार करती हैं उसी प्रकार ( स्वसारः ) बहिनों के समान, या धनों को प्राप्त करनेवाली वे (अवनयः) प्रजाएं भी (अह्रयाणम्) विना संकोच और भय के शत्रु पर आक्रमण करने वाले वीर नृपति की ( दुवस्यन्ति ) परिचर्या करें, उसके अधीन रहें । इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वे पति और पत्नी कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अवाता अवनीः इव पुरु सहस्रा जनयः पत्नीः न ये सनीडा अमृताः सहोभिः सनाद् व्रता {रक्षन्ते} स्वसारःअह्रयाणं बन्धुं दुवस्यन्ति इव विद्याधर्मौ सेवन्ते ते मुक्तिम् आप्नुवन्ति ॥१०॥

    पदार्थ

    (अवाताः) वायुकम्पादिरहिताः= वायु के कम्पन से रहित, (अवनीः) पृथिवीः= पृथिवी के, (इव)=समान, (पुरु) बहूनि=बहुत, (सहस्रा) सहस्राणि=हजारों, (जनयः) ये जनयन्ति ते पतयः=जो उत्पन्न करते हैं, वे पति, (पत्नीः) भार्य्याः= पत्नी के, (न) इव= समान, (ये)=जो, (सनीडाः) समीपे वर्त्तमानाः= समीप में वर्त्तमान, (अमृताः) स्वरूपेण नित्याः= स्वरूपे से नित्य रहनेवाले, (सहोभिः) बलैः= बल से, (सनात्) सनातनात्कारणात्= सनातन कारणों से, (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि=सत्य आचरणों से, {रक्षन्ते} पालयन्ति=रक्षा करते हैं, (स्वसारः) भगिन्यः=बहिनें, (अह्रयाणम्) विगतलज्जं प्रकाशितम्=शर्म को त्याग कर सामने आती हुई, (बन्धुम्)= भाई की, (दुवस्यन्ति) परिचरन्ति= परिचारक होने के, (इव)=समान, (विद्याधर्मौ)=विद्या और धर्म का, (सेवन्ते)= सेवन करते हैं, (ते)=वे, (मुक्तिम्)= मुक्ति की, (आप्नुवन्ति)=प्राप्ति करते हैं ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पति लोग अपनी स्त्रियों, बहिनों, भाइयों, विद्यार्थियों और आचार्य्यों की सेवा करके सुख और विद्या की प्राप्ति करते हैं, वैसे ही धर्म का सहारा लिये हुए धार्मिक विद्वान् स्त्री-पुरुष घर में निवास करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त करते हैं ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अवाताः) वायु के कम्पन से रहित और (अवनीः) पृथिवी के (इव) समान (पुरु) बहुत, [अर्थात्] (सहस्रा) हजारों की संख्या में (जनयः) उत्पन्न करनेवाले पति, (पत्नीः) पत्नी के (न) समान (ये) जो (सनीडाः) समीप में वर्त्तमान और (अमृताः) स्वरूपे से नित्य रहनेवाले हैं, वे (सहोभिः) बल के द्वारा (सनात्) सनातन कारणों से (व्रता) सत्य आचरणों से {रक्षन्ते} रक्षा करते हैं। (स्वसारः) बहिनें (अह्रयाणम्) शर्म को त्याग कर सामने आती हुई (बन्धुम्) भाई की (दुवस्यन्ति) परिचारक होने के (इव) समान (विद्याधर्मौ) विद्या और धर्म से (सेवन्ते) सेवा करती हैं, (ते) वे सब (मुक्तिम्) मुक्ति को (आप्नुवन्ति) प्राप्त करते हैं ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सनात्) सनातनात्कारणात् (सनीडाः) समीपे वर्त्तमानाः (अवनीः) पृथिवीः (अवाताः) वायुकम्पादिरहिताः (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि। अत्र शेश्छन्दसि० इति शेर्लोपः। (रक्षन्ते) पालयन्ति। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (अमृताः) स्वरूपेण नित्याः (सहोभिः) बलैः (पुरु) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (जनयः) ये जनयन्ति ते पतयः (नः) इव (पत्नीः) भार्य्याः (दुवस्यन्ति) परिचरन्ति (स्वसारः) भगिन्यः (अह्रयाणम्) विगतलज्जं प्रकाशितम्। अत्र नञ्पूर्वाद्ध्रीधातोर्बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः ॥१०॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- अवाता अवनीरिव पुरु सहस्रा जनयः पत्नीर्न ये सनीडा अमृताः सहोभिः सनाद् व्रता स्वसारोऽह्रयाणं बन्धुं दुवस्यन्तीव विद्याधर्मौ सेवन्ते ते मुक्तिमाप्नुवन्ति ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा पतयः स्वस्त्री-भगिनी-भ्रातॄन् विद्यार्थिन आचार्य्यांश्च सेवित्वा सुखानि विद्याश्च प्राप्नुवन्ति तथा धर्मारूढा धार्मिका विद्वांसः स्त्रीपुरुषा गृहे वसन्तोऽपि मुक्तिमाप्नुवन्ति॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा पती आपल्या पत्नीची, भगिनी आपल्या बंधूंची व विद्यार्थी आचार्यांची सेवा करतात व विद्या आणि सुख प्राप्त करतात. तसे धर्मात्मा विद्वान स्त्री-पुरुषांना घरात राहूनही मुक्ती प्राप्त होते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Since time immemorial, born of the same cause, Prakrti, coexistent and cooperative, thousands of earths immortal in their own nature, undisturbed even by a breath of wind, observe the eternal laws of their existence with their innate powers. And as mothers nourish their child, wives love and serve their husbands, and sisters love and cooperate with their brothers, they do homage to the bold and intrepidable Indra.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should learned persons be is taught further in the 10th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The people of the earth living together and not disturbed by the wind of opposition of the enemies, possessing strength do not suffer as they observe vows or discharge their duties. As virile husbands protect thousands of lands with their power, as sisters serve their brothers, the subjects should serve the king. Those who serve knowledge and Dharma (righteousness) attain emancipation.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जनय:) ये जनयन्ति ते पतयः = Hasbands. (दुवस्यन्ति) परिचरन्ति = Serve. (दुवस्यति) परिचरणकर्मा (निघ० ३-५) (अवनी:) पृथिवी: = Earths or people living on the earth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As husbands get happiness by serving (looking to the needs of their wives, as sisters get delight by serving their brothers and preceptors get knowledge by serving their pupils, in the same manner, those righteous and learned persons who always are firmly engaged in discharging their duties, attain emancipation even if they dwell at home.

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    Subject of the mantra

    Then how they husband and wife should be, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (avātāḥ)= free from air vibrations and, (avanīḥ) =of earth, (iva) =like, (puru) =very, [arthāt]=or, (sahasrā) = thosands in number, (janayaḥ)=procreative husband, (patnīḥ) =of wife, (na) =like, (ye) =that, (sanīḍāḥ)=present nearby and, (amṛtāḥ)=eternal by nature, they, (sahobhiḥ) =by force, (sanāt) =for eternal reasons,(vratā)= by true conduct, {rakṣante} =protect, (svasāraḥ) =sisters, (ahrayāṇam) =abandoning shame and coming forward, (bandhum) =of brother, (duvasyanti) =of being attendant, (iva) =like, (vidyādharmau) =by knowledge and righteousness, (sevante) =serve,, (te) =all of them, (muktim) =salvation, (āpnuvanti) =attain.

    English Translation (K.K.V.)

    Like the husband and wife, who are free from the vibrations of the air and give birth to thousands of people like the earth, who are present nearby and always present in their form, they protect with the help of true conduct for eternal reasons through force. Sisters give up their shame and come forward and serve their brothers with knowledge and righteousness like attendants, they all attain salvation.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile as figurative in this mantra. Just as husbands attain happiness and knowledge by serving their wives, sisters, brothers, students and teachers, in the same way, righteous scholars, men and women, taking the help of righteousness, attain salvation even while living at home.

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