Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒नादे॒व तव॒ रायो॒ गभ॑स्तौ॒ न क्षीय॑न्ते॒ नोप॑ दस्यन्ति दस्म। द्यु॒माँ अ॑सि॒ क्रतु॑माँ इन्द्र॒ धीरः॒ शिक्षा॑ शचीव॒स्तव॑ नः॒ शची॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒नात् । ए॒व । तव॑ । रायः॑ । गभ॑स्तौ । न । क्षीय॑न्ते । न । उप॑ । द॒स्य॒न्ति॒ । द॒स्म॒ । द्यु॒मान् । अ॒सि॒ । क्रतु॑ऽमान् । इ॒न्द्र॒ । धीरः॑ शिक्ष॑ । श॒ची॒ऽवः॒ । तव॑ । नः॒ । शची॑भिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनादेव तव रायो गभस्तौ न क्षीयन्ते नोप दस्यन्ति दस्म। द्युमाँ असि क्रतुमाँ इन्द्र धीरः शिक्षा शचीवस्तव नः शचीभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनात्। एव। तव। रायः। गभस्तौ। न। क्षीयन्ते। न। उप। दस्यन्ति। दस्म। द्युमान्। असि। क्रतुऽमान्। इन्द्र। धीरः शिक्ष। शचीऽवः। तव। नः। शचीभिः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यसभाद्यध्यक्षयोर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे दस्म शचीव इन्द्र ! यस्त्वं द्युमान् क्रतुमान् धीरोऽसि तस्य तव गभस्तौ सनाद्रायो नैव क्षीयन्ते, तव नोपदस्यन्ति स त्वं शचीभिर्नोऽस्मान् शिक्ष ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (सनात्) सनातनात् (एव) निश्चये (तव) सभाध्यक्षस्य (रायः) धनानि (गभस्तौ) नीतिप्रकाशे। गभस्तय इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (न) निषेधे (क्षीयन्ते) क्षीणानि भवन्ति (न) निषेधे (उप) सामीप्ये (दस्यन्ति) नश्यन्ति (दस्म) शत्रोरुपक्षेतः (द्युमान्) विद्यादिसद्गुणप्रकाशयुक्तः (असि) (क्रतुमान्) प्रज्ञावान् (इन्द्र) परमधनवन् परमधनहेतुर्वा (धीरः) ध्यानवान् (शिक्ष) उपदिश (शचीवः) शची प्रशस्ता वाक् प्रज्ञा कर्म वा विद्यतेऽस्मिन् तत्सम्बुद्धौ। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (तव) भवत्प्रबन्धे (नः) अस्मान् (शचीभिः) कर्मभिः ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    यः सनातनाद्वेदविज्ञानात् शिक्षां प्राप्य सभाद्यध्यक्षो भूत्वा प्रजाः पालयेत्, स मनुष्यो धार्मिको वेद्यः ॥ १२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में सूर्य्य और सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (दस्म) शत्रुओं के नाश करनेवाले (शचीवः) उत्तम बुद्धि वा वाणी से युक्त (इन्द्र) उत्तम धनवाले सभाध्यक्ष ! जो आप (द्युमान्) विद्यादि श्रेष्ठ गुणों के प्रकाश से युक्त (क्रतुमान्) बुद्धि से विचार कर कर्म करनेवाले ! (धीरः) ध्यानी (असि) हैं, उस (तव) आपके (गभस्तौ) राजनीति के प्रकाश में (सनात्) सनातन से (रायः) धन (नैव) नहीं (क्षीयन्ते) क्षीण तथा (तव) आपके प्रबन्ध में (न) नहीं (उपदस्यन्ति) नष्ट होते हैं, सो आप अपनी (शचीभिः) बुद्धि, वाणी और कर्म से (नः) हम लोगों को (शिक्ष) उपदेश दीजिये ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यो को चाहिये कि जो सनातन वेद के ज्ञान से शिक्षा को और सभापति आदि के अधिकार को प्राप्त होके प्रजा का पालन करे, उसी मनुष्य को धर्मात्मा जानें ॥ १२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    द्युमान् + क्रतुमान्

    पदार्थ

    १. हे (दस्म) = सर्वदुःख - क्षयकारक प्रभो ! (तव गभस्तौ) = आपके हाथ में (रायः) = धन (सनात् एव) = सनातनकाल से ही (न क्षीयन्ते) = नष्ट नहीं होते हैं और अपने भक्तों के लिए निरन्तर दिये जाते हुए ये धन (न उप दस्यन्ति) = क्षीण नहीं होते अथवा आपसे दिये गये ये धन नाश करनेवाले नहीं होते । प्रभु का धन अनन्त है, उसमें कमी आने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । साथ ही, प्रभु से दिये गये धन हमारा कभी नाश नहीं करते, वे हमारे अकल्याण के लिए नहीं होते । सुपथ से अर्जित धन प्रभु से दिये गये हैं तथा विपथ से सञ्चित धन कामदेव की देन हैं, ये धन तो मनुष्य को मारते ही हैं । २. हे (इन्द्र) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! (द्युमान् असि) = आप ज्योतिर्मय हैं, साथ ही (क्रतुमान्) = कर्मोंवाले हैं । आपमें ज्ञान व कर्म का सनातन समुच्चय है । वस्तुतः आप ही (धीरः) = बुद्धिमान् हैं । हे (शचीवः) = शक्तिसम्पन्न प्रभो ! (तव शचीभिः) = आप अपनी शक्ति व कर्मों से (नः) = हमें (शिक्ष) = शक्तिशाली बनाने की कामनावाले होओ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का धन अक्षीण है । प्रभु ज्योति व कर्म के पुञ्ज हैं । वे धीर प्रभु हमें भी ज्योति व कर्मशीलता के द्वारा शक्ति सम्पन्न करें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऐश्वर्य वर्धक राजा ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) परमेश्वर ! एवं राजन् ! (दस्म) दुःखों और शत्रुओं के नाशक ! ( सनात् एव ) अनादि काल से ( तव गभस्तौ ) तेरे हाथ में, तेरे वश में विद्यमान (रायः ) ऐश्वर्य ( न क्षीयन्ते ) कभी क्षीण नहीं होते, (न उपदस्यन्ति) वे कभी नाश को प्राप्त नहीं होते । तेरे ऐश्वर्य सदा अक्षय और अविनश्वर हैं। तू ( द्युमान् ) तेजस्वी (क्रतुमान्) कर्म और ज्ञानवान्, ( धीरः ) बुद्धिमान्, ध्यानवान् (असि) हों । हे (शचीवः) उत्तम वाणी और उत्तम बुद्धि चाले ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे विद्वन् ! तू ( तव शचीभिः ) अपनी वाणियों, बुद्धियों और शक्तियों से (नः शिक्ष) हमें शिक्षा प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब इस मन्त्र में सूर्य्य और सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे दस्म शचीव इन्द्र ! यः त्वं द्युमान् क्रतुमान् धीरः असि तस्य तव गभस्तौ सनात् रायः न एव क्षीयन्ते तव न उप दस्यन्ति स त्वं शचीभिः नः अस्मान् शिक्ष ॥१२॥

    पदार्थ

    हे (दस्म) शत्रोरुपक्षेतः= शत्रुओं को मिटानेवाले, (शचीवः) शची प्रशस्ता वाक् प्रज्ञा कर्म वा विद्यतेऽस्मिन् तत्सम्बुद्धौ=उत्कृष्ट वाणी, प्रज्ञा और कर्म वाले, (इन्द्र) परमधनवन् परमधनहेतुर्वा=परम धन वाले और धन के हेतु ! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (द्युमान्) विद्यादिसद्गुणप्रकाशयुक्तः=विद्या आदि सद्गुणों के प्रकाश से युक्त हो, (क्रतुमान्) प्रज्ञावान्= प्रज्ञावाले और, (धीरः) ध्यानवान्=ध्यानवाले, (असि)=हो, (तस्य)=उस, (तव) भवत्प्रबन्धे=आपके प्रबन्ध में, (गभस्तौ) नीतिप्रकाशे= नीति के प्रकाश में, (सनात्) सनातनात्= सनातन काल से, (रायः) धनानि=धन, (न) निषेधे=नहीं, (एव) निश्चये= निश्चय से ही, (क्षीयन्ते) क्षीणानि भवन्ति=क्षीण होते हैं, (तव) सभाध्यक्षस्य=तुम सभा के अध्यक्ष के, (न) निषेधे=नहीं, (उप) सामीप्ये=समापता में, (दस्यन्ति) नश्यन्ति=नष्ट होते हैं, (सः)=वह, (त्वम्)=तुम, (शचीभिः) कर्मभिः=कर्मों के द्वारा, (नः) अस्मान्=हमें, (शिक्ष) उपदिश= उपदेश दीजिये ॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो सनातन वेद के विशेष ज्ञान से शिक्षा प्राप्त करके सभा आदि का अध्यक्ष होकर प्रजा का पालन करे, उस मनुष्य को धार्मिक जानना चाहिए ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (दस्म) शत्रुओं को मिटानेवाले, (शचीवः) उत्कृष्ट वाणी, प्रज्ञा, कर्म वाले, (इन्द्र) परम धन वाले और धन के हेतु ! (यः) जो (त्वम्) तुम (द्युमान्) विद्या आदि सद्गुणों के प्रकाश से युक्त, (क्रतुमान्) प्रज्ञावाले और (धीरः) ध्यानवाले (असि) हो। (तस्य) उस (तव) आपके प्रबन्ध में, (गभस्तौ) नीति के प्रकाश में (सनात्) सनातन काल से (रायः) धन, (एव) निश्चय से ही (न+क्षीयन्ते) क्षीण नहीं होते हैं। (तव) तुम सभा के अध्यक्ष की (उप) समीपता में (न+दस्यन्ति) नष्ट नहीं होते हैं। (सः) वह (त्वम्) तुम (शचीभिः) कर्मों के द्वारा (नः) हमें (शिक्ष) उपदेश दीजिये ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सनात्) सनातनात् (एव) निश्चये (तव) सभाध्यक्षस्य (रायः) धनानि (गभस्तौ) नीतिप्रकाशे। गभस्तय इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (न) निषेधे (क्षीयन्ते) क्षीणानि भवन्ति (न) निषेधे (उप) सामीप्ये (दस्यन्ति) नश्यन्ति (दस्म) शत्रोरुपक्षेतः (द्युमान्) विद्यादिसद्गुणप्रकाशयुक्तः (असि) (क्रतुमान्) प्रज्ञावान् (इन्द्र) परमधनवन् परमधनहेतुर्वा (धीरः) ध्यानवान् (शिक्ष) उपदिश (शचीवः) शची प्रशस्ता वाक् प्रज्ञा कर्म वा विद्यतेऽस्मिन् तत्सम्बुद्धौ। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (तव) भवत्प्रबन्धे (नः) अस्मान् (शचीभिः) कर्मभिः ॥१२॥ विषयः- अथ सूर्यसभाद्यध्यक्षयोर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे दस्म शचीव इन्द्र ! यस्त्वं द्युमान् क्रतुमान् धीरोऽसि तस्य तव गभस्तौ सनाद्रायो नैव क्षीयन्ते, तव नोपदस्यन्ति स त्वं शचीभिर्नोऽस्मान् शिक्ष ॥१२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यः सनातनाद्वेदविज्ञानात् शिक्षां प्राप्य सभाद्यध्यक्षो भूत्वा प्रजाः पालयेत्, स मनुष्यो धार्मिको वेद्यः ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सनातन वेदाच्या ज्ञानाने शिक्षण व सभापती इत्यादीचे अधिकार प्राप्त करून प्रजेचे पालन करतो त्यालाच माणसांनी धर्मात्मा समजावे. ॥ १२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Since eternity, O lord of infinite light and generosity, the wealths in your open hand never decrease, never will they exhaust. You are the lord supreme of light and knowledge. You are the lord of omnipotence. You are the master of the dynamics of existence. You are calm and constant. You are the lord of kindness, favour and grace. Enlighten us with the light of knowledge. Bless us with your favours and grace.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of the President of the Assembly etc. are taught in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly etc.) O destroyer of enemies, O possessor of noble intellect, speech and actions, thou art the illuminator of knowledge and other virtues, art, illustrious, wise, engaged in doing noble deeds given to meditation and resolute. Therefore the riches that have been held in thy hands as a result of the eternal Vedic wisdom, have suffered neither loss nor diminution in the light of thy good policy. Therefore teach us. well thy acts by thy example, as thou art diligent in action.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गभस्तौ) नीतिप्रकाशे = In the light of a good policy. गभस्तय इति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) (धीरः) ध्यानवान् =A man given to meditation. (शचीव:) शची प्रशस्तावाक प्रज्ञा कर्म वा विद्यतेऽस्मिन् तत्सम्बुद्धौ । शचीति प्रज्ञानाम (निघ० ३.९) शचीति कर्मनाम (निघ० २.१ ) शचीति वाङ्नाम (निघ० १.११) =O Possessor of noble intellect, action and speech.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He should be known to be a righteous person who acquires knowledge from the eternal Vedas and being the President of the Assembly etc. protects his subjects well.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now in this mantra the qualities of Sun and Chairman of the Assembly etc. have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dasma) =destroyer of enemies, (śacīvaḥ)= those with excellent speech, intelligence and actions, (indra)=for those with great wealth and wealth, (yaḥ) =that, (tvam) =you, (dyumān) =filled with the light of knowledge and virtues, (kratumān)=wise and, (dhīraḥ)=meditative ones, (asi) =are, (tasya) =that, (tava)=under your management, (gabhastau)=in light of policy, (sanāt)=since eternity, (rāyaḥ) =wealth, (eva=definitely, (na+kṣīyante)= are not weakened, (tava) =of you Chairman of the Assembly, (upa) =in proximity, (na+dasyanti)= do not get destroyed, (saḥ) =that, (tvam) =you, (śacībhiḥ) =by deeds, (naḥ) =to us, (śikṣa) =preach.

    English Translation (K.K.V.)

    wisdom and action, possessor of supreme wealth and the seeker of wealth! You, who are filled with the light of knowledge and virtues, intelligence and are meditative. Under your management, in the light of that policy, wealth definitely does not diminish from time immemorial. You do not get destroyed in the proximity of the Chairman of the Assembly. That you, preach us that, through your deeds.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The person, who after getting education with the special knowledge of eternal Vedas, becomes the Chairman of the Assembly et cetera and protects the people, that person should be considered righteous.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top