Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इन्द्र॒स्याङ्गि॑रसां चे॒ष्टौ वि॒दत्स॒रमा॒ तन॑याय धा॒सिम्। बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ विद॒द्गाः समु॒स्रिया॑भिर्वावशन्त॒ नरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । अङ्गि॑रसाम् । च॒ । इ॒ष्टौ । वि॒दत् । स॒रमा॑ । तन॑याय । धा॒सिम् । बृह॒स्पतिः॑ । भि॒नत् । अद्रि॑म् । वि॒दत् । गाः । सम् । उ॒स्रिया॑भिः । वा॒व॒श॒न्त॒ । नरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विदत्सरमा तनयाय धासिम्। बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः समुस्रियाभिर्वावशन्त नरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। अङ्गिरसाम्। च। इष्टौ। विदत्। सरमा। तनयाय। धासिम्। बृहस्पतिः। भिनत्। अद्रिम्। विदत्। गाः। सम्। उस्रियाभिः। वावशन्त। नरः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैरेतत्किमर्थमनुष्ठेयमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे नरो मनुष्याः ! यथा सरमा माता तनयाय धासिं विदत् प्राप्नोति यथा बृहस्पतिः सभाद्यध्यक्षो यथा सूर्य उस्रियाभिः किरणैरद्रिं भिनद्विदृणाति यथा गा विदत् प्राप्नोति तथैव यूयमपीन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विद्यादिसद्गुणान् संवावशन्त पुनः पुनः सम्यक् प्रकाशयन्तः, यतः सर्वस्मिन् जगत्यविद्यादिदुष्टगुणा नश्येयुः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सभाद्यध्यक्षस्य (अङ्गिरसाम्) विद्याधर्मराज्यप्राप्तिमतां विदुषाम्। अङ्गिरस इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (च) समुच्चये (इष्टौ) इष्टसाधिकायां नीतौ (विदत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (सरमा) यथा सरान् विद्याधर्मबोधान् मिमीते तथा। आतोऽनुपसर्गे कः । (अष्टा०३.२.३) इति कः प्रत्ययः (तनयाय) सन्तानाय (धासिम्) अन्नादिकम्। धासिमित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (बृहस्पतिः) बृहतां पतिः पालयिता सभाद्यध्यक्षः (भिनत्) भिनत्ति। अत्र लडर्थे लङडभावश्च। (अद्रिम्) मेघम् (विदत्) प्राप्नोति। अस्याऽपि सिद्धिः पूर्ववत्। (गाः) पृथिवीः (सम्) सम्यगर्थे (उस्रियाभिः) किरणैः (वावशन्त) पुनः पुनः प्रकाशयत (नरः) ये नृणन्ति नयन्ति ते मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मातृवत्प्रजायां वर्त्तित्वा सूर्यवद् विद्यादिसद्गुणान् प्रकाश्येश्वरोक्तायां विद्वदनुष्ठितायां नीतौ स्थित्वा सर्वोपकारं कर्म कृत्वा सदा सुखयितव्यम् ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को पूर्वोक्त कृत्य किसलिये करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (नरः) सुखों को प्राप्त करानेवाले मनुष्यो ! जैसे (सरमा) विद्या धर्मादिबोधों को उत्पन्न करनेवाली माता (तनयाय) पुत्र के लिये (धासिम्) अन्न आदि अच्छे पदार्थों को (विदत्) प्राप्त करती है, जैसे (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों को रक्षा करनेवाला सभाध्यक्ष जैसे सूर्य (उस्रियाभिः) किरणों से (अद्रिम्) मेघ को (भिनत्) विदारण और जैसे (गाः) सुशिक्षित वाणियों को (विदत्) प्राप्त करता है, वैसे तुम भी (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवाले परमेश्वर, सभाध्यक्ष वा सूर्य (च) और (अङ्गिरसाम्) विद्या, धर्म और राज्यवाले विद्वानों की (इष्टौ) इष्ट की सिद्ध करनेवाली नीति में विद्यादि उत्तम गुणों का (संवावशन्त) अच्छे प्रकार वार-वार प्रकाश करो, जिससे सब संसार में अविद्यादि दुष्ट गुण नष्ट हों ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि माता के समान प्रजा में वर्त्त कर, सूर्य के समान विद्यादि उत्तम गुणों का प्रकाश कर, ईश्वर की कही वा विद्वानों से अनुष्ठान की हुई नीति में स्थित हो और सबके उपकार को करते हुए विद्यादि सद्गुणों के आनन्द में सदा मग्न रहें ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    बुद्धि का स्वाध्यायरूपी भोजन

    पदार्थ

    १. (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (च) = और अतएव (अङ्गिरसाम्) = अङ्ग - प्रत्यङ्ग में रस - सञ्चारवाले पुरुषों के (इष्टौ) = प्रभुपूजन के होने पर (सरमा) = [स+रमा] आत्मा के साथ रमण करनेवाली बुद्धि, आत्मारूपी रथी के साथ सारथिरूपेण रहनेवाली बुद्धि (तनयाय) = अपने विस्तार के लिए [तनु विस्तारे] (धासिम्) = भोजन को (विदत्) = प्राप्त कराती है । नवीन - नवीन ग्रन्थों का स्वाध्याय ही वह भोजन है जो बुद्धि का विस्तार करता है । २. स्वाध्याय के द्वारा बुद्धि का विस्तार करनेवाला यह (बृहस्पतिः) = ऊँचे - से - ऊँचे ज्ञान का पति (अद्रिम्) = अज्ञान के पर्वत को (भिनत्) = विदीर्ण करता है । अज्ञान - पर्वत को विदीर्ण करके (गाः विदत्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करता है । ३. (नरः) = [नृ नये] ये नर लोग अपने को उन्नतिपथ पर ले - चलनेवाले लोग (उस्त्रियाभिः) = प्रकाश की किरणों के निमित्त (संवावशन्त) = [वाशृ शब्दे] प्रभु की स्तुतियों का उच्चारण करते हैं अथवा ‘वश कान्तौ’ प्रभु - स्तुति की कामना करते हैं । ४. बुद्धि के परिपोषण के लिए आवश्यक है कि हम [क] जितेन्द्रिय बनें [इन्द्रस्य], [ख] अङ्गों को रसमय बना दें, अर्थात् यथासम्भव स्वस्थ हों, [ग] प्रभुपूजन की वृत्तिवाले हों [इष्टौ], [घ] बुद्धि को स्वाध्यायरूप भोजन अवश्य प्राप्त कराएँ [धासिम्] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा बुद्धि को उचित भोजन प्राप्त कराएँ और इस प्रकार बुद्धि का ठीक परिपोषण करें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    माता पुत्र के दृष्टान्त से सेना के कर्तव्य । मेघ और सूर्य के समान सेनापत्ति का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सरमा ) माता जिस प्रकार ( तनयाय ) अपने पुत्र के लिए ( धासिम् ) अन्न को ( विदत् ) प्राप्त करती है उसी प्रकार ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् राजा या सभाध्यक्ष और (अंगिरसां च) बलवान् तेजस्वी, पुरुषों के (इष्टौ) इच्छानुकूल संचालित नीति के युद्ध मार्ग में चलती हुई (सरमा) वेग से आगे बढ़नेवाली सेना और (तनयाय) अपने सन्तान के लिए ( धासिम् ) अन्न आदि शरीर धारक भोग्य पदार्थ को ( विदत् ) प्राप्त करे । और (अद्रिम्) सूर्य जिस प्रकार मेघ को ( उग्रियाभिः ) किरणों से छिन्न-भिन्न करता है ( बृहस्पतिः ) बड़े भारी बल और राष्ट्र का स्वामी, उसी प्रकार (अद्रिम्) पर्वत के समान अचल शत्रु को भी ( उस्त्रियाः ) उदय को प्राप्त होनेवाली, सहोत्थायी वीर सेना द्वारा (भिनत्) तोड़ डाले। (गाः विदत्) जिस प्रकार सूर्य मेघ के छिन्न भिन्न हो जाने पर अपनी किरण को पुनः तेजोरूप से प्राप्त करता है उसी प्रकार वह राजा भी नाना भूमियों को प्राप्त करे। और ( नरः ) नायकजन (सं वावशन्तु) उसको एक साथ ही मिलकर प्रकाशित करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर मनुष्यों को पूर्वोक्त कृत्य किसलिये करना चाहिये, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे नरः मनुष्याः ! यथा सरमा माता तनयाय धासिं विदत् प्राप्नोति यथा बृहस्पतिः सभाद्यध्यक्षः यथा सूर्यः उस्रियाभिः किरणैः अद्रिं भिनद् विदृणाति यथा गाः विदत् प्राप्नोति तथैव यूयम् अपि इन्द्रस्य अङ्गिरसां च इष्टौ विद्यादि सद्गुणान् संवावशन्त पुनः पुनः सम्यक् प्रकाशयन्तः यतः सर्वस्मिन् जगति अविद्यादि दुष्टगुणाः नश्येयुः ॥३॥

    पदार्थ

    हे (नरः) ये नृणन्ति नयन्ति ते मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ=मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (सरमा) यथा सरान् विद्याधर्मबोधान् मिमीते तथा= विद्या के धर्म के बोध को उत्पन्न करती हूई, (माता)= माता, (तनयाय) सन्तानाय=सन्तान के लिये, (धासिम्) अन्नादिकम्=अन्न आदि को, (विदत्) प्राप्नोति= प्राप्त कराती है, (यथा)=जैसे, (बृहस्पतिः) बृहतां पतिः पालयिता सभाद्यध्यक्षः=बहुतों का पालन और रक्षण करनेवाला सभा आदि का अध्यक्ष, (यथा)=जैसे, (सूर्यः) =सूर्य की, (उस्रियाभिः) किरणैः=किरणों के द्वारा, (अद्रिम्) मेघम्=बादल का, (भिनत्) भिनत्ति=छेदन किया जाता है, (विदृणाति)= टुकड़े-टुकड़े किया जाता है, (यथा)=जैसे, (गाः) पृथिवीः= पृथिवी, (विदत्) प्राप्नुयात् =प्राप्त होती है, (तथैव)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सभाद्यध्यक्षस्य=परम ऐश्वर्य वाले सभा आदि के अध्यक्ष, (च) समुच्चये=और, (अङ्गिरसाम्) विद्याधर्मराज्यप्राप्तिमतां विदुषाम्= विद्या, धर्म और राज्य को प्राप्त इनको, (इष्टौ) इष्टसाधिकायां नीतौ=इच्छित साधिकाओं के, (विद्यादि)= विद्या आदि, (सद्गुणान्)=सद्गुणों को, (सम्) सम्यगर्थे=अच्छी तरह से, (वावशन्त) पुनः पुनः प्रकाशयत=बार-बार प्रकाशित करते हो, (यतः)=क्योंकि, (सर्वस्मिन्) =समस्त, (जगति)=जगत् में, (अविद्यादि)= अविद्या आदि, (दुष्टगुणाः)= दुष्ट गुण, (नश्येयुः)=नष्ट हो जायें ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा माता के समान प्रजा से व्यवहार करते हुए, सूर्य के समान विद्या आदि उत्तम गुणों का प्रकाश करके, ईश्वर की कही और विद्वानों में स्थापित की हुईं नीतियों में रहते हुए सबके उपकार के कर्म करके सदा सुख में रहना चाहिए ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (नरः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे (सरमा) विद्या के धर्म के बोध को उत्पन्न करती हूई, (माता) माता (तनयाय) सन्तान के लिये (धासिम्) अन्न आदि को (विदत्) प्राप्त कराती है। (बृहस्पतिः) बहुतों का पालन और रक्षण करनेवाला सभा आदि का अध्यक्ष, (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य की (उस्रियाभिः) किरणों के द्वारा (अद्रिम्) बादल का (भिनत्) छेदन करते हुए (विदृणाति) टुकड़े-टुकड़े कर देता है और (यथा) जैसे (गाः) पृथिवी (विदत्) प्राप्त होती है, [अर्थात् बादल हटने से दिखाई देती है], (तथैव) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य वाले सभा आदि के अध्यक्ष (च) और (अङ्गिरसाम्) विद्या, धर्म और राज्य को प्राप्त, (इष्टौ) इच्छित साधिकाओं के (विद्यादि) विद्या आदि (सद्गुणान्) सद्गुणों को (सम्) अच्छी तरह से (वावशन्त) बार-बार प्रकाशित करते हो, (यतः) क्योंकि (सर्वस्मिन्) समस्त (जगति) जगत् में (अविद्यादि) अविद्या आदि (दुष्टगुणाः) दुष्ट गुण (नश्येयुः) नष्ट हो जायें ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सभाद्यध्यक्षस्य (अङ्गिरसाम्) विद्याधर्मराज्यप्राप्तिमतां विदुषाम्। अङ्गिरस इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (च) समुच्चये (इष्टौ) इष्टसाधिकायां नीतौ (विदत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (सरमा) यथा सरान् विद्याधर्मबोधान् मिमीते तथा। आतोऽनुपसर्गे कः । (अष्टा०३.२.३) इति कः प्रत्ययः (तनयाय) सन्तानाय (धासिम्) अन्नादिकम्। धासिमित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (बृहस्पतिः) बृहतां पतिः पालयिता सभाद्यध्यक्षः (भिनत्) भिनत्ति। अत्र लडर्थे लङडभावश्च। (अद्रिम्) मेघम् (विदत्) प्राप्नोति। अस्याऽपि सिद्धिः पूर्ववत्। (गाः) पृथिवीः (सम्) सम्यगर्थे (उस्रियाभिः) किरणैः (वावशन्त) पुनः पुनः प्रकाशयत (नरः) ये नृणन्ति नयन्ति ते मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ ॥३॥ विषयः- पुनर्मनुष्यैरेतत्किमर्थमनुष्ठेयमित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे नरो मनुष्याः ! यथा सरमा माता तनयाय धासिं विदत् प्राप्नोति यथा बृहस्पतिः सभाद्यध्यक्षो यथा सूर्य उस्रियाभिः किरणैरद्रिं भिनद्विदृणाति यथा गा विदत् प्राप्नोति तथैव यूयमपीन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विद्यादिसद्गुणान् संवावशन्त पुनः पुनः सम्यक् प्रकाशयन्तः, यतः सर्वस्मिन् जगत्यविद्यादिदुष्टगुणा नश्येयुः ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मातृवत्प्रजायां वर्त्तित्वा सूर्यवद् विद्यादिसद्गुणान् प्रकाश्येश्वरोक्तायां विद्वदनुष्ठितायां नीतौ स्थित्वा सर्वोपकारं कर्म कृत्वा सदा सुखयितव्यम् ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी मातेप्रमाणे प्रजेशी वागावे. सूर्याप्रमाणे विद्या इत्यादी उत्तम गुणांचा प्रकाश करावा व ईश्वरी वाणीत व विद्वानांच्या अनुष्ठानाने युक्त नीतीत स्थित व्हावे व सर्वांवर उपकार करीत विद्या इत्यादी सद्गुणाच्या आनंदात सदैव मग्न राहावे. ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a mother gives milk to the child, as Brihaspati, the sun, breaks the cloud with its rays and the light reaches the earth, so you, men and women of the world, in the yajna of Indra and the yajnic programmes of the scholars of science and society, shining and advancing like sun-rays, spread the light of knowledge and the joy of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Why should men do all the above is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, as virtuous mother who gives knowledge of duty to her child, gives him proper nourishing food, as the sun dispels clouds with his rays, in the same way, an army guided in policy by the Commander and vigorous persons brilliant like the sun, destroys all wicked mighty persons who may be like the mountains and quires lands forcibly occupied by them. You should also manifest and spread knowledge so that other vices may disappear from the whole world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अंगिरसाम्) विद्याधर्मराज्यप्राप्तिमतां विदुषाम् । अंगिरस इति पदनाम (निघ० ५५ ) = Persons possessing knowledge, righteousness and kingdom. (सरमा) यथा सरान् विद्याधर्मबोधान् मिमीते तथा । आतोऽनुपसर्गे कः इति कः प्रत्ययः || = Mother who gives knowledge of duties to her children.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always enjoy happiness, by behaving lovingly with the subjects like mothers, by manifesting knowledge and other virtues like the sun dispelling all darkness of ignorance, by remaining firm in the policy taught by God through the Vedas and followed by learned persons and by doing good to all.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then why should humans perform the above mentioned actions, this matter is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (naraḥ) =humans, (yathā) =like (saramā) =giving rise to the sense of righteousness of knowledge, (mātā) =mother, (tanayāya) =for the children, (dhāsim) =food etc.,(vidat) =gets obtained, (bṛhaspatiḥ) =the one who nurtures and protects many, the chairman of the Assembly etc., (yathā) =like (sūryaḥ) =Sun, (usriyābhiḥ) =by the rays, (adrim) =of cloud, (bhinat) =piercing, (vidṛṇāti) breaks into pieces and, (yathā) =like (gāḥ) =earth, (vidat) = is received, [arthāt bādala haṭane se dikhāī detī hai] that is, it becomes visible after the clouds move away, (tathaiva) =in the same way, (yūyam) =all of you, (api) =also (indrasya)=those of ultimate opulence, President of the Assembly. (ca) =and, (aṅgirasām) =attain knowledge, religion and kingdom, (iṣṭau) =of desired lady seekers, (vidyādi) =knowledge etc., (sadguṇān) =to virtues (sam) =properly,(vāvaśanta) =manifest again and again, (yataḥ) =because, (sarvasmin) =all, (jagati) =in the world, (avidyādi)=nescience etc. (duṣṭaguṇāḥ) =evil qualities, (naśyeyuḥ)= be destroyed.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just as a mother, while inculcating knowledge of righteousness, provides food etc. for her children. The one who nurtures and protects many, the one who presides over the Assembly etc., just as a cloud is broken into pieces by the rays of the Sun and just as the earth is obtained, i.e. becomes visible after the clouds are removed, in the same way all of you too are blessed with supreme opulence. The President of the Assembly etc. and the good qualities of the seekers who have achieved knowledge, righteousness and state, and the knowledge etc. of the desired lady seekers, are manifested well again and again, so that the evil qualities like nescience etc. should be destroyed in the entire world.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. One should always remain happy by treating the people like a mother, by radiating good qualities like the Sun, by radiating knowledge etc., by living by the policies said by God and established among the scholars, by doing deeds of favour to all, et cetera.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top