Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    द्वि॒ता वि व॑व्रे स॒नजा॒ सनी॑ळे अ॒यास्यः॒ स्तव॑मानेभिर॒र्कैः। भगो॒ न मेने॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्नधा॑रय॒द्रोद॑सी सु॒दंसाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वि॒ता । वि । व॒व्रे॒ । स॒ऽनजा॑ । सनी॑ळे॒ इति॒ सऽनी॑ळे । अ॒यास्यः॑ । स्तव॑मानेभिः । अ॒र्कैः । भगः॑ । न । मेने॒ इति॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । अधा॑रयत् । रोद॑सी॒ इति॑ । सु॒ऽदंसाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्विता वि वव्रे सनजा सनीळे अयास्यः स्तवमानेभिरर्कैः। भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्विता। वि। वव्रे। सऽनजा। सनीळे इति सऽनीळे। अयास्यः। स्तवमानेभिः। अर्कैः। भगः। न। मेने इति। परमे। विऽओमन्। अधारयत्। रोदसी इति। सुऽदंसाः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यथा विद्वद्भिर्या सनीडे स्तवमानेभिरर्कैः सनजा द्विता विवव्रे विशेषेण व्रियते तथा मनुष्योऽयास्यः सुदंसा अहं परमे व्योमन् रोदसी भगो न सवितेव अधारयत् धारयेत् विद्वान् मेने तथाऽहं धरेयं मन्ये च ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (द्विता) द्वयोः प्रजासभाद्यध्यक्षयोर्भावो द्विता (वि) विशेषे (वव्रे) व्रियते (सनजा) या सनेति सनातनाज्जायते सा (सनीडे) समीपे (अयास्यः) प्रयत्नासाध्यः स्वाभाविकः (स्तवमानेभिः) स्तुवन्ति यैस्तैः (अर्कैः) स्तोत्रैः (भगः) ऐश्वर्य्यम् (न) इव (मेने) प्रक्षेप्ये। अत्र बाहुलकाङ्डुमिञ् धातोर्नः प्रत्ययः आत्वनिषेधश्च। (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) अन्तरिक्षे। अत्र सुपां सुलुक् इति सप्तम्या लुक्। (अधारयत्) धारयेत् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सुदंसाः) शोभनानि दसांसि कर्माणि यस्मिन् सः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सभाद्यध्यक्षेणैश्वर्य्यं ध्रियते यथा च सूर्य्यः प्रकाशपृथिव्यौ धरति तथैव न्यायविद्ये धर्त्तव्ये ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जैसे विद्वानों से जो (सनीडे) समीप (स्तवमानेभिः) स्तुतियुक्त (अर्कैः) स्तोत्रों से (सनजा) सनातन कारण से उत्पन्न हुई (द्विता) दो अर्थात् प्रजा और सभाध्यक्ष को (विवव्रे) विशेष करके स्वीकार किया जाता है, वैसे मनुष्य (अयास्यः) अनायास से सिद्ध करनेवाला (सुदंसाः) उत्तम कर्मयुक्त मैं जैसे (परमे) (व्योमन्) उत्तम अन्तरिक्ष में (रोदसी) प्रकाश और भूमि को (भगो न) सूर्य्य के समान विद्वान् (मेने) मानता और (अधारयत्) धारण करता है, वैसे इसको धारण करता और मानता हूँ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सभा आदि का अध्यक्ष ऐश्वर्य को और जैसे सूर्य प्रकाश तथा पृथिवी को धारण करता है, वैसे ही न्याय और विद्या को धारण करें ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    द्युलोक एवं पृथिवीलोक की स्थापना

    पदार्थ

    १. (अयास्यः) = [Indefatigable] अनन्त शक्तिमत्ता के कारण कभी न थकनेवाला वह प्रभु (द्विता ) = दो प्रकार से (विवव्रे) = विवृत करता है, अर्थात् द्युलोक व पृथिवीलोक को पृथक् - पृथक् स्थापित करता है, जो द्युलोक व पृथिवीलोक (सनजा) = [नित्यजाते] सनातन काल से उत्पन्न हैं, अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में ही उत्पन्न होते हैं । (सनीळे) = ये दोनों सनीड़ हैं, समान प्रभुरूपी नीडवाले हैं, दोनों ही प्रभु में स्थित हैं । इन लोकों के निर्माण में प्रभु थकते नहीं । थकावट शक्ति के विपरीत अनुपात में होती है । शक्ति एक तो थकावट सौ । शक्ति सौ तो थकावट एक । शक्ति दो सौ तो थकावट १/२ तथा शक्ति अनन्त तो थकावट १/२ अनन्त अर्थात् ० [शून्य] । एवं, प्रभु की शक्ति अनन्त होने से थकावट शून्य होती है, इसलिए प्रभु "अयास्य" हैं । २. प्रभु इनको (स्तवमानेभिः) = स्तुति करनेवाले, गुणधर्मों का प्रतिपादन करनेवाले (अर्कैः) = मन्त्रों से इनका निर्माण करते हैं, अर्थात् मन्त्रात्मक शब्दों से ही प्रभु इस सृष्टि की रचना करते हैं "वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे" । ग्रीक साहित्य में इसलिए Logos सृष्टि का मूल तत्त्व है । प्रभु ने कहा और सृष्टि हो गई इस वाक्य में प्रभु की "अयास्यता" स्पष्ट है । ३. (भगः न) = जो भग के समान है, जो भग, अर्थात् ऐश्वर्य का पुञ्ज ही है । वह (सुदंसाः) = उत्तम कर्मोंवाला प्रभु (मेने) = मननीय, जिसमें स्थित एक - एक लोक में प्रभु की महिमा का दर्शन होता है, उस (परमे व्योमन्) = परम उत्कृष्ट व्योम में [आकाशदेश में] (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (अधारयत्) = धारण करता है । द्युलोक वह स्थान है जहाँ का मुख्य देवता सूर्य है, पृथिवीलोक का मुख्य देवता अग्नि है । प्रभु दोनों लोकों को परम व्योम में स्थापित करते हैं । व्योम विस्तृत आकाश है । इस आकाश में ही सम्पूर्ण लोकों की स्थिति है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु बिना किसी थकावट के परम व्योम में द्युलोक व पृथिवीलोक का निर्माण व धारण करते हैं । प्रभु कहते हैं और लोक हो जाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्राण और सूर्य के समान राजा, सेनापति के कर्तव्य

    भावार्थ

    ( अयास्यः ) मुख्य प्राण जिस प्रकार ( अर्कैः ) अन्नों द्वारा ( सनीडे ) एक आश्रय पर रहने वाले (सनजा) चिरकाल से विद्यमान, (द्विता) प्राण और अपान दोनों को ( वि वव्रे ) प्रकट करता है और अपने वश रखता है। और जिस प्रकार (अयास्यः) मुख्य स्थान पर स्थित सूर्य ( अर्कैः ) किरणों से ( सनीडे ) समान आश्रयवाली (सनजा) सदा से विद्यमान आकाश और भूमि ( द्विता ) दोनों को ( वि वव्रे ) विशेष रूप से व्यापता है उसी प्रकार (अयास्यः) मुख्य रूप से स्थापित, अनायास समस्त कार्यों को सिद्ध करनेहारा, अथवा बड़े २ युद्ध आदि प्रयत्नों से भी शत्रु द्वारा वीर सेनापति और सभापति (स्तवमानैः) सत्य ज्ञानों का उपदेश करने वाले, अथवा स्तुत्य ( अर्कैः ) सूर्य के समान तेजस्वी अर्चनीय विद्वानों और वीर पुरुषों द्वारा, उनकी सहायता से (सनजा) अति शाश्वत से काल से चली आई (सनीडे) एक ही आश्रय, राष्ट्रभूमि पर बसनेवाली (द्विता) राजा और प्रजा दोनों वर्गों को (वि वव्रे) विशेषरूप से पालन करता और उन दोनों से स्वयं वरण किया जाता है । ( भगः न ) सूर्य जिस प्रकार ( सुदंसाः ) प्रकाश, वर्षा आदि उत्तम कार्यों को करता हुआ ( व्योमन् ) आकाश में, ( रोदसी ) आकाश और पृथिवी दोनों को (अधारयत्) धारण और पोषण करता है। उसी प्रकार ( भगः ) ऐश्वर्यवान् ( सुदंसाः ) प्रजा के लिए शुभ कार्यों का करने वाला श्रेष्ठ, आचारवान् पुरुष ( मेने ) मान आदर करने योग्य अपने आश्रय पर उठाये रखने योग्य (रोदसी) राजा प्रजावर्ग दोनों को ( परमे व्योमन् ) रक्षा करनेहारे सर्वोच्च राजपद पर स्थित होकर (अधारयत्) धारण करे, उनको वश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा विद्वद्भिः या सनीडे स्तवमानेभिः अर्कैः सनजा द्विता वि वव्रे विशेषेण व्रियते तथा मनुष्यः अयास्यः सुदंसा अहं परमे व्योमन् रोदसी भगः न सविता इव अधारयत् धारयेत् विद्वान् मेने तथा अहं धरेयं मन्ये च॥७॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (विद्वद्भिः)=विद्वानों के द्वारा, (या) =जो, (सनीडे) समीपे=समीप में, (स्तवमानेभिः) स्तुवन्ति यैस्तैः= स्तुति करते हैं, उनके द्वारा, (अर्कैः) स्तोत्रैः=स्तुतियों से, (सनजा) या सनेति सनातनाज्जायते सा=सदा से विद्यमान, (द्विता) द्वयोः प्रजासभाद्यध्यक्षयोर्भावो द्विता=प्रजा और सभा आदि के अध्यक्ष दोनों, (विशेषेण)= विशेष रूप से, (व्रियते)= घिरा हुआ होता है, (तथा)=वैसे ही, (मनुष्यः)=मनुष्य, (अयास्यः) प्रयत्नासाध्यः स्वाभाविकः=स्वाभाविक रूप से, (सुदंसाः) शोभनानि दसांसि कर्माणि यस्मिन् सः=उत्तम कर्मोंवाला, (अहम्)=मैं (परमे) प्रकृष्टे= प्रकृष्ट रूप से, (व्योमन्) अन्तरिक्षे= अन्तरिक्ष में, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ=द्यावा और पृथिवी में, (भगः) ऐश्वर्य्यम् =ऐश्वर्य्य के, (न) इव=समान, (सविता)=सूर्य के, (इव)=समान, (अधारयत्) धारयेत्=धारण करे, (विद्वान्)= विद्वान्, (मेने) प्रक्षेप्ये= प्रक्षिप्त किये हुए लोकों में, (तथा) =वैसे ही, (अहम्)=मैं, (धरेयम्)= धारण करूँ, (च)=और, (मन्ये)=विचार करता हूँ ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सभा आदि के अध्यक्ष के द्वारा ऐश्वर्य धारण किया जाता है और जैसे सूर्य का प्रकाश पृथिवी में धारण किया जाता है, वैसे ही मनुष्यों के द्वारा न्याय और विद्या को धारण किया जाना चाहिए॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (विद्वद्भिः) विद्वानों के द्वारा, (या) जो (सनीडे) समीप में (स्तवमानेभिः) स्तुति करनेवालों द्वारा (अर्कैः) स्तुतियों से, (सनजा) सदा से विद्यमान, (द्विता) प्रजा और सभा आदि के अध्यक्ष दोनों से, (विशेषेण) विशेष रूप से (व्रियते) घिरा हुआ होता है, (तथा) वैसा ही (मनुष्यः) मनुष्य, (अयास्यः) स्वाभाविक रूप से (सुदंसाः) उत्तम कर्मोंवाला है। (अहम्) मैं (परमे) प्रकृष्ट रूप से (व्योमन्) अन्तरिक्ष, (रोदसी) द्यावा और पृथिवी में (भगः) ऐश्वर्य्य के (न) समान और (सविता) सूर्य के (इव) समान (अधारयत्) [इन्हें] धारण करूँ। (मेने) प्रक्षिप्त किये हुए लोकों में, (तथा) वैसे ही, (अहम्) मैं (धरेयम्) धारण करूँ (च) और (मन्ये) विचार करता हूँ ॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (द्विता) द्वयोः प्रजासभाद्यध्यक्षयोर्भावो द्विता (वि) विशेषे (वव्रे) व्रियते (सनजा) या सनेति सनातनाज्जायते सा (सनीडे) समीपे (अयास्यः) प्रयत्नासाध्यः स्वाभाविकः (स्तवमानेभिः) स्तुवन्ति यैस्तैः (अर्कैः) स्तोत्रैः (भगः) ऐश्वर्य्यम् (न) इव (मेने) प्रक्षेप्ये। अत्र बाहुलकाङ्डुमिञ् धातोर्नः प्रत्ययः आत्वनिषेधश्च। (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) अन्तरिक्षे। अत्र सुपां सुलुक् इति सप्तम्या लुक्। (अधारयत्) धारयेत् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सुदंसाः) शोभनानि दसांसि कर्माणि यस्मिन् सः ॥७॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यथा विद्वद्भिर्या सनीडे स्तवमानेभिरर्कैः सनजा द्विता विवव्रे विशेषेण व्रियते तथा मनुष्योऽयास्यः सुदंसा अहं परमे व्योमन् रोदसी भगो न सवितेव अधारयत् धारयेत् विद्वान् मेने तथाऽहं धरेयं मन्ये च॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सभाद्यध्यक्षेणैश्वर्य्यं ध्रियते यथा च सूर्य्यः प्रकाशपृथिव्यौ धरति तथैव न्यायविद्ये धर्त्तव्ये ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की जसा सभा इत्यादीचा अध्यक्ष ऐश्वर्याला व सूर्यप्रकाश पृथ्वीला धारण करतो तसेच न्याय व विद्या यांना धारण करावे. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, valiant lord of infinite action, concealed and held and then revealed a duality of creation, two complementarities, both born of the same mother, Prakrti, and both coexistent and cooperative, both held by waves of energy (light and dark), both doing homage to the lord creator. He, Bhaga, lord of existence and master of materials, held the two in space as two co workers, complementary like the sun holding heaven and earth and the skies in eternal space.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the sun upholds in the sky with his rays, the heaven and the earth, which are born of the enternal matter, in the same manner, the President of the Assembly or the Commander of the Army who can accomplish work, without much fatigue, upholds both officers of the state and general public with the help of the venerable learned persons who are splendid like the sun and preachers of Truth, being himself a man of good deeds occupying the highest royal seat.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अयास्यः) प्रयत्नासाध्य: स्वाभाविक: = Natural. (सुदंसा:) शोभनानि दंसासि कर्माणि यस्मिन्स: = man of nobel deeds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should uphold justice and knowledge as the President of the Assembly etc. maintains wealth or as the sun upholds the heaven and earth.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then what kind of President of the assembly should be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā) =like, (vidvadbhiḥ) =by scholars,, (yā) =that, (sanīḍe) =closely, (stavamānebhiḥ)=by people who praise, (arkaiḥ) =by prauses, (sanajā) =ever present, (dvitā) =from both the people and the president of the Assembly etc., (viśeṣeṇa) =specially, (vriyate) =is surrounded, (tathā) =similarly, (manuṣyaḥ) =human, (ayāsyaḥ) =naturally, (sudaṃsāḥ) =has good deeds, (aham) =I, (parame) =eminently, (vyoman) =space, (rodasī) =in heaven and earth, (bhagaḥ) =of opulence, (na) =like and, (savitā) =of Sun, (iva) =like, (adhārayat) =possess, [inheṃ]=to these, (mene) =in the projectd worlds, (tathā) =similarly, (aham)=I, (dhareyam)= possess, (ca)=and, (manye)= think.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as that is surrounded by scholars, who is always praised by people who praise Him closely and is specially surrounded by both the people and the President of the Assembly etc., similarly, a man is naturally one who has good deeds. May I possess them naturally like the opulence in space, heaven and earth and like the Sun. In the projected worlds, in the same way, I hold and think.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as opulence is possessed by the President of the Assembly and just as Sunlight is possessed on the earth, in the same way justice and knowledge should be possessed by human beings.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top