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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदार्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र वो॑ म॒हे महि॒ नमो॑ भरध्वमाङ्गू॒ष्यं॑ शवसा॒नाय॒ साम॑। येना॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॑ पद॒ज्ञा अर्च॑न्तो॒ अङ्गि॑रसो॒ गा अवि॑न्दन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । म॒हे । महि॑ । नमः॑ । भ॒र॒ध्व॒म् । आ॒ङ्गू॒ष्य॑म् । श॒व॒सा॒नाय॑ । साम॑ । येन॑ । नः॒ । पूर्वे॑ । पि॒तरः॑ । प॒द॒ऽज्ञाः । अर्च॑न्तः । अङ्गि॑रसः । गाः । अवि॑न्दन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वो महे महि नमो भरध्वमाङ्गूष्यं शवसानाय साम। येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा अर्चन्तो अङ्गिरसो गा अविन्दन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। महे। महि। नमः। भरध्वम्। आङ्गूष्यम्। शवसानाय। साम। येन। नः। पूर्वे। पितरः। पदऽज्ञाः। अर्चन्तः। अङ्गिरसः। गाः। अविन्दन् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैरेतद्विषये किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! ये वो युष्माकं नोऽस्माकं चाङ्गिरसः पदज्ञा महे महते शवसानाय सभाद्यध्यक्षाय महि महत्सामाङ्गूष्यं नमश्चार्चन्तः सन्तः पूर्वे पितरो येन गा अविन्दन् प्राप्नुयुस्तान् यूयं प्रभरध्वम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (महे) महते (महि) महत् (नमः) नमस्करणमन्नं वा (भरध्वम्) धरध्वम् (आङ्गूष्यम्) अङ्गूषाणां विज्ञानानां भावस्तम् (शवसानाय) ज्ञानवते (साम) स्यन्ति खण्डयन्ति दुःखानि येन तत्। अत्र सर्वधातुभ्यो मनिन् (उणा०४.१४६) इति करणकारके मनिन्। (येन) पूर्वोक्तेन। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (पूर्वे) पूर्वं विद्या अधीतवन्तोऽनूचाना विद्वांसः (पितरः) ये पान्ति पितृवत् रक्षन्ति विद्यासुशिक्षादिदानैस्ते (पदज्ञाः) ये पदानि प्राप्तव्यानि धर्मार्थकाममोक्षाख्यानि साधितुं साधयितुं वा जानन्ति ते (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः (अङ्गिरसः) प्राणादिविद्याविदः (गाः) विद्याप्रकाशयुक्ता वाचः (अविन्दन्) प्राप्नुयुः। अत्र लिङर्थे लङ् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! यथा विद्वांसो वेदसृष्टिक्रमप्रत्यक्षादिप्रमाणैः प्रतिपादितेन धर्म्येण मार्गेण गच्छन्तः सन्तः परमात्मानमभ्यर्च्य सर्वहितं धरन्ति, तथैव यूयमपि समवतिष्ठध्वम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को इस विषय में क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (वः) तुम वा (नः) हम लोगों को (अङ्गिरसः) प्राणादि विद्या और (पदज्ञाः) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को जाननेवाले (महे) बड़े (शवसानाय) ज्ञान बलयुक्त सभाध्यक्ष के लिये (महि) बहुत (साम) दुःखनाश करनेवाले (आङ्गूष्यम्) विज्ञानयुक्त (नमः) नमस्कार वा अन्न का (अर्चन्तः) सत्कार करते हुए (पूर्वे) पहिले सब विद्याओं को पढ़ते हुए (पितरः) विद्यादि सद्गुणों से रक्षा करनेवाले विद्वान् लोग (येन) जिस विज्ञान वा कर्म से (गाः) विद्या प्रकाशयुक्त वाणियों को (अविन्दन्) प्राप्त हों, उनका तुम लोग (प्रभरध्वम्) भरण-पोषण सदा किया करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् लोग जिन वेद, सृष्टिक्रम और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से कहे हुए धर्मयुक्त मार्ग से चलते हुए सब प्रकार परमेश्वर का पूजन करके सबके हित को धारण करते हैं, वैसे ही तुम लोग भी करो ॥ २ ॥

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    विषय

    आङ्गूष्य साम

    पदार्थ

    १. (वः) = तुम सब (महे) = उस महान् प्रभु के लिए (महि नमः) = महनीय नमन (प्रभरध्वम्) = प्रकर्षेण धारण करो । जितना - जितना उस महान् प्रभु के प्रति हम नमन धारण करते हैं, उतना - उतना ही हमारा जीवन महनीय बनता है । २. (शवसानाय) = शक्ति के पुञ्ज उस प्रभु के लिए (आङ्गूष्यम् )- [आघोषयोग्यम्] ऊँचे उच्चारण के योग्य (साम) = स्तोत्र व स्तवन को धारण करो । वस्तुतः उस शक्तिशाली प्रभु का स्तवन हमें भी शक्तिशाली बनाता है । यह साम वह है (येन) = जिससे (नः) = हमारे (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले - न्यूनताओं को सदा दूर करनेवाले (पितरः) = रक्षणात्मक कार्यों में लगनेवाले (पदज्ञाः) = मार्ग को जाननेवाले (अर्चन्तः) = प्रभु की पूजा करते हुए और इस प्रकार (अङ्गिरसः) = अङ्ग - अङ्ग में रस के सञ्चारवाले लोग (गाः) = ज्ञान की रश्मियों या वाणियों को (अविन्दन्) = प्राप्त करते हैं । स्तवन के द्वारा मनुष्य हृदयस्थ प्रभु के प्रकाश को देखनेवाला बनता है । प्रभु के उपासक का चित्रण ‘पूर्वे, पितरः, पदज्ञाः, अर्चन्तः व अङ्गिरस’ इन शब्दों से हो रहा है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करें । ये स्तोत्र हमें न्यूनताओं को दूर करने में सहायक होंगे और हमारे जीवन को महनीय बनाएँगे ।

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    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य । आंगिरस, विद्वान् ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों में से भी (पूर्वे ) पहले के, पूर्व शिक्षित (पितरः) मा बाप के समान विद्या आदि देने वाले व्रतपालक गुरुजन ( पदज्ञाः ) प्राप्त करने या धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थों के जाननेहारे, ( अंगिरसः ) ज्ञानी और अग्नि के तुल्य तेजस्वी तथा शरीर में प्राणों के समान समाज और राष्ट्र में जीवन जागृति धारण करानेवाले विद्वान्, पराक्रमी जन (येन) जिसके द्वारा (अर्चन्तः) स्तुति प्रार्थना और सत्कार करते हुए ( गाः ) उत्तम वाणियों को ( अविन्दन् ) प्राप्त करते, उनका ज्ञान और सत्य साक्षात् करते हैं आप लोग उस ही (महि ) बड़े ( आंगूष्यम् ) विज्ञान प्रवचन के लिए उत्तम ( साम ) प्रतिस्पर्द्धी अज्ञान के नाशक ( नमः ) नमस्कार रूप भक्ति भाव को ( महे शवसानाय ) बड़े बलशाली विज्ञानमय परमेश्वर के लिए (प्र भरध्वम्) उच्चारण करो । इसी प्रकार (महे शवसानाय) बड़े बलवान् राजा या सभाध्यक्ष के लिए (महि साम नमः प्र भरध्वं) बड़े भारी शत्रुनाशक, शत्रुओं को नमाने वाला बल और भोग्य ऐश्वर्य प्राप्त कराओ और उसका बड़ा आदर करो । ( येन ) जिससे ( नः पूर्वे पितरः पदज्ञाः अंगिरसः ) हमारे पूर्व के परिपालक प्राप्तव्य पद के वेत्ता और ज्ञानी, तेजस्वी पुरुष ( अर्चन्तः ) आदर सत्कार करते हुए ही ( गाः अविन्दन् ) वाणियों के समान भूमियों और पशु सम्पदाओं को भी प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर मनुष्यों को इस विषय में क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! ये वः युष्माकं नः अस्माकं च अङ्गिरसः पदज्ञा महे महते शवसानाय सभाद्यध्यक्षाय महि महत् साम आङ्गूष्यं नमः च अर्चन्तः सन्तः पूर्वे पितरः येन गा अविन्दन् प्राप्नुयुःतान् यूयं प्र भरध्वम् ॥२॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (ये)=जो, (वः) युष्माकम्=तुमको, (च)=और, (नः) अस्माकम्=हमको, (अङ्गिरसः) प्राणादिविद्याविदः=प्राण आदि विद्याओं के ज्ञाता, (पदज्ञाः) ये पदानि प्राप्तव्यानि धर्मार्थकाममोक्षाख्यानि साधितुं साधयितुं वा जानन्ति ते=जो धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की साधना करने और करानेवाले, (महे) महते=महान, (शवसानाय) ज्ञानवते= ज्ञानवाले, (सभाद्यध्यक्षाय)= सभा आदि के अध्यक्ष के लिये, (महि) महत् =बहुत, (साम) स्यन्ति खण्डयन्ति दुःखानि येन तत्= दुःखों को नष्ट करवाते हैं, (आङ्गूष्यम्) अङ्गूषाणां विज्ञानानां भावस्तम=विशेष ज्ञान के भाव वाले, (नमः) नमस्करणमन्नं वा = नमस्कार या अन्न से, (च)=भी, (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः=सत्कार करते, (सन्तः)=हुए, (पूर्वे) पूर्वं विद्या अधीतवन्तोऽनूचाना विद्वांसः=पूर्व में विद्या का अध्ययन किये हुए विद्वान् ब्राह्मण, (पितरः) ये पान्ति पितृवत् रक्षन्ति विद्यासुशिक्षादिदानैस्ते=विद्या और सुशिक्षा से पिता के समान रक्षा करनवाले, (येन) पूर्वोक्तेन=पहले कहे गये, (गाः) विद्याप्रकाशयुक्ता वाचः= विद्या और प्रकाश से युक्त वाणी, (अविन्दन्) प्राप्नुयुः=प्राप्त करें, (तान्)=उनको, (यूयम्)=तुम सब, (प्र) प्रकृष्टार्थे =प्रकृष्ट रूप से, (भरध्वम्) धरध्वम्= धारण करो ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् लोग जिन वेद, सृष्टिक्रम और प्रत्यक्ष आदि के प्रमाणों से कहे हुए धर्म के मार्ग से चलते हुए, परमेश्वर का पूजन करके सबके हित को धारण करते हैं, वैसे ही तुम लोग भी पालन करो ॥२॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- शास्त्रों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ बताये गये हैं।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (ये) जो (वः) तुमको (च) और (नः) हमको (अङ्गिरसः) प्राण आदि विद्याओं के ज्ञाता (पदज्ञाः) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधना करने और करानेवाले, (महे) महान (शवसानाय) ज्ञानवाले, (सभाद्यध्यक्षाय) सभा आदि के अध्यक्ष के लिये (महि) बहुत (साम) दुःखों को नष्ट करवानेवाले, (आङ्गूष्यम्) विशेष ज्ञान के भाव वाले, (नमः) नमस्कार या अन्न से (च) भी (अर्चन्तः) सत्कार करते (सन्तः) हुए (पूर्वे) पूर्व में विद्या का अध्ययन किये हुए विद्वान् ब्राह्मण (पितरः) विद्या और सुशिक्षा से पिता के समान रक्षा करनवाले हैं। (येन) पहले कही गयी (गाः) विद्या और प्रकाश से युक्त वाणी को (अविन्दन्) प्राप्त करें। (तान्) उनको (यूयम्) तुम सब (प्र) प्रकृष्ट रूप से (भरध्वम्) धारण करो ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (महे) महते (महि) महत् (नमः) नमस्करणमन्नं वा (भरध्वम्) धरध्वम् (आङ्गूष्यम्) अङ्गूषाणां विज्ञानानां भावस्तम् (शवसानाय) ज्ञानवते (साम) स्यन्ति खण्डयन्ति दुःखानि येन तत्। अत्र सर्वधातुभ्यो मनिन् (उणा०४.१४६) इति करणकारके मनिन्। (येन) पूर्वोक्तेन। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (पूर्वे) पूर्वं विद्या अधीतवन्तोऽनूचाना विद्वांसः (पितरः) ये पान्ति पितृवत् रक्षन्ति विद्यासुशिक्षादिदानैस्ते (पदज्ञाः) ये पदानि प्राप्तव्यानि धर्मार्थकाममोक्षाख्यानि साधितुं साधयितुं वा जानन्ति ते (अर्चन्तः) सत्कुर्वन्तः (अङ्गिरसः) प्राणादिविद्याविदः (गाः) विद्याप्रकाशयुक्ता वाचः (अविन्दन्) प्राप्नुयुः। अत्र लिङर्थे लङ् ॥२॥ विषयः- पुनर्मनुष्यैरेतद्विषये किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्याः ! ये वो युष्माकं नोऽस्माकं चाङ्गिरसः पदज्ञा महे महते शवसानाय सभाद्यध्यक्षाय महि महत्सामाङ्गूष्यं नमश्चार्चन्तः सन्तः पूर्वे पितरो येन गा अविन्दन् प्राप्नुयुस्तान् यूयं प्रभरध्वम् ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्याः ! यथा विद्वांसो वेदसृष्टिक्रमप्रत्यक्षादिप्रमाणैः प्रतिपादितेन धर्म्येण मार्गेण गच्छन्तः सन्तः परमात्मानमभ्यर्च्य सर्वहितं धरन्ति, तथैव यूयमपि समवतिष्ठध्वम् ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो जसे विद्वान लोक ज्या वेद, सृष्टिक्रम व प्रत्यक्ष इत्यादी प्रमाणांनी सांगितलेल्या धर्मयुक्त मार्गाने चालतात व सर्व प्रकारे परमेश्वराचे पूजन करून सर्वांचे हित करतात तसेच तुम्हीही करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    All ye men and women of the world, bear and offer to Indra, great lord of strength and power, celebrative songs of adoration and holy offerings in Samans and hymns of knowledge and enlightenment, by virtue of which our ancient forefathers, who knew the life stages of Dharma, Artha, Kama and Moksha and who were scholars of divine knowledge and worshippers of the Lord, received the gift of holy speech and universal knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What else should men do further is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ye men, offer to the great and powerful Indra (God and President of the Assembly) earnest veneration or Chant be sung aloud dispelling all misery and giving knowledge. As our and your ancestors who protected all like fathers by giving knowledge and wisdom, knowers of Dharma [duty] Artha [wealth] Kama [noble desires] and Moksha [Emancipation] well-versed in the science of Prana and fire etc. used speech full of the light of knowledge, so you should also do. (As the Vedas are meant for all times and not only at the beginning of human creation, such expressions are found there to instruct that people should have regard for their learned forefathers.) Tr.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आन्गूष्य्म्) आंगूषाणां विज्ञानानां भावस्तम् = Knowledge. (शवसानाय) ज्ञानवते = for full of Knowledge. (साम) स्यन्ति खण्डयन्ति दुःखानियेन तत् । अत्र सर्वधातुम्यो मनिन् इति करणकारके मनिन् ॥ = Destroyer of misery. (अंगिरस:) प्राणादिविद्याविदः । = Knowers of the science of breath and fire etc. (पदज्ञा:) ये पदानि प्राप्तव्यानि धर्मार्थकाममोक्षाख्यानि साधितुं साधयितुं वा जानन्ति ते पद-गतौ ॥

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, As learned persons bring about the welfare of all beings, worshipping God and treading upon the path of Dharma which is in accordance with the Vedas, cosmic natural laws and Pratyaksha and other means of perception, so you should also do.

    Translator's Notes

    Angooshya is derived from अगिगतौ गतेस्त्रयोर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च। hence the above meaning of विज्ञानानांभाब: or knowledge by Rishi Dayananda Sarasvati. शवसानाय is derived from शव-गतौ hence the above meaning of ज्ञानवते. पदज्ञा: is derived from पद-गतौ and ज्ञा-ज्ञाने गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च. So here the third meaning of अंगिरस: as प्राणादिविद्याविदः we have already quoted प्राणो वा अंगिरा: (शत० ६.१.२.२८ ॥ ६.५.२.३,४ ) अंगिरा वा अग्नि: (शत० ६.४.४.४ ).

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    Subject of the mantra

    Then what humans should do in this matter has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (ye) =that, (vaḥ) =to you,(ca) =and, (naḥ) =to us, (aṅgirasaḥ) =expert in knowledge of life-breath etc., (padajñāḥ)= those who practice and inspire others to practice Dharma, Artha, Kama and Moksha, (mahe) =great (śavasānāya) =knowledgeable, (sabhādyadhyakṣāya) =for the Chairman etc. of the assembly, (mahi) =very, (sāma)=destroyer of sorrows, (āṅgūṣyam) =those with special knowledge, (namaḥ) =with namaskar or food, (ca) =also, (arcantaḥ+santaḥ)=welcoming, (pūrve)=learned brahmin who studied knowledge in the past, (pitaraḥ) =like a father protector of knowledge and education, (yena) =said earlier, (gāḥ)= to speech full of knowledge and light, (avindan) =must obtain, (tān) =to them, (yūyam) =all of you, (pra) =eminently, (bharadhvam) =adopt.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Who is the one who knows you and us in the knowledge of life etc., who does the worship of dharma, artha, kāma and mokṣa who has great knowledge, who destroys many sorrows for the Chairman of the Assembly etc., who has the feeling of special knowledge, who greets us even with greetings or food. The learned Brahmins who have studied knowledge in the past are like fathers who protect them with knowledge and good education. Receive the words of wisdom and light mentioned earlier. All of you should adopt them eminently.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! Just as the learned people worship God and follow the path of righteousness based on the evidence of the Vedas, the order of creation and the perceptible etc., and pursue the welfare of all, you too should follow the same.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In the scriptures, dharma, artha, kāma and mokṣa are mentioned as the four puruṣārtha (efforts).

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