ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 13
स॒ना॒य॒ते गोत॑म इन्द्र॒ नव्य॒मत॑क्ष॒द्ब्रह्म॑ हरि॒योज॑नाय। सु॒नी॒थाय॑ नः शवसान नो॒धाः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ना॒य॒ते । गोत॑मः । इ॒न्द्र॒ । नव्य॑म् । अत॑क्षत् । ब्रह्म॑ । ह॒रि॒ऽयोज॑नाय । सु॒ऽनी॒थाय॑ । नः॒ । श॒व॒सा॒न॒ । नो॒धाः । प्रा॒तः । म॒क्षु । धि॒याऽव॑सुः । ज॒ग॒म्या॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनायते गोतम इन्द्र नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरियोजनाय। सुनीथाय नः शवसान नोधाः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठसनायते। गोतमः। इन्द्र। नव्यम्। अतक्षत्। ब्रह्म। हरिऽयोजनाय। सुऽनीथाय। नः। शवसान। नोधाः। प्रातः। मक्षु। धियाऽवसुः। जगम्यात् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे शवसानेन्द्र गोतमो धियावसुर्नोधा भवान् हरियोजनाय नव्यं ब्रह्मातक्षत्तनूकरोति नोऽस्मभ्यं सुनीथाय प्रातर्मक्षु सनायते नोऽस्मान् सद्यो जगम्यात् ॥ १३ ॥
पदार्थः
(सनायते) सना सनातन इवाचरति (गोतमः) गच्छतीति गोः स्तोता सोऽतिशयितः सः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (नव्यम्) नवीनम् (अतक्षत्) तनूकरोति (ब्रह्म) बृहद्धनमन्नं वा। ब्रह्मेति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) अन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (हरियोजनाय) हरीणां मनुष्याणां योजनाय समाधानाय। हरय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (सुनीथाय) सुखानां सुष्ठु प्रापणाय (नः) अस्मान् (शवसान) बलयुक्त (नोधाः) स्तोता। नुवो धुट् च। (उणा०४.२२३) अनेनौणादिकसूत्रेणास्य सिद्धिः। (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) यः प्रज्ञया कर्मणा वा वसति सः (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात् ॥ १३ ॥
भावार्थः
सभाद्यध्यक्षो मनुष्येभ्यो हिताय प्रतिदिनं नवीनं नवीनं धनमन्नं च प्रापयेत्। यथा प्राणो वायुः सुखानि प्रापयति तथैव सर्वान् सुखयेत् ॥ १३ ॥ अस्मिन् सूक्त ईश्वरसभाध्यक्षाहोरात्रविद्वत्सूर्य्यवायुगुणानां वर्णनादेतदर्थस्यैकषष्टितमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (शवसान) बलयुक्त (इन्द्र) उत्तम धनवाले सभाध्यक्ष (धियावसुः) बुद्धि और कर्म के साथ बसनेवाले (गोतमः) अत्यन्त स्तुति के योग्य तथा (नोधाः) स्तुति करनेवाले आप (हरियोजनाय) मनुष्यों से समाधान के लिये (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) बड़े धन को (अतक्षत्) क्षीण करते हो (नः) हम लोगों को (सुनीथाय) सुखों की प्राप्ति के लिये (प्रातः) प्रतिदिन (मक्षु) शीघ्र (सनायते) सनातन के समान आचरण करते हो तथा (नः) हम लोगों के सुखों के लिये शीघ्र (जगम्यात्) प्राप्त हो ॥ १३ ॥
भावार्थ
सभापति आदि को चाहिये कि मनुष्यों के हित के लिये प्रतिदिन नवीन-नवीन धन और अन्न को उत्पन्न करें। जैसे प्राणवायु से मनुष्यों को सुख होते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष सबको सुखी करें ॥ १३ ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, दिन, रात, विद्वान्, सूर्य और वायु के गुणों का वर्णन होने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
नव्य ब्रह्म [नव - नव स्तवन]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सनायते) = सनातन की भाँति आचरण करनेवाले, अर्थात् शाश्वतकाल से चले आनेवाले (हरियोजनाय) = इन्द्रियरूप अश्वों को हमारे शरीर - रथ में जोड़नेवाले (सुनीथाय) = उत्तम मार्ग से ले - चलनेवाले आपके लिए (नोधाः) = इन इन्द्रियरूप नवद्वारों को धारण करनेवाला (गोतमः) = प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष (नव्यम्) = अतिशयेन स्तुति के लिए उत्तम ब्रह्म - स्तोत्र का (अतक्षत्) = निर्माण करता है ; 'नोधा गोतम' प्रतिदिन नवीन मन्त्रों से प्रभु का स्तवन करता है । इससे अधिक - से - अधिक मन्त्रों का उसे स्मरण भी होता है और पुराणापन [Staleness] जाता रहता है । स्तुति में नवीनता व सरसता प्रतीत होती है । २. हे (शवसान) = बलवान् (इन्द्र) ! आप ऐसी कृपा कीजिए कि (नः) = हमें प्रातः - दिन के प्रारम्भ में ही (मक्षु) = शीघ्र (धियावसुः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों को करने के द्वारा निवास को उत्तम बनानेवाला व्यक्ति (जगम्यात्) - प्राप्त हो । उत्तम पुरुषों के संग से ही तो हमारा जीवन उत्तम बन सकेगा ।
भावार्थ
भावार्थ - हम सदा नवीन - नवीन स्तोत्रों से प्रभु का स्तवन करें और उत्तम पुरुषों का प्रातः - प्रातः ही संग प्राप्त हो ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त के आरम्भ में कहा गया है कि स्तवन से शक्ति व माधुर्य की प्राप्ति होती है [१] । प्रभु के स्तोत्र हमारे जीवन की न्यूनताओं को दूर करते हैं [२] । नैत्यिक स्वाध्याय से हम बुद्धि का परिपोषण करें [३] । स्तुति आदि साधनों से अविद्या - पर्वत का विदारण करें [४] । प्रभुकृपा से हमारा अन्धकार दूर हो [५] । उस प्रभु ने हमारे जीवन के लिए मेघों की व्यवस्था की है [६], द्युलोक व पृथिवीलोक की स्थापना की है [७], दिन व रात के चक्र का निर्माण किया है [८] । प्रभु से बनाई गई गौएँ हमें अमृततुल्य दुग्ध देती हैं [९] । प्रभुकृपा से हमारी अंगुलियाँ कर्मव्यापृत रहकर हमारा रक्षण करें [१०] । प्रभु को ही हम अपना पति जानें [११] । वे प्रभु द्युमान् एवं क्रतुमान् हैं [१२] । हम प्रभु का स्तवन करें और प्रभुकृपा से हमें सज्जन - संग प्राप्त हो [१३] । ये प्रभु ही द्युलोक व पृथिवीलोक का निर्माण करते हैं, इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
विद्वान् सुशासक का कर्तव्य ।
भावार्थ
( गोतमः हरियोजनाय नव्यम् ब्रह्म अतक्षत् ) जिस प्रकार अति शीघ्र गमन करने की विद्या में निपुण शिल्पी वेगवान्, दूर देश में ले जाने वाले अश्व और अग्नि आदि साधनों के प्रयोग के लिये नये से नये बड़े (ब्रह्म) विज्ञान या रथ को बनाता या आविष्कार करता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) परमेश्वर ( गोतमः ) विद्वानों में श्रेष्ठ पुरुष ( हरियोजनाय ) प्राणों को समाधि से एकाग्र करने के लिये ( नव्यम् ) स्तुति योग्य (ब्रह्म ) ब्रह्म या आत्मज्ञान या वेद-वचन को ( अतक्षत् ) प्राप्त करे, उसका अभ्यास करे । और (सनायते) सनातन के समान यथापूर्व आचरण करता रहे । हे ( शवसान ) बलवन् ! (धियावसुः) बुद्धिबल और कर्मबल से सबको बसाने वाला विद्वान् धार्मिक (नोधाः) ज्ञानी पुरुष ( नः ) हमें ( सुनीथाय ) उत्तम मार्ग में ले जाने के लिये (प्रातः) प्रतिदिन, प्रातःकाल ही, या प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में ही ( जगम्यात् ) प्राप्त हो । वह हमें कार्य के प्रारम्भ में ही सचेत करे और शिक्षित करे । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शवसान इन्द्र गोतमः धियावसुः नोधा भवान् हरियोजनाय नव्यं ब्रह्म अतक्षत् तनूकरोति नः अस्मभ्यं सुनीथाय प्रातः मक्षु सनायते नः अस्मान् सद्यः जगम्यात् ॥१३॥
पदार्थ
हे (शवसान) बलयुक्त= बल से युक्त और, (इन्द्र) परमैश्वर्यवन्=परम ऐशेवर्यवाले, (गोतमः) गच्छतीति गोः स्तोता सोऽतिशयितः सः=अतिशय विद्वान्, (धियावसुः) यः प्रज्ञया कर्मणा वा वसति सः=प्रज्ञा और कर्म के साथ निवास करनेवाले, (नोधाः) स्तोता=स्तुति करनेवालों के प्रशंसक, (भवान्)=आप, (हरियोजनाय) हरीणां मनुष्याणां योजनाय समाधानाय=मनुष्यों की योजनाओं के समाधान के लिये, (नव्यम्) नवीनम्=नवीन, (ब्रह्म) बृहद्धनमन्नं वा=और बहुत अधिक धन और अन्न को, (अतक्षत्) तनूकरोति=उत्तम करते हो, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (सुनीथाय) सुखानां सुष्ठु प्रापणाय=उत्तम सुखों को प्राप्त कराने के लिये, (प्रातः) प्रतिदिनम्=प्रतिदिन, (मक्षु) शीघ्रम्=शीघ्र, (सनायते) सना सनातन इवाचरति=सनातन के समान व्यवहार करते हो, (नः) अस्मान्=हमें, (सद्यः)=आज ही, (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात्=बार-बार प्राप्त होवे ॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सभापति आदि को मनुष्यों के हित के लिये प्रतिदिन नवीन-नवीन धन और अन्न को प्राप्त कराना चाहिए। जैसे प्राण वायु से सुखी होते हैं, वैसे ही सबको सुखी करना चाहिए ॥१३॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, दिन और रात, विद्वान्, सूर्य और वायु के गुणों का वर्णन होने से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शवसान) बल से युक्त, (इन्द्र) परम ऐशेवर्यवाले, (गोतमः) अतिशय विद्वान्, (धियावसुः) प्रज्ञा और कर्म के साथ निवास करनेवाले और (नोधाः) स्तुति करनेवालों के प्रशंसक! (भवान्) आप (हरियोजनाय) मनुष्यों की योजनाओं के समाधान के लिये (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) और बहुत अधिक धन और अन्न को (अतक्षत्) उत्तम बनाते हो। (नः) हमारे लिये (सुनीथाय) उत्तम सुखों को प्राप्त कराने के लिये (प्रातः) प्रतिदिन (मक्षु) शीघ्रता से (सनायते) सनातन काल से चले आ रहे व्यवहार के समान ही (नः) हमें (सद्यः) आज ही, (जगम्यात्) बार-बार [धन और अन्न ]प्राप्त होवे ॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सनायते) सना सनातन इवाचरति (गोतमः) गच्छतीति गोः स्तोता सोऽतिशयितः सः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (नव्यम्) नवीनम् (अतक्षत्) तनूकरोति (ब्रह्म) बृहद्धनमन्नं वा। ब्रह्मेति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) अन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (हरियोजनाय) हरीणां मनुष्याणां योजनाय समाधानाय। हरय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (सुनीथाय) सुखानां सुष्ठु प्रापणाय (नः) अस्मान् (शवसान) बलयुक्त (नोधाः) स्तोता। नुवो धुट् च। (उणा०४.२२३) अनेनौणादिकसूत्रेणास्य सिद्धिः। (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) यः प्रज्ञया कर्मणा वा वसति सः (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात् ॥१३॥ विषयः- पुनः सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे शवसानेन्द्र गोतमो धियावसुर्नोधा भवान् हरियोजनाय नव्यं ब्रह्मातक्षत्तनूकरोति नोऽस्मभ्यं सुनीथाय प्रातर्मक्षु सनायते नोऽस्मान् सद्यो जगम्यात् ॥१३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाद्यध्यक्षो मनुष्येभ्यो हिताय प्रतिदिनं नवीनं नवीनं धनमन्नं च प्रापयेत्। यथा प्राणो वायुः सुखानि प्रापयति तथैव सर्वान् सुखयेत् ॥१३॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन् सूक्त ईश्वरसभाध्यक्षाहोरात्रविद्वत्सूर्य्यवायुगुणानां वर्णनादेतदर्थस्यैकषष्टितमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या॥१३॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभापती इत्यादींनी माणसांच्या हितासाठी प्रत्येक दिवशी नवनवीन धन व अन्न उत्पन्न करावे. जसे प्राणवायूने माणसांना सुख मिळते. तसेच सभाध्यक्षाने सर्वांना सुखी करावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of omnipotence and infinite action, lord omnipresent of infinite motion, since eternity you are ever present just at hand. Nodha, the poet of constant adoration, Gotama, spirit of fastest thought and imagination, creates the latest songs of celebration in honour of you, lord of universal light and humanity, lord giver of infinite freedom and joy. May the lord of eternal wealth and joy, may the spirit of eternal vision and imagination be with us upon the instant with the light of the dawn.
Subject of the mantra
Then the qualities of the Chairman of the Assembly have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śavasāna)=full of strength, (indra) =who have great opulence, (gotamaḥ)=very learned, (dhiyāvasuḥ)=those who reside with wisdom and action and, (nodhāḥ)=admirer of those who praise, (bhavān) =you, (hariyojanāya)=to solve man's plans, (navyam) =new, (brahma)=and much more money and food, (atakṣat)=you make it perfect, (naḥ) =for us, (sunīthāya)=to achieve the best pleasures, (prātaḥ) =daily, (makṣu) =speedily, (sanāyate)=same as the practice since time immemorial, (naḥ) =to us, (sadyaḥ) =today itself, (jagamyāt) again and again, [dhana aura anna ] = money and food be obtained.
English Translation (K.K.V.)
O admirer of those who are full of strength, who have great opulence, who are extremely learned, who live with wisdom and action and admirer of those who praise! You create new and abundant wealth and food to fulfill the plans of human beings. In order to achieve the best happiness for us, we should get money and food again and again today itself, speedily every day, as has been going on since ancient times.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Chairman of the Assembly etc. should provide new wealth and food every day for the benefit of human beings. Just as life-breath brings happiness, similarly everyone should be made happy. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand-By describing the qualities of God, Speaker of the Assembly, day and night, scholar, Sun and air in this hymn, the consistency of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn should be known.
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