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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदार्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    गृ॒णा॒नो अङ्गि॑रोभिर्दस्म॒ वि व॑रु॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ गोभि॒रन्धः॑। वि भूम्या॑ अप्रथय इन्द्र॒ सानु॑ दि॒वो रज॒ उप॑रमस्तभायः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गृ॒णा॒नः । अङ्गि॑रःऽभिः । द॒स्म॒ । वि । वः॒ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । गोभिः॑ । अन्धः॑ । वि । भूम्याः॑ । अ॒प्र॒थ॒यः॒ । इ॒न्द्र॒ । सानु॑ । दि॒वः । रजः॑ । उप॑रम् । अ॒स्त॒भा॒यः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म वि वरुषसा सूर्येण गोभिरन्धः। वि भूम्या अप्रथय इन्द्र सानु दिवो रज उपरमस्तभायः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गृणानः। अङ्गिरःऽभिः। दस्म। वि। वः। उषसा। सूर्येण। गोभिः। अन्धः। वि। भूम्याः। अप्रथयः। इन्द्र। सानु। दिवः। रजः। उपरम्। अस्तभायः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! दस्म सभाद्यध्यक्ष ! गृणानस्त्वमङ्गिरोभिरुषसा सूर्येण गोभिरन्धो विवो वृणोति तथा विद्या व्यप्रथयो यथा भूम्या दिवः प्रकाशस्य सानु रजः सर्वं लोकमुपरं मेघं स्तभ्नाति तथा धर्मराज्यसेना विवः शत्रून् अस्तभायः स्तभान स भवानस्माभिः स्तुत्योऽस्ति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (गृणानः) शब्दं कुर्वाणः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् । (अङ्गिरोभिः) प्राणैर्बलैः (दस्म) उपक्षेतः (वि) विशेषार्थे (वः) वृणोषि (उषसा) दिनप्रमुखेन (सूर्येण) सूर्यप्रकाशेन (गोभिः) किरणैः (अन्धः) अन्नम् (वि) विविधार्थे (भूम्याः) भूमिषु साधवः (अप्रथयः) प्रथय (इन्द्र) विदारक (सानु) शिखरम् (दिवः) प्रकाशस्य (रजः) लोकम् (उपरम्) मेघम् (अस्तभायः) स्तभान। अत्र लङर्थे लङ् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पुरुषैरुषोवत् सूर्यवत्किरणवत् प्राणवच्च सद्गुणान् प्रकाश्य दुष्टनिवारणं कार्यम्। यथा सूर्यः स्वप्रकाशं विस्तार्य मेघमुत्पाद्य वर्षयति, तथैव प्रजासु सद्विद्यामुत्पाद्य सुखवृष्टिः कार्येति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं के (दस्म) नाश करनेवाले सभाध्यक्ष ! (गृणानः) उपदेश करते हुए आप जैसे बिजुली (अङ्गिरोभिः) प्राण (उषसा) प्रातःकाल के (सूर्येण) सूर्य के प्रकाश तथा (गोभिः) किरणों से (अन्धः) अन्न को प्रकट करती है, वैसे धर्मराज्य और सेना को (विवः) प्रकट करो वैसे बिजुली को (व्यप्रथयः) विविधप्रकार से विस्तृत कीजिये। जैसे सूर्य (भूम्याः) पृथिवी में श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाश के (सानु) ऊपरले भाग (रजः) सब लोकों और (उपरम्) मेघ को (अस्तभायः) संयुक्त करता है, वैसे धर्मयुक्त राज्य की सेना को विस्तारयुक्त कीजिये और शत्रुओं को बन्धन करते हुए आप हम सब लोगों से स्तुति करने के योग्य हो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को प्रातःकाल सूर्य के किरण और प्राणों के समान उक्त गुणों का प्रकाश करके दुष्टों का निवारण करना चाहिये। जैसे सूर्य प्रकाश को फैला और मेघ को उत्पन्न कर वर्षाता है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि मनुष्यों को प्रजा में उत्तम विद्या उत्पन्न करके सुखों की वर्षा करनी चाहिये ॥ ५ ॥

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    विषय

    अन्धकार - निरसन [उषसा, सूर्येण गोभिः]

    पदार्थ

    १. हे (दस्म) = दर्शनीय व [दसु उपक्षये] हमारे सब कष्टों को नष्ट करनेवाले प्रभो ! आप (अङ्गिरोभिः) = अङ्ग - अङ्ग में रसवाले, पूर्ण स्वस्थ पुरुषों से (गृणानः) = स्तुति किये जाते हुए उनके (अन्धः) = अन्धकार को (विवः) = दूर करते हो [व्यवृणोः व्यनाशय - सा०] । किस प्रकार ? [क] (उषसा) = [उष दाहे] कामादि वासनाओं के दहन के द्वारा । ये वासनाएँ ही तो ज्ञान पर पर्दा डाले रखती हैं । [ख] (सूर्येण) = [सरति] निरन्तर क्रियाशीलता के द्वारा । प्रभु ने वेद में जीव को सतत क्रियाशीलता की प्रेरणा दी हैं । "कुर्वन्नेवेह कर्माणि" , कर्मासि । इस क्रियाशीलता से वासनाओं को पनपने का अवसर नहीं मिलता । २. (गोभिः) = ज्ञान की किरणों से अथवा उत्तम इन्द्रियों से अथवा गोदुग्ध के प्रयोग से । हृदयस्थ प्रभु ज्ञानरश्मियों से हमारे अविद्या - अन्धकार को दूर करते हैं । उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराके ज्ञानवृद्धि द्वारा वे हमें अन्धकार के छिन्न - भिन्न करने में सहायक होते हैं । गोदुग्ध हमारी बुद्धियों को सात्विक व सूक्ष्म बनाता है और इस प्रकार हमारा ज्ञान बढ़ता है । ३. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! आप ही (भूम्याः) = भूमि के (सानु) = समुच्छ्रित [उन्नत] प्रदेश को (वि अप्रथयः) = विशेष रूप से विस्तृत करते हैं । भूमि का उन्नत प्रदेश ही रहने योग्य होता है । निम्न भूभागों में सील आदि के कारण अस्वास्थ्य की आशंका रहती है यह उन्नत प्रदेश इतना विस्तृत है कि हम बड़े प्रेम से भाई - भाई की भांति उसपर खुले में रह सकते हैं । यह विचार हमें युद्धों से ऊपर क्यों न उठाएगा ? ४. (दिवः) = द्युलोक में स्थित (रजः)‌ = लोकसमूह को भी वे प्रभु ही विस्तृत करते हैं । ये अनन्त लोक - लोकान्तर कर्मानुसार हमारे निवासस्थान बनते हैं । ५. प्रभु ने ही (उपरम्) = मेघ को [उपलम्] (अस्तभाय) = अन्तरिक्ष में थामा है । यह द्युलोकस्थ सूर्य किरणों द्वारा भूमिस्थ जलों को ऊपर ले - जाकर अन्तरिक्ष में बादलरूप में करने की व्यवस्था प्रभु की सर्वमहती व्यवस्था है । इसपर ही हमारा जीवन निर्भर करता है, अन्यथा हमें एक गिलास जल के लिए समुद्र की ओर जाना पड़ता । पानी तो बहकर समुद्र में जा ही रहा है, प्रभु ही उसे अन्तरिक्ष में ले जाकर पुनः पर्वत - शिखरों पर बरसाते हैं । इस प्रकार हमारे लिए पानी सुलभ बना रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे अन्धकार को दूर करते हैं, जीवन के लिए भी वे ही सब व्यवस्था करते हैं ।

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    विषय

    राष्ट्र की वृद्धि और प्रजा के उपकार ।

    भावार्थ

    जैसे जीव (अंगिरोभिः अन्धः वि वः ) प्राणों के द्वारा अन्न का परिपाक करता है और जिस प्रकार ( उषसा ) दिन के पूर्व भाग, प्रभात द्वारा और सूर्य अपने प्रकाश से ( अन्धः ) अन्धकार को दूर कर देता है उसी प्रकार हे (दस्म) दर्शनीय ! दुष्टों के नाशक ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू (अंगिरोभिः) ज्ञानवान् पुरुषों और अग्नि के समान तेजस्वी, बलवान् प्रतापों और सैनिकों से उपदेश करता हुआ और स्तुति किया जाता हुआ ( उषसा ) शत्रु के संताप देनेवाले (सूर्येण) अपने तेज से और (गोभिः) आज्ञावाणियों और भूमियों से (अन्धः) अन्न, ऐश्वर्य को ( वितः ) विशेष रूप से प्रकट कर । अथवा ज्ञान के प्रखर तेजस्वी विद्वान् पुरुष द्वारा और ज्ञानवाणियों द्वारा अज्ञान अन्धकार को दूर कर । हे राजन् ! तू (भूम्याः) भूमि के (सानु) उच्च भाग, उत्तम प्रदेश को (वि अप्रथयः) विस्तृत कर । ( दिवः ) आकाश और प्रकाश के समान ( रजः ) विद्वानों की बनी सभा को और (रजः) लोक समूह को और (उपरम् ) मेघ के समान उन पर ज्ञानों और धनैश्वर्यों के दाता विद्वानों और समृद्ध जनों को भी (अस्तभायः) शिक्षक और पोषक रूप से स्थापित कर । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! दस्म सभाद्यध्यक्ष ! गृणानः त्वं अङ्गिरोभिः उषसा सूर्येण गोभिः अन्धः वि वः वृणोति तथा विद्या वि अप्रथयः यथा भूम्या दिवः प्रकाशस्य सानु रजः सर्वं लोकम् उपरं मेघं स्तभ्नाति तथा धर्मराज्यसेना वि वः शत्रून् अस्तभायः स्तभान स भवान् अस्माभिः स्तुत्यः५॥ अस्ति ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विदारक= विध्वंसक, (दस्म) उपक्षेतः= निकट रहनेवाले, (सभाद्यध्यक्ष)=सभा आदि के अध्यक्ष ! (गृणानः) शब्दं कुर्वाणः=शब्द करते हुए , (त्वम्)=तुम, (अङ्गिरोभिः) प्राणैर्बलैः=प्राणों के बल से, (उषसा) दिनप्रमुखेन=दिन के प्रमुख भाग उषा काल से, (सूर्येण) सूर्यप्रकाशेन=सूर्य के प्रकाश से, (गोभिः) किरणैः=किरणों के द्वारा, (अन्धः) अन्नम्=अन्न को, (वि) विविधार्थे =विविध प्रकार से, (वः) वृणोषि =उपभोग करते हो, (तथा)=वैसे ही, (विद्या)= विद्या का, (वि) विशेषार्थे =विशेष रूप से, (अप्रथयः) प्रथय=विस्तार करो, (यथा)=जैसे, (भूम्याः) भूमिषु साधवः=भूमि में सुन्दर, (दिवः) प्रकाशस्य=प्रकाश के, (सानु) शिखरम्=शिखर (सर्वम्)=समस्त, (लोकम्)= लोको के, (उपरम्) मेघम्=बादलों को, (स्तभ्नाति)= पंगु बना देता है, (तथा)=वैसे ही, [हे] (धर्मराज्यसेना)= धर्म राज्य की सेना, (वि) विविधार्थे =विविध प्रकार से, (वः) वृणोषि= तुम उपभोग करते हो, (शत्रून्)= शत्रुओं को, (अस्तभायः) स्तभान=पंगु कर देने के लिये, (सः)=वह, (भवान्) =आप, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (स्तुत्यः)=स्तुति किये जाने योग्य, (अस्ति)=हो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा उषा काल की सूर्य की किरणों के समान और प्राणों के समान उत्तम गुणों का प्रकाश करके दुष्टों का निवारण करना चाहिये। जैसे सूर्य अपने प्रकाश को फैला कर मेघ उत्पन्न करके वर्षा कराता है, वैसे ही प्रजा में, उत्तम विद्या उत्पन्न करके सुखों की वर्षा करनी चाहिये ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) विध्वंसक और (दस्म) निकट रहनेवाले (सभाद्यध्यक्ष) सभा आदि के अध्यक्ष ! (गृणानः) शब्द करते हुए (त्वम्) तुम (अङ्गिरोभिः) प्राणों के बल से (उषसा) दिन के प्रमुख भाग, उषा काल में (सूर्येण) सूर्य के प्रकाश से (गोभिः) किरणों के द्वारा (अन्धः) अन्न का, (वि) विविध प्रकार से (वः) उपभोग करते हो। (तथा) वैसे ही (विद्या) विद्या का (वि) विशेष रूप से (अप्रथयः) विस्तार करो। (यथा) जैसे (भूम्याः) भूमि में सुन्दर (दिवः) प्रकाश के (सानु) शिखर, (सर्वम्) समस्त (लोकम्) लोको के (उपरम्) बादलों को (स्तभ्नाति) पंगु बना देते हैं, (तथा) वैसे ही [हे] (धर्मराज्यसेना) धर्म राज्य की सेना! (वि) विविध प्रकार से (वः) तुम उपभोग करते हो और (शत्रून्) शत्रुओं को (अस्तभायः) पंगु बना देने के लिये, (सः) वह (भवान्) आप (अस्माभिः) हमारे द्वारा (स्तुत्यः) स्तुति किये जाने योग्य (अस्ति) हो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (गृणानः) शब्दं कुर्वाणः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् । (अङ्गिरोभिः) प्राणैर्बलैः (दस्म) उपक्षेतः (वि) विशेषार्थे (वः) वृणोषि (उषसा) दिनप्रमुखेन (सूर्येण) सूर्यप्रकाशेन (गोभिः) किरणैः (अन्धः) अन्नम् (वि) विविधार्थे (भूम्याः) भूमिषु साधवः (अप्रथयः) प्रथय (इन्द्र) विदारक (सानु) शिखरम् (दिवः) प्रकाशस्य (रजः) लोकम् (उपरम्) मेघम् (अस्तभायः) स्तभान। अत्र लङर्थे लङ् ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! दस्म सभाद्यध्यक्ष ! गृणानस्त्वमङ्गिरोभिरुषसा सूर्येण गोभिरन्धो विवो वृणोति तथा विद्या व्यप्रथयो यथा भूम्या दिवः प्रकाशस्य सानु रजः सर्वं लोकमुपरं मेघं स्तभ्नाति तथा धर्मराज्यसेना विवः शत्रून् अस्तभायः स्तभान स भवानस्माभिः स्तुत्योऽस्ति ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पुरुषैरुषोवत् सूर्यवत्किरणवत् प्राणवच्च सद्गुणान् प्रकाश्य दुष्टनिवारणं कार्यम्। यथा सूर्यः स्वप्रकाशं विस्तार्य मेघमुत्पाद्य वर्षयति, तथैव प्रजासु सद्विद्यामुत्पाद्य सुखवृष्टिः कार्येति ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांचे प्रातःकाळचे सूर्यकिरण व प्राण याप्रमाणे वरील गुणांचा प्रकाश करून दुष्टांचे निवारण केले पाहिजे. जसा सूर्य प्रकाश प्रसृत करून मेघ उत्पन्न करतो व वृष्टी करवितो. तसेच सभाध्यक्ष इत्यादी माणसांनी प्रजेला उत्तम विद्या शिकवून सुखाची वृष्टी करावी. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of wondrous deeds, proclaiming his power and presence by the pranic energies of nature, the dawn, the sun and the sun-rays, dispels the darkness and creates the food for life and growth. He expands the earth and the hills and mountains of the earth and stabilizes the heights of the skies and the heavens.$So should the ruler proclaim his power and presence dispelling the darkness of ignorance, injustice and poverty, create food and prosperity and thereby expand the character, power and potential of the land and stabilize the common wealth of humanity.

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    Subject of the mantra

    Then how should that Chairman of the Assembly be, this matter is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =destroyer and, (dasma) =who lives nearby, (sabhādyadhyakṣa)= President of the Assembly etc., (gṛṇānaḥ) =uttering words, (tvam) =you, (aṅgirobhiḥ) =by power of the life-breath, (uṣasā)=in major part of the day, dawn, (sūryeṇa) =by Sunlight, (gobhiḥ) =by rays, (andhaḥ) =of food, (vi)= in various ways, (vaḥ)= you consume, (tathā) =similarly, (vidyā) =of knowledge, (vi) =specially, (aprathayaḥ) =expand, (yathā) =like, (bhūmyāḥ) =in earthbeautiful, (divaḥ) =by light, (sānu)= peaks, (sarvam) =all, (lokam) =of worlds, (uparam) =to clouds, (stabhnāti) =paralyze, (tathā) =similarly, [he]=O! (dharmarājyasenā) =army of the kingdom of righteousness, (vi) =in various ways, (vaḥ) =you consume and, (śatrūn) =to enemies, (astabhāyaḥ)=for crippling, (saḥ) =that, (bhavān) =you, (asmābhiḥ) =by us, (stutyaḥ) =worthy of praise (asti)=are.

    English Translation (K.K.V.)

    O destroyer and President of the Assembly etc. who lives nearby! While uttering words, you consume food in various ways with the power of your life-breath force during the main part of the day, in the dawn, through the rays of Sunlight. Similarly, expand knowledge especially. Just as the peaks of beautiful light on the ground paralyze the clouds of all the worlds, so too, O army of the kingdom of righteousness! You are worthy of being praised by us for the variety of ways you enjoy and for crippling the enemies.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. The evils should be eradicated by human beings by illuminating their good qualities like the rays of the dawn Sun and like life-breath itself. Just as the Sun, by spreading its light, creates clouds and causes rain, in the same way, we should shower happiness among the people by creating good knowledge.

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