ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 4
ऋषिः - नोधा गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्षीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स सु॒ष्टुभा॒ स स्तु॒भा स॒प्त विप्रैः॑ स्व॒रेणाद्रिं॑ स्व॒र्यो॒३॒॑ नव॑ग्वैः। स॒र॒ण्युभिः॑ फलि॒गमि॑न्द्र शक्र व॒लं रवे॑ण दरयो॒ दश॑ग्वैः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । सु॒ऽस्तुभा॑ । सः । स्तु॒भा । स॒प्त । विप्रैः॑ । स्व॒रेण॑ । अद्रि॑म् । स्व॒र्यः॑ । नव॑ऽग्वैः । स॒र॒ण्युऽभिः॑ । फ॒लि॒ऽगम् । इ॒न्द्र॒ । श॒क्र॒ । व॒लम् । रवे॑ण । दश॑ऽग्वैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुष्टुभा स स्तुभा सप्त विप्रैः स्वरेणाद्रिं स्वर्यो३ नवग्वैः। सरण्युभिः फलिगमिन्द्र शक्र वलं रवेण दरयो दशग्वैः ॥
स्वर रहित पद पाठसः। सुऽस्तुभा। सः। स्तुभा। सप्त। विप्रैः। स्वरेण। अद्रिम्। स्वर्यः। नवऽग्वैः। सरण्युऽभिः। फलिऽगम्। इन्द्र। शक्र। वलम्। रवेण। दरयः। दशऽग्वैः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे स इन्द्र शक्र सभाद्यध्यक्ष ! यस्त्वं नवग्वैर्दशग्वैः सरण्युभिर्विप्रैः सुष्टुभा स्तुभा रवेण सप्त यथा सविता सप्तानां मध्ये वर्त्तमानेन स्वरेणाद्रिं बलं फलिगं हन्ति तथाऽरीन् दरयो विदारयः स त्वं स्वर्यः स्तुत्योऽसि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(सः) इन्द्रः (सुष्टुभा) सुष्ठु द्रव्यगुणक्रियास्थिरकारकेण (सः) उक्तार्थः (स्तुभा) स्तोभते स्थिरीकरोति येन तेन (सप्त) सप्तसंख्याकानामुदात्तादीनां षड्जादीनां स्वराणां वा मध्यस्थेन केनचित् (विप्रैः) मेधाविभिः। विविधान् पदार्थान् प्रान्ति तैः किरणैर्वा (स्वरेण) महाशब्देन (अद्रिम्) मेघम् (स्वर्य्यः) स्वरेषु साधुः (नवग्वैः) नवनीतगतिभिः। नवग्वा नवनीतगतयः। (निरु०११.११) अत्र नवोपपदाद् गमधातोर्बाहुलकादौणादिको ड्वप्रत्ययः। (सरण्युभिः) सर्वेषु शास्त्रेषु विज्ञानगतिभिः। अत्र सृयुवचि०। (उणा०३.८१) इति सूत्रेणान्युच् प्रत्ययः। (फलिगम्) फलीनां गमयितारं मेघम्। फलिग इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (शक्र) शक्तिमान् (बलम्) बलयुक्तं मेघम् (रवेण) विद्युतः शब्देन (दरयः) विदारय। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (दशग्वैः) ये रश्मयो दश दिशो गच्छन्ति तैः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्तनयित्नुः स्वैरुत्तमैर्गुणैर्वर्त्तमानः सन् जीवनहेतुं मेघोत्पत्त्यादिकं कार्य्यं साधयति, तथैव सभाद्यध्यक्षः परमोत्तमैर्विद्याबलयुक्तैः पुरुषैः सह वर्त्तमानेन विद्यान्यायप्रकाशेन सर्वमन्यायं प्रणाश्य दुष्टांश्च निवार्य्य चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशिष्यात् ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (सः) वह (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (शक्र) शक्ति को प्राप्त करनेवाले सभाध्यक्ष ! जो आप (नवग्वैः) नवों से प्राप्त हुई गति वा (दशग्वैः) दश दिशाओं में जाने (सरण्युभिः) सब शास्त्रों में विज्ञान करनेवाली गतियों से युक्त (विप्रैः) बुद्धिमान् विद्वानों के साथ जैसे सूर्य्य (सुष्टुभा) उत्तम द्रव्य, गुण और क्रियाओं के स्थिर करने वा (स्तुभा) धारण करनेवाले (रवेण) शस्त्रों के शब्द से जैसे सूर्य (सप्त) सात संख्यावाले स्वरों के मध्य में वर्त्तमान (स्वरेण) उदात्तादि वा षड्जादि स्वर से (अद्रिम्) बलयुक्त (फलिगम्) मेघ का हनन करता है, वैसे शत्रुओं को (दरयः) विदारण करते हो (सः) आप हम लोगों से (स्वर्यः) स्तुति करने योग्य हो ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली उत्तम-उत्तम गुणों से वर्त्तमान हुई जीवन के हेतु मेघ के उत्पन्न करने आदि कार्यों को सिद्ध करती है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि अत्यन्त उत्तम-उत्तम विद्या बल से युक्त पुरुषों के साथ वर्त्त के विद्यारूपी न्याय के प्रकाश से अन्याय वा दुष्टों का निवारण कर चक्रवर्त्ति राज्य का पालन करें ॥ ४ ॥
विषय
अविद्या - पर्वत - विदारण
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता (शक्र) = शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले जीव ! (सः) = वह तू (अद्रिम्) = अविद्या के पर्वत को, जिसका कि विदारण बड़ा कठिन है [अ+दृ], (वलम्) = जो ज्ञान पर एक आवरण के रूप में है, (फलिगम्) = [फल्गुम्] जो असत्य है, साररहित है, उसे (दरयः) = तू विदीर्ण करता है । २. अविद्यापर्वत को तू नष्ट करता है, अतएव (स्वर्यः) = [स्वः याति] सुख व प्रकाशमय स्थिति को प्राप्त करनेवाला होता है । अविद्या ही सम्पूर्ण क्लेशों का मूल है "अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम्" । अविद्या के नाश से क्लेशों का नाश होता है और सुखमय स्थिति प्राप्त होती है - यही है स्वर्य बनना । ३. परन्तु इस अविद्या का विदारण होता कैसे है ? [क] (सुष्टुभा) = उत्तम स्तोत्र से, प्रभु के स्तोत्रों का उत्तमता से उच्चारण करने से, [ख] (स्तुभा) = [Stop] काम, क्रोध, लोभ को रोकने के प्रयत्न से, [ग] (सप्त) = सात (विप्रैः) = विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्राणों से प्राणसाधना के द्वारा शरीर नीरोग बनता है, मन निर्मल होता है और बुद्धि तीन होती है, एवं ये प्राण हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले विप्र हैं । [घ] (स्वरेण) = [स्वृ शब्दोपतापयोः] प्रभु के गुणवाचक शब्दों के उच्चारण से अथवा अपने को तप की अग्नि में तपाने से [ङ] (नवग्वैः) = नव दशकपर्यन्त अर्थात् ९० वर्ष तक जानेवाली (दशग्वैः) = दशम दशक तक स्वस्थरूप से चलनेवाली (सरण्युभिः) = [स र = गति, ण - ज्ञान Knowledge] गति व ज्ञान में उत्तम कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों से तथा (रवेण) = प्रभु - नामोच्चारण से अथवा आत्मप्रेरणा करने से तू अज्ञान के पर्वत का विदारण करता है । अथवा रवेण - ऊँचे शब्द से, अर्थात् ऊँचे - ऊँचे अपने को यह कहने से कि मुझे अवश्य ही अविद्यापर्वत का विलय करना है, यह आत्मप्रेरणा भी मनुष्य को शक्तिशाली बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - अविद्या के पर्वत के विदारण में स्तुति, वासना - विलयार्थ प्रयत्न, प्राणसाधना, तप, प्रभु - नामोच्चारण, स्वस्थ इन्द्रियाँ तथा आत्मप्रेरणा साधन हैं ।
विषय
शत्रु विजय के लिये घोर गर्जनाकारी तोपों का प्रयोग ।
भावार्थ
( स्वर्यः ) ताप और प्रकाशों को उत्पन्न करने वाला सूर्य जिस प्रकार (नवग्वैः) नये कोमल २ ताप से प्रवेश करनेवाले और (दशग्वैः) दशों दिशाओं में फैलनेवाले, (सरण्युभिः) वेग से जानेवाले, (विप्रैः) किरणों से और (स्तुभा) स्थिर (स्वरेण) ताप से (फलिगम् ) कण २ हुए जलों के देने वाले, (अद्रिम्) अखण्डित पर्वताकार, (वलम्) अपने भीतर जलों को और अपने विस्तार से आकाश को आच्छादन करनेवाले मेघ को ( दरयः ) छिन्न-भिन्न करता है। अथवा—जिस प्रकार सूर्य (विप्रैः) किरणों से (स्वर्यंः) शब्दकारी विद्युत् (नवग्वैः) कोमल गतियों से और वायु ( सरण्युभिः ) अपने प्रसरणशील झकोरों से क्रम से (अद्रिम्, फलिगम्, वलम्) अखण्ड, सूक्ष्म और बाष्परूप या कण २ रूप जल बरसाने वाले और आकाश के आच्छादक इन तीनों प्रकार के मेघों को ( दरयः ) विदीर्ण या छिन्न-भिन्न कर देते हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! हे ( शक्र ) शक्तिशालिन् ! तू भी ( सः ) वह ( सुष्टुभा ) उत्तम द्रव्य गुण क्रिया से स्थिर करनेवाले (स्तुभा) स्थायी प्रबन्ध से और (सप्त विप्रैः) राष्ट्र को विविध ऐश्वर्यों से पूरनेवाले सात विद्वान् पुरुषों के द्वारा और ( स्वरेण ) बड़े उपदेश से और ( नवग्वैः ) नये-नये प्रदेशों और ज्ञानमार्ग में जानेवाले और ( दशग्वैः ) दश दिशाओं में जानेवाले राज-पुरुषों और (सरण्युभिः) वेग से जानेवाले सैनिकों के द्वारा (अद्रिम् ) पर्वत के समान अचल और मेघ के समान शस्त्रवर्षी (फलिगम्) फल वाले बाणों के फेंकने वाले योद्धा और (वलम्, बलम्) शस्त्र वर्षा द्वारा आकाश को रोक लेने वाले तथा नगर को घेरने वाले बलवान् शत्रु को (रवेण) दुन्दुभि आदि के घोर शब्द तथा (स्वर्येण रवेण) संतापजनक आग्नेयास्त्र के घोर गर्जना से ( दरयः ) भयभीत कर और छिन्न-भिन्न कर। इस मन्त्र में अद्रि, फलिग, और वल ये तीनों नाम मेघ की भिन्न मिन्न दशा के सूचक हैं । इसी प्रकार उस शत्रु की तीन अवस्थाओं को दर्शाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स इन्द्र शक्र सभाद्यध्यक्ष ! यः त्वं नवग्वैः दशग्वैः सरण्युभिः विप्रैः सुष्टुभा स्तुभा रवेण सप्त यथा सविता सप्तानां मध्ये वर्त्तमानेन स्वरेण अद्रिं बलं फलिगं हन्ति तथा अरीन् दरयः विदारयः स त्वं स्वर्यः स्तुत्यः असि ॥४॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त=परम ऐश्वर्य युक्त, (शक्र) शक्तिमान्= शक्तिमान्, (सभाद्यध्यक्षः)=सभा आदि का अध्यक्ष ! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (नवग्वैः) नवनीतगतिभिः=कोमल गतियों के द्वारा, (दशग्वैः) ये रश्मयो दश दिशो गच्छन्ति तैः=दशों दिशाओं में जानेवाली किरणों से, (सरण्युभिः) सर्वेषु शास्त्रेषु विज्ञानगतिभिः=समस्त शास्त्रों में विशेष ज्ञान की गति के द्वारा, (विप्रैः) मेधाविभिः=मेधावियों के द्वारा, (सुष्टुभा) सुष्ठु द्रव्यगुणक्रियास्थिरकारकेण=उत्तम द्रव्य, गुण और क्रिया के स्थिर करनेवाले के द्वारा, (स्तुभा) स्तोभते स्थिरीकरोति येन तेन=स्थिर करानेवाले के द्वारा, (रवेण) विद्युतः शब्देन= विद्युत् के शब्द के द्वारा, (सप्त) सप्तसंख्याकानामुदात्तादीनां षड्जादीनां स्वराणां वा मध्यस्थेन केनचित्=सात संख्याओं के, उदात्तों के और षडज् आदि स्वरों के मध्य में स्थितों के कोई, (यथा)=जैसे, (सविता) =सूर्य, (सप्तानाम्)=सातों के, (मध्ये)=बीच में, (वर्त्तमानेन)= वर्त्तमान, (स्वरेण) महाशब्देन= महाशब्द के द्वारा, (अद्रिम्) मेघम्=बादल को, (बलम्) बलयुक्तं मेघम्= बल से युक्त बादल को, (फलिगम्) फलीनां गमयितारं मेघम्=वृक्षों में ले जानेवाले बादल को, (हन्ति)=छिन्न-भिन्न करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (अरीन्)=शत्रुओं के, (दरयः) विदारय=टुकड़े-टुकड़े कर दो, (सः) उक्तार्थः=उक्त अभिप्राय कि लिये, (त्वम्) =तुम, (स्वर्य्यः) स्वरेषु साधुः=उत्तम स्वरों से, (स्तुत्यः)=स्तुति करनेवाले. (असि)=हो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजली उत्तम-उत्तम गुणों में वर्त्तमान होती हुई जीवन के लिये मेघ के उत्पन्न करने आदि कार्यों को सिद्ध करती है, वैसे ही सभा आदि के अध्यक्ष आदि परम उत्तम विद्या और न्याय के प्रकाश से समस्त अन्याय को नष्ट करके दुष्टों का निवारण करके चक्रवर्त्ति राज्य में प्रशिक्षित करते हैं ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य युक्त और (शक्र) शक्तिमान् (सभाद्यध्यक्षः) सभा आदि का अध्यक्ष ! (यः) जो (त्वम्) तुम (नवग्वैः) कोमल गतियों के द्वारा (दशग्वैः) दशों दिशाओं में जानेवाली किरणों से (सरण्युभिः) समस्त शास्त्रों में विशेष ज्ञान की गति और (विप्रैः) मेधावियों के द्वारा, (सुष्टुभा) उत्तम द्रव्य, गुण और क्रिया के स्थिर करनेवाले के द्वारा, (स्तुभा) स्थिर करानेवाले के द्वारा, (रवेण) विद्युत के शब्द के द्वारा, अर्थात् बिजली के चमकने से होनेवाली ध्वनि से, (सप्त) सात संख्याओं के, उदात्त और षडज् आदि स्वरों के मध्य में स्थित किसी स्वर से, (यथा) जैसे (सविता) सूर्य के (सप्तानाम्) सात रंगों के (मध्ये) बीच में (वर्त्तमानेन) वर्त्तमान (स्वरेण) महाशब्द के द्वारा (अद्रिम्+बलम्) बल से युक्त बादल को (फलिगम्) वृक्षों में ले जाते हैं और (हन्ति) छिन्न-भिन्न कर देते हैं, (तथा) वैसे ही (अरीन्) शत्रुओं के (दरयः) टुकड़े-टुकड़े कर दो। (सः) उक्त अभिप्राय कि लिये (त्वम्) तुम (स्वर्य्यः) उत्तम स्वरों से, (स्तुत्यः) स्तुति करनेवाले (असि) हो ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) इन्द्रः (सुष्टुभा) सुष्ठु द्रव्यगुणक्रियास्थिरकारकेण (सः) उक्तार्थः (स्तुभा) स्तोभते स्थिरीकरोति येन तेन (सप्त) सप्तसंख्याकानामुदात्तादीनां षड्जादीनां स्वराणां वा मध्यस्थेन केनचित् (विप्रैः) मेधाविभिः। विविधान् पदार्थान् प्रान्ति तैः किरणैर्वा (स्वरेण) महाशब्देन (अद्रिम्) मेघम् (स्वर्य्यः) स्वरेषु साधुः (नवग्वैः) नवनीतगतिभिः। नवग्वा नवनीतगतयः। (निरु०११.११) अत्र नवोपपदाद् गमधातोर्बाहुलकादौणादिको ड्वप्रत्ययः। (सरण्युभिः) सर्वेषु शास्त्रेषु विज्ञानगतिभिः। अत्र सृयुवचि०। (उणा०३.८१) इति सूत्रेणान्युच् प्रत्ययः। (फलिगम्) फलीनां गमयितारं मेघम्। फलिग इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (शक्र) शक्तिमान् (बलम्) बलयुक्तं मेघम् (रवेण) विद्युतः शब्देन (दरयः) विदारय। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (दशग्वैः) ये रश्मयो दश दिशो गच्छन्ति तैः ॥४॥ विषयः- पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे स इन्द्र शक्र सभाद्यध्यक्ष ! यस्त्वं नवग्वैर्दशग्वैः सरण्युभिर्विप्रैः सुष्टुभा स्तुभा रवेण सप्त यथा सविता सप्तानां मध्ये वर्त्तमानेन स्वरेणाद्रिं बलं फलिगं हन्ति तथाऽरीन् दरयो विदारयः स त्वं स्वर्यः स्तुत्योऽसि ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्तनयित्नुः स्वैरुत्तमैर्गुणैर्वर्त्तमानः सन् जीवनहेतुं मेघोत्पत्त्यादिकं कार्य्यं साधयति, तथैव सभाद्यध्यक्षः परमोत्तमैर्विद्याबलयुक्तैः पुरुषैः सह वर्त्तमानेन विद्यान्यायप्रकाशेन सर्वमन्यायं प्रणाश्य दुष्टांश्च निवार्य्य चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशिष्यात् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी विद्युत आपल्या उत्तमोत्तम गुणांनी विद्यमान असलेल्या जीवनाचा हेतू असलेल्या मेघाला उत्पन्न करण्याचे कार्य सिद्ध करते. तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनी उत्तमोत्तम विद्याबलाने युक्त पुरुषांच्या संगतीने विद्यारूपी न्यायप्रकाशाने अन्याय व दुष्टांचे निवारण करून चक्रवर्ती राज्याचे पालन करावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as the bright sun breaks the powerful clouds with its fresh, all embracing, all expansive, sustaining and sustained but resounding rays of light, similarly Indra, powerful ruler of the world, shining and resounding, with balanced and all-sustaining order, seven orders of the wise, his rolling voice, new and all expansive radiating powers and burning and roaring weapons, breaks down the thick and powerful clouds of darkness which hoard the system’s life and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly or the Commander of the Army) as the sun shatters into pieces the mountainlike cloud in various stages with his seven coloured rays, in the same way, you should dispel all darkness (of ignorance) with the stable arrangements in which all substances, attributes and functions are established, should diffuse knowledge in the State with the help of wisemen who are well-versed in all Shastras, who go in all directions, who are of butter-like (mild) nature and with their effective sermons dispel all ignorance. Thus only you can be admired hy all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुष्टुभा) सुष्ठु द्रव्यगुणक्रियास्थिरकारकेण। (स्तुभा) स्तोभते स्थिरीकरोति येन तेन || = By stable arrangements. ष्टुभु-स्तम्भे (सरण्युभिः) सर्वेषु शास्त्रेषु विज्ञानगतिभिः = By persons well-versed in all Shastras. (फलिगम्) मेघम् फलिग इति मेघनाम (निघ०१.१०)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the lightning creates the cloud and does other useful work with its good attributes, in the same manner, the President of the Assembly should remove all injustice by diffusing the light of knowledge and justice with the assistance of the best learned and mighty persons and should rule over a vast State by destroying or keeping away the wicked.
Subject of the mantra
Then, how humans should behave has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=full of opulence and, (śakra)=powerful, (sabhādyadhyakṣaḥ) =President etc. of the Assembly, (yaḥ) =that, (tvam) =you, (navagvaiḥ)= through gentle movements, (daśagvaiḥ)=from rays going in ten directions, (saraṇyubhiḥ)=the speed of special knowledge in all the scriptures and, (vipraiḥ)=by the brilliants, (suṣṭubhā)=by the stabilizer of good substance, quality and action, (stubhā)= by the one who stabilizes, (raveṇa) =by the word electricity, that is, by the sound caused by lightning, (sapta)=of the seven numbers, from any swara situated in between the loud word and shadaj etc. swaras, (yathā) =like, (savitā) =of Sun, (saptānām) =od seven colours, (madhye) =amdst, (varttamānena) =present, (svareṇa) =by loud word, (adrim+balam) =to a cloud full of power, (phaligam)=take to the trees and, (hanti) =disintegrate, (tathā) =similarly, (arīn) =of enemies, (darayaḥ)= break into pieces, (saḥ)=for the said purpose, (tvam) =you, (svaryyaḥ) =by good vowels, (stutyaḥ)=those who praise, (asi) =are.
English Translation (K.K.V.)
O President of the most opulent and powerful Assembly! Which you, through gentle movements, through the rays going in ten directions, through the speed of special knowledge in all the scriptures and by the brilliant ones, through the stabilizer of the best substances, qualities and action, through the one who makes stable, through the word of electricity, i.e. by lightning. By the sound of shining, by any vowel placed between the seven numbers, acute accent and ṣaḍaj etc. vowels, just as by the very loud word present amidst the seven colors of the Sun, they carry the powerful clouds to the trees and disintegrate them. Similarly, cut your enemies into pieces. For this purpose, you are the one who praises with excellent voices.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as lightning, being present in the best qualities, fulfills the functions of generating clouds etc. for life, in the same way, the President of the Assembly etc., by destroying all injustice with the light of supreme knowledge and justice, destroys all the injustices and eliminating the wicked train to cakravartti kingdom.
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