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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदास्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ता अ॑स्य पृशना॒युवः॒ सोमं॑ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। प्रि॒या इन्द्र॑स्य धे॒नवो॒ वज्रं॑ हिन्वन्ति॒ साय॑कं॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः । अ॒स्य॒ । पृ॒श॒न॒ऽयुवः॑ । सोम॑म् । श्री॒ण॒न्ति॒ । पृश्न॑यः । प्रि॒याः । इन्द्र॑स्य । धे॒नवः॑ । वज्र॑म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । साय॑कम् । वस्वीः॑ । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अस्य पृशनायुवः सोमं श्रीणन्ति पृश्नयः। प्रिया इन्द्रस्य धेनवो वज्रं हिन्वन्ति सायकं वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। अस्य। पृशनऽयुवः। सोमम्। श्रीणन्ति। पृश्नयः। प्रियाः। इन्द्रस्य। धेनवः। वज्रम्। हिन्वन्ति। सायकम्। वस्वीः। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तत्सम्बन्धिगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयमस्येन्द्रस्य याः पृशनायुवः पृश्नयः प्रिया धेनवः सोमं श्रीणन्ति सायकं वज्रं हिन्वन्ति वस्वीः स्वराज्यमनुभवन्ति ताः प्राप्नुत ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (ताः) उक्ता वक्ष्यमाणाश्च (अस्य) (पृशनायुवः) आत्मनः स्पर्शमिच्छन्त्यः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (सोमम्) पदार्थरसमैश्वर्यं वा (श्रीणन्ति) पचन्ति (पृश्नयः) याः स्पृशन्ति ताः। अत्र घृणिपृश्नि० (उणा०४.५४) अनेनायं निपातितः। (प्रियाः) तर्पयन्ति ताः (इन्द्रस्य) सूर्यस्य वा सेनाध्यक्षस्य वा (धेनवः) किरणा गावो वाचो वा (वज्रम्) तापसमूहं किरणसमूहं वा (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति (सायकम्) स्यन्ति क्षयन्ति येन तम् (वस्वीः) पृथिवीसम्बन्धिन्यः (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    यथा गोपालस्य धेनवो जलं पीत्वा घासं जग्ध्वा सुखं वर्धित्वाऽन्येषामानन्दं वर्धयन्ति, तथैव सेनाध्यक्षस्य सेनाः सूर्यस्य च किरणा ओषधीभ्यो वैद्यकशास्त्रसम्पादितं परिपक्वं वा रसं पीत्वा विजयं प्रकाशं वा कृत्वानन्दयन्ति ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब फिर उससे सम्बन्धित गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग (अस्य) इस (इन्द्रस्य) सूर्य वा सेना के अध्यक्ष की (पृशनायुवः) अपने को स्पर्श करनेवाली अर्थात् उलट-पलट अपना स्पर्श करना चाहती (पृश्नयः) स्पर्श करती और (प्रियाः) प्रसन्न करनेहारी (धेनवः) किरण वा गौ वा वाणी (सोमम्) ओषधि रस वा ऐश्वर्य को (श्रीणन्ति) सिद्ध करती और (सायकम्) दुर्गुणों को क्षय करनेहारे ताप वा शस्त्रसमूह को (हिन्वन्ति) प्रेरणा देती है (वस्वीः) और वे पृथिवी से सम्बन्ध करनेवाली (स्वराज्यम्) अपने राज्य के (अनु) अनुकूल होती है, उनको प्राप्त होओ ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    जैसे गोपाल की गौ जल रस को पी, घास को खा, निज सुख को बढ़ाकर, औरों के आनन्द को बढ़ाती है, वैसे ही सेनाध्यक्ष की सेना और सूर्य की किरण औषधियों से वैद्यकशास्त्र के अनुकूल वा उत्पन्न हुए परिपक्व रस को पीकर विजय और प्रकाश को करके आनन्द कराती हैं ॥ ११ ॥

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    विषय

    "सायक" वज्र

    पदार्थ

    १. (ताः) = गतमन्त्र में वर्णित शुद्ध इन्द्रियाँ [गौर्यः] (अस्य) = इस आत्मतत्त्व के, इन्द्र के (पृशनायुवः) = स्पर्श की कामनावाली (पृश्नयः) = [संस्पृष्टो भासा = नि० २/१४] ज्योति से युक्त हुई - हुई (सोमम्) = सोम को (श्रीणन्ति) = शरीर में ही परिपक्व करती हैं । सोम को शरीर में सुरक्षित करके विविध शक्तियों का पोषण करती हैं । इस सोम के रक्षण से ही तो वे आत्मतत्त्व का स्पर्श करनेवाली हो पाएँगी । २. ऐसा होने पर (इन्द्रस्य) = इन इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध का पान करानेवाली वेदवाणियाँ (प्रियाः) = प्रिय होती हैं और वे वाणियाँ उसके जीवन में (सायकम्) = सब शत्रुओं का अन्त करनेवाले (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को (हिन्वन्ति) = प्रेरित करती हैं, अर्थात् यह क्रियाशील बनता है । ३. इस प्रकार ये इन्द्रियाँ (वस्वीः) = निवास को उत्तम बनानेवाली होती हैं, होती तभी हैं, जबकि (अनु स्वराज्यम्) = हम आत्मशासन की वृत्तिवाले होते हैं । संयम के पश्चात् ही इन्द्रियाँ उत्तम निवास का कारण बनती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = शरीर में सोम के परिपाक से इन्द्रियाँ आत्मदर्शन के योग्य बनती हैं । इस सोमपान करनेवाले को वेदवाणियाँ प्रिय होती है और यह उनमें उपदिष्ट कार्यों को करनेवाला होता है ।

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    विषय

    प्रजाओं के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( धेनवः वस्वीः ) दुधार गौएं जिस प्रकार ( अस्य पृशनायुवः ) अपने बच्चे से मिलना चाहती हुई उस के लिये ( सोमं श्रीणन्ति ) दुग्ध रस प्रदान करती हैं उसी प्रकार ( स्वराज्यम् अनु ) अपने ही राज्य की वृद्धि के लिये, (वस्वीः) राष्ट्रवासिनी प्रजाएं ( इन्द्रस्य धेनवः ) ऐश्वर्यवान् राजा को धारण और पोषण करने वाली और (इन्द्रस्य प्रियाः) उस राजा की अति प्रिय, हितकारी होकर उस के ( सायकं ) शत्रु का अन्त कर देने वाले ( वज्रं ) शस्त्रास्त्र युक्त सैन्यबल की ( हिन्वन्ति ) वृद्धि करें । और (ताः) वे ( पृशनायुवः) आपस का स्पर्श, अर्थात् एक दूसरे के साथ दृढ़ संगति, प्रेम रखती हुई, सुसंगठित होकर ( पृश्नयः ) किरणों के समान परस्पर मिश्रित होकर ( सोमं ) ऐश्वर्य को ( श्रीणन्ति ) परिपक्व करें अर्थात् किरणें जिस प्रकार मिल कर ओषधियों में रस का परिपाक करती हैं उसी प्रकार प्रजागण भी परस्पर मिल कर बलवती होकर राजपद और राज्य के ऐश्वर्य को परिपक्व और सुदृढ़ करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब फिर उस सूर्य या सेनापति के सम्बन्धित गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयम् अस्य इन्द्रस्य याः पृशनायुवः पृश्नयः प्रिया धेनवः सोमं श्रीणन्ति सायकं वज्रं हिन्वन्ति वस्वीः स्वराज्यम् अनु भवन्ति ताः प्राप्नुत ॥११॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (अस्य)=इस, (इन्द्रस्य) सूर्यस्य वा सेनाध्यक्षस्य वा=सूर्य या सेनापति के, (याः) =जो, (पृशनायुवः) आत्मनः स्पर्शमिच्छन्त्यः= अपने स्पर्श करने की इच्छा करते हुए, (पृश्नयः) याः स्पृशन्ति ताः= स्पर्श करते हैं, (प्रियाः) तर्पयन्ति ताः=तृप्त होते हैं, (धेनवः) किरणा गावो वाचो वा= किरणों या वाणी से, (सोमम्) पदार्थरसमैश्वर्यं वा=सोम लता के रस अथवा ऐश्वर्य को, (श्रीणन्ति) पचन्ति= परिपक्व करते हैं, (सायकम्) स्यन्ति क्षयन्ति येन तम्=नष्ट करनेवाले, (वज्रम्) तापसमूहं किरणसमूहं वा= ताप या किरणों के समूह, (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति=प्रेरित करते हैं, (वस्वीः) पृथिवीसम्बन्धिन्यः=पृथिवी सम्बन्धी, (स्वराज्यम्)= स्वराज्य के, (अनु)= अनुकूल, (भवन्ति)=होते हैं, (ताः) उक्ता वक्ष्यमाणाश्च= सूर्य या सेनापति के स्पर्श करने की इच्छा और सोम लता के रस से तृप्त होने की, (प्राप्नुत)=प्राप्ति करते हैं ॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जैसे गोपालक की गायें जल को पी करके और घास को खा करके, सुख को बढ़ाकर अन्य लोगों के आनन्द को बढ़ाती है, वैसे ही सेनाध्यक्ष की सेना और सूर्य की किरणें औषधियों से वैद्यक शास्त्र के द्वारा सम्पादित और परिपक्व किये हुए रस को पीकर विजय प्राप्त करके या प्रकाश करके आनन्द कराते हैं ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब (अस्य) इस (इन्द्रस्य) सूर्य या सेनापति का, (याः) जो (पृशनायुवः) अपने द्वारा स्पर्श करने की इच्छा करते हुए (पृश्नयः) स्पर्श करते हैं। (प्रियाः) तृप्त होते हैं और (धेनवः) किरणों या वाणी से (सोमम्) सोम लता के रस अथवा ऐश्वर्य को (श्रीणन्ति) परिपक्व करते हैं। (सायकम्) नष्ट करनेवाले (वज्रम्) ताप या किरणों के समूह को (हिन्वन्ति) प्रेरित करते हैं, [वे] (वस्वीः) पृथिवी सम्बन्धी (स्वराज्यम्) स्वराज्य के (अनु) अनुकूल (भवन्ति) होते हैं। (ताः) सूर्य की किरणों या सेनापति के स्पर्श करने की इच्छा की पूर्ति और सोम लता के रस से तृप्त होना (प्राप्नुत) प्राप्त करते हैं ॥११॥

    संस्कृत भाग

    ताः । अ॒स्य॒ । पृ॒श॒न॒ऽयुवः॑ । सोम॑म् । श्री॒ण॒न्ति॒ । पृश्न॑यः । प्रि॒याः । इन्द्र॑स्य । धे॒नवः॑ । वज्र॑म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । साय॑कम् । वस्वीः॑ । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनस्तत्सम्बन्धिगुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा गोपालस्य धेनवो जलं पीत्वा घासं जग्ध्वा सुखं वर्धित्वाऽन्येषामानन्दं वर्धयन्ति, तथैव सेनाध्यक्षस्य सेनाः सूर्यस्य च किरणा ओषधीभ्यो वैद्यकशास्त्रसम्पादितं परिपक्वं वा रसं पीत्वा विजयं प्रकाशं वा कृत्वानन्दयन्ति ॥११॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी गोपालाची धेनू जल प्राशन करून स्वतःचे सुख वाढवून आनंदाची वृद्धी करते तसेच सेनाध्यक्षाची सेना सूर्यकिरणाच्या औषधीद्वारे वैद्यकशास्त्रानुसार उत्पन्न झालेला रस प्राशन करून प्रकाश प्राप्त करून विजय व आनंद मिळवून देते. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Those forces of Indra, the ruler, close together in contact and unison, of varied forms and colours, brilliant as sunrays and generous and productive as cows, who are dearest favourites of the ruler, create the soma of joy and national dignity and hurl the missile of the thunderbolt upon the invader as loyal citizens of the land in accordance with the demands and discipline of freedom and self-government.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Indra are taught further in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Desirous of his contact, the dear many kind cows of Indra (Commander of the army) give abundant milk with love which is mixed with Soma (Juice of various potent herbs) to strength him. Thus making him strong, they prompt him to use him thunder bold-like powerful weapons which kill wicked enemies. They and other subjects live happily under the sway of Indra (President of the State or the Commander of the Army ). The orders of the command er of the army are obeyed by his troops and they live happily under him, taking nourishing milk and other nourishing substances.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पृशनायुव:) श्रात्मन: स्पर्शमिच्छन्त्यः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः । = Desiring touch or contact. (सोमम्) पदार्थरसम् ऐश्वर्य वा = The juice of nourishing substances or prosperity. (इन्द्रस्य) सूर्यस्य सेनाध्यक्षस्य वा = Of the sun or the commander of the army. (सायकम्) स्यन्ति क्षयन्ति येन तम् = Destructive. (षो-अन्तकर्मणि )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the cows of the cowherd taking water and eating grass increase others' joy by giving good milk, in the same manner, the armies of the commander and the rays of the sun by preparing the juice of the nourishing herbs according to the Shastric prescribed method, get victory and gladden all.

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    Subject of the mantra

    Now again the qualities related to that Sun or the Commander have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ)=humans, (yūyam) =all of you, (asya) =this,(indrasya) Sun or Commander, (yāḥ) =that, (pṛśanāyuvaḥ)=wanting to touch by themselves, (pṛśnayaḥ) =touch, (priyāḥ) =are satisfied and, (dhenavaḥ)= by rays or speech, (somam)= the juice or opulence of Soma creeper, (śrīṇanti)= maturing, (sāyakam)=destroyers, (vajram)=to heat or group of rays, (hinvanti)=inspire, [ve]=they, (vasvīḥ)= earthly, (svarājyam) =own kingdom, (anu)=favourable, (bhavanti)=are, (tāḥ) =fulfillment of the desire to touch the rays of the Sun or the commander and to be satisfied with the juice of Soma creeper, (prāpnuta)= attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you who desires to touch this Sun or Commander and touch, they get satisfied. Through rays or speech, matures the juice of the Soma creeper or opulence. They inspire the heat or groups of destructive rays; they are favourable to their own earthly kingdom. They attain the fulfillment of their desire to touch the rays of the Sun or the commander and get satiated by the juice of Soma creeper.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as the cows of a herder increase the happiness of other people by drinking water and eating grass, similarly the army of the commander and the rays of the Sun attain victory by drinking the juice prepared and matured with herbal medicines through the herbal-medical scriptures, makes people happy by gaining victory or lighting up.

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