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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 18
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    को अ॒ग्निमी॑ट्टे ह॒विषा॑ घृ॒तेन॑ स्रु॒चा य॑जाता ऋ॒तुभि॑र्ध्रु॒वेभिः॑। कस्मै॑ दे॒वा आ व॑हाना॒शु होम॒ को मं॑सते वी॒तिहो॑त्रः सुदे॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । अ॒ग्निम् । ई॒ट्टे॒ । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । स्रु॒चा । य॒जा॒तै॒ । ऋ॒तुऽभिः॑ । ध्रु॒वेभिः॑ । कस्मै॑ । दे॒वाः । आ । व॒हा॒न् । आ॒शु । होम॑ । कः । मं॒स॒ते॒ । वी॒तिऽहो॑त्रः । सु॒ऽदे॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को अग्निमीट्टे हविषा घृतेन स्रुचा यजाता ऋतुभिर्ध्रुवेभिः। कस्मै देवा आ वहानाशु होम को मंसते वीतिहोत्रः सुदेवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः। अग्निम्। ईट्टे। हविषा। घृतेन। स्रुचा। यजातै। ऋतुऽभिः। ध्रुवेभिः। कस्मै। देवाः। आ। वहान्। आशु। होम। कः। मंसते। वीतिऽहोत्रः। सुऽदेवः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तदेवोपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे ऋत्विक् ! त्वं को वीतिहोत्रो हविषा घृतेनाऽग्निमीट्टे स्रुचा ध्रुवेभिर्ऋतुभिर्यजातै देवाः कस्मै होमाऽऽश्वावहान् कः सुदेव एतत्सर्वं मंसत इति ब्रूहि ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (कः) (अग्निम्) पावकमाग्नेयाऽस्त्रं वा (ईट्टे) ऐश्वर्यहेतुं विदधाति (हविषा) होतव्येन विज्ञानेन धनादिना वा (घृतेन) आज्येनोदकेन वा (स्रुचा) कर्मणा (यजातै) यजेत (ऋतुभिः) वसन्तादिभिः (ध्रुवेभिः) निश्चलैः कालावयवैः (कस्मै) (देवाः) विद्वांसः (आ) (वहान्) समन्तात् प्राप्नुयुः (आशु) सद्यः (होम) ग्रहणं दानं वा (कः) (मंसते) जानाति (वीतिहोत्रः) प्राप्ताप्तविज्ञानः (सुदेवः) शुभैर्गुणकर्मस्वभावै-र्देदीप्यमानः ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    हे विद्वन् ! केन साधनेन कर्मणा वाऽग्निविद्याऽस्मान् प्राप्नुयात्? केन यज्ञः सिध्यते? कस्मै प्रयोजनाय विद्वांसो विज्ञानयज्ञं तन्वते? ॥ १८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उक्त विषय का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! (कः) कौन (वीतिहोत्रः) विज्ञान और श्रेष्ठ क्रियायुक्त पुरुष (हविषाः) विचार और (घृतेन) घी से (अग्निम्) अग्नि को (ईट्टे) ऐश्वर्य प्राप्ति का हेतु करता है, (कः) कौन (स्रुचा) कर्म से (ध्रुवेभिः) निश्चल (ऋतुभिः) वसन्तादि ऋतुओं में (यजातै) ज्ञान और क्रियायज्ञ को करे, (देवाः) विद्वान् लोग (कस्मै) किसके लिये (होम) ग्रहण वा दान को (आशु) शीघ्र (आवहान्) प्राप्त करावें, कौन (सुदेवः) उत्तम विद्वान् इस सबको (मंसते) जानता है, इस का उत्तर कहिये ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! किस साधन वा कर्म से अग्निविद्या को प्राप्त हों? और किससे क्रियारूप यज्ञ सिद्ध होवे? किस प्रयोजन के लिये विद्वान् लोग यज्ञ का विस्तार करते हैं? ॥ १८ ॥

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    विषय

    ब्रह्मयज्ञ + देवयज्ञ

    पदार्थ

    १. (कः) = वह आनन्दमय है जोकि (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (अग्निं ईट्ट) = अग्नणी प्रभु की उपासना करता है । प्रभु की उपासना इस त्याग से ही होती है = 'कस्मै देवाय हविषा विधेम'। और (ध्रुवेभिः ऋतुभिः) = ध्रुव ऋतुओं से, अर्थात् निश्चित समय पर (स्रुचा) = चम्मच द्वारा (घृतेन) = घृत से (यजातै) = यज्ञ करता है । प्रातः - सायं अग्निहोत्र का समय है, इस समय अग्निहोत्र करना सौमनस्य के लिए आवश्यक है । २. (कस्मै) = इस ब्रह्मयज्ञ व देवयज्ञ को नित्य करनेवाले आनन्दमय पुरुष के लिए (देवाः) सब देव (आशु) = शीघ्र ही (होम) = ह्वातव्य = प्रार्थनीय धन को (आवहान्) = सब प्रकार से प्राप्त कराते हैं । सूर्य इसे दृष्टिशक्ति देता है तो चन्द्रमा इसे मानस आह्लाद प्राप्त कराता है और अग्नि इसे वाणी की शक्ति देती है । ३. (कः) = यह आनन्दमय पुरुष (मंसते) = प्रभु का विचार व पूजन करता है और (वीतिहोत्रः) = प्राप्तयज्ञ होता है = सदा यज्ञों का करनेवाला बनता है तथा (सुदेवः) = उत्तम देवताओंवाला होता है, अर्थात् उत्तम दिव्यताओं को धारण करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = आनन्द - प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम त्यागपूर्वक अदन करते हुए प्रभु का पूजन करें और निश्चित समय पर यज्ञों को करते रहें ।

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    विषय

    यथायोग्य का विवेचन ।

    भावार्थ

    ( अग्निम् हविषा घृतेन ) अग्नि को जिस प्रकार हविष्य चरु और घृत से यज्ञ में बढ़ाया जाता है और जिस प्रकार अन्न और घृत के भोजन से (अग्निम्) जाठराग्नि या जीवन को पुष्ट किया जाता है उसी प्रकार ( हविषा ) सबके स्वीकारने योग्य धन और विज्ञान से और (घृतेन) तेजोयुक्त पराक्रम से ( अग्निम् ) युद्ध के बीच अग्नेयास्त्र और राष्ट्र के बीच में स्थित तेजस्वी राजा को पुष्ट करता है ? और ( ध्रुवेभिः ) स्थिर, नियम से अवश्य आने वाले ( ऋतुभिः ) ऋतुओं से ( स्रुचा ) स्रुच् नाम यज्ञपात्र से ( कः यजातै ) कौन यज्ञ करता है और ( ध्रुवैः ऋतुभिः ) स्थिर राजसभा के सदस्यों द्वारा या ( स्रुचा ) ज्ञानयुक्त वाणी द्वारा ( कः यजातै ) कौन सत्संग करने और परस्पर वादानुवाद करने में निपुण है ? ( देवाः ) विद्वान् जन और वीर पुरुष ( कस्मै ) किसके हितार्थ (आशु ) शीघ्र ही (होम) ग्राह्य, एवं स्वीकार्य पदार्थों को ( आवहान् ) लाते और किसके आज्ञा वचनों को आदर से धारते हैं? (कः) कौन (वीतिहोत्रः) नाना विज्ञानों को प्राप्त करने वाला, (सुदेवः) उत्तम दृष्टा, तेजस्वी और युद्धकुशल ( कः मंसते ) कौन सब कुछ जानता है, कौन सबपर । ध्यान रखने और चलाने में समर्थ है ? यह सब बातें राजा नियुक्त करने के पूर्व ही विचार कर ले ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर भी उक्त ‘ऋत्विक्’ का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे ऋत्विक् ! त्वं कः वीतिहोत्रः हविषा घृतेन अग्निम् ईट्टे स्रुचा ध्रुवेभिः ऋतुभिः यजातै देवाः कस्मै होम आशु आ वहान् कः सुदेवः एतत् सर्वं मंसते इति ब्रूहि ॥१८॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (ऋत्विक्)= ऋत्विक् ! (त्वम्)=तुम, (कः)=कौन, (वीतिहोत्रः) प्राप्ताप्तविज्ञानः= प्राप्त आप्त विशेष ज्ञानवाले, (हविषा) होतव्येन विज्ञानेन धनादिना वा=होता के विशेष ज्ञान से और धन आदि से, (घृतेन) आज्येनोदकेन वा=घृत और जल से, (अग्निम्) पावकमाग्नेयाऽस्त्रं वा= पावक अग्नि से सम्बन्धित या अस्त्र, (ईट्टे) ऐश्वर्यहेतुं विदधाति=ऐश्वर्य के लिये विशेष रूप से धारण करता है, (स्रुचा) कर्मणा=कर्म के द्वारा, (ध्रुवेभिः) निश्चलैः कालावयवैः= स्थिर काल के खण्ड से. (ऋतुभिः) वसन्तादिभिः= वसन्त आदि ऋतुओं के द्वारा, (यजातै) यजेत=यज्ञ करते हो, (देवाः) विद्वांसः=विद्वान् लोग, (कस्मै)=किस के लिये, (होम) ग्रहणं दानं वा=लेने या देने में, (आशु) सद्यः=आज ही शीघ्र, (आ) समन्तात् =हर ओर से, (वहान्) प्राप्नुयुः=प्राप्त करें, (कः)=कौन, (सुदेवः) शुभैर्गुणकर्मस्वभावै-र्देदीप्यमानः= शुभ-गुण, कर्म और स्वभाव से पुनः पुनः अतिशय रूप से प्रकाशित, (एतत्)=इस, (सर्वम्)=सबको, (मंसते) जानाति=जानता है, (इति)= ऐसा, (ब्रूहि)=बोलो ॥१८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे विद्वान् ! किस साधन और कर्म से हम अग्निविद्या को प्राप्त करें? और किस साधन से क्रियारूप यज्ञ सिद्ध होता है? किस प्रयोजन के लिये विद्वान् लोग विशेष ज्ञान के यज्ञ का विस्तार करते हैं? ॥१८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (ऋत्विक्) ऋत्विक् ! (त्वम्) तुम (कः) कौन (वीतिहोत्रः) आप्त और विशेष ज्ञानवाले हो? (हविषा) होता के विशेष ज्ञान से और धन आदि से, (घृतेन) घृत और जल से (अग्निम्) पावक अग्नि से सम्बन्धित या अस्त्र और (ईट्टे) ऐश्वर्य के लिये विशेष रूप से धारण करते हो। (स्रुचा) कर्म के द्वारा (ध्रुवेभिः) स्थिर काल के खण्ड से. (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं के द्वारा (यजातै) यज्ञ करते हो (देवाः) विद्वान् लोग (कस्मै) किस के लिये (होम) लेने या देने में, (आशु) आज ही शीघ्र (आ) हर ओर से (वहान्) प्राप्त करें। (कः) कौन (सुदेवः) शुभगुण, कर्म और स्वभाव से पुनः पुनः अतिशय रूप से प्रकाशित होता है? [वह] (एतत्) इस (सर्वम्) सबको (मंसते) जानता है, (इति) ऐसा (ब्रूहि) बोलो ॥१८॥

    संस्कृत भाग

    कः । अ॒ग्निम् । ई॒ट्टे॒ । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । स्रु॒चा । य॒जा॒तै॒ । ऋ॒तुऽभिः॑ । ध्रु॒वेभिः॑ । कस्मै॑ । दे॒वाः । आ । व॒हा॒न् । आ॒शु । होम॑ । कः । मं॒स॒ते॒ । वी॒तिऽहो॑त्रः । सु॒ऽदे॒वः ॥ विषयः- पुनस्तदेवोपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे विद्वन् ! केन साधनेन कर्मणा वाऽग्निविद्याऽस्मान् प्राप्नुयात्? केन यज्ञः सिध्यते? कस्मै प्रयोजनाय विद्वांसो विज्ञानयज्ञं तन्वते? ॥१८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वान! कोणत्या साधनाने किंवा कर्माने अग्निविद्या प्राप्त होते? कुणाकडून ज्ञान व क्रियारूपी यज्ञ सिद्ध होतो? कोणत्या प्रयोजनासाठी विद्वान लोक यज्ञाचा विस्तार करतात. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Who worships Agni with ghrta and holy materials for the progress of life? Who performs yajna with ladles of offerings definitely according to the seasons? For whom do the divinities instantly bear and bring the blessings of holiness? Who, noble and generous yajaka and brilliant scholar, really knows? The lord ruler.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O performer of Yajnas (non-violent sacrifices) tell us, who is the learned and wise man, who makes fire or the weapon made with electricity called Agneyastra the source of prosperity with acceptable science or wealth, Ghee or clarified butter, with Srucha, spring and other seasons at prescribed fixed time, who is the person to whom enlighened men come to attain acceptable object give in charity soon ? Who is the person shining with good merits, actions and temperament who knows all this well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्निम्) पावकम् आग्नेयास्त्र वा = Fire or the weapon made of fire in the form of eletricity. (स्त्रु चा) कर्मणा = With noble act. (वीतिहोत्रा) प्राप्ताप्त विज्ञान: = He who has acquired the knowledge from absolutely truthful persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned person tell us by which means or actions; we can acquire the science of fire ? How is Yajna performed and with what object do learned and wise persons spread the Jnana Yajna or the noble act of knowledge.

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    Subject of the mantra

    Then again, the above mentioned 'Ritvik' has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (ṛtvik)= ṛtvik, (tvam) =you, (kaḥ) =who, (vītihotraḥ)= you are āpta, the one with special knowledge, (haviṣā) =related to sacred fire with special knowledge and wealth etc. of Hotā, (ghṛtena)=with ghee and water, (agnim) ghee and water related to purifying fire and, (īṭṭe)= possess specifically for weapons and opulence, (srucā)=by karma, (dhruvebhiḥ)= from the fixed period of time, (ṛtubhiḥ) =through the seasons like spring etc., (yajātai) =perform yajna, (devāḥ) =scholars, (kasmai) =for whom, (homa) =in taking and giving, (āśu) =quickly today itself, (ā)=from all sides, (vahān) =attain, (kaḥ) =who, (sudevaḥ) =Is illuminated again and again in great form through good qualities, actions and nature, [vaha]=he, (etat) =this, (sarvam) =to all, (maṃsate) =knows, (iti) =such, (brūhi)= say.

    English Translation (K.K.V.)

    O ṛtvik! Who are you, the one āpta with special knowledge? It may be related to sacred fire with special knowledge and wealth etc., ghee and water related to purifying fire or possess specifically for weapons and opulence. Through karma, you perform yajna through the seasons like spring etc. from the fixed period of time. Learned people, in taking or giving for what, may attain from all sides quickly today itself. Who shines brightly again and again through his good qualities, actions and nature? He knows all this, say so.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O scholar! By what means and actions can we attain the knowledge of fire? And by what means is the yajna accomplished practically? For what purpose do learned people extend the sacrifice of special knowledge?

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